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विमर्श

Hindi Pakhwada 2025 : हिंदी की दुनिया में डिजिटल क्रांति, मगर बड़ा सवाल कि लेखक की आमदनी कहां से आए?

Janjwar Desk
16 Sept 2025 2:31 PM IST
Hindi Pakhwada 2025 : हिंदी की दुनिया में डिजिटल क्रांति, मगर बड़ा सवाल कि लेखक की आमदनी कहां से आए?
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हिंदी किताबें अधिक नहीं बिकतीं. पांच सौ से एक हजार प्रतियों के संस्करण बिकने पर हिंदी लेखक खुश हो जाते हैं. प्रकाशक लेखकों से सच छुपाते हैं और उन्हें किताबों की बिक्री व आवृत्तियों के बारे में सही विवरण नहीं देते. लेखकों को समय पर रॉयल्टी भी नहीं मिलती. इसके लिए लेखकों को प्रकाशकों को बार-बार चिट्ठी लिखनी पड़ती है...

ई-बुक्स का जादू और रॉयल्टी की हकीकत पर हिमांशु जोशी की टिप्पणी

Hindi Pakhwada 2025 : हिंदी पखवाड़ा 2025 में जब हर तरफ भाषा और साहित्य की चर्चा है, तो एक अहम सवाल फिर सामने खड़ा है कि क्या हिंदी में लेखन से आजीविका संभव है? और क्या ई-बुक्स सचमुच लेखकों की आर्थिक स्थिति बदल सकती हैं?

प्रिंट बनाम डिजिटल, क्या है रॉयल्टी का गणित

हिंदी लेखक दशकों से इस शिकायत के साथ जी रहे हैं कि लेखन से पेट भरना मुश्किल है. पब्लिश ड्राइव वेबसाइट की रिपोर्ट के अनुसार पारंपरिक प्रकाशन में प्रिंट किताबों पर लेखक को औसतन 5 से 15 प्रतिशत तक ही रॉयल्टी मिलती है और अगर किताब हार्डकवर में छपती है तो यह हिस्सा और भी कम हो जाता है.

इसके विपरीत ई-बुक्स में रॉयल्टी का प्रतिशत अपेक्षाकृत बेहतर है. कई प्रकाशन 20 से 25 प्रतिशत तक देने का दावा करते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि यहां भी बिक्री और प्रचार का ग्राफ लेखक की अपनी मेहनत पर ही निर्भर करता है.

Amazon KDP और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स

Amazon Kindle Direct Publishing (KDP) ने लेखकों को सीधा पाठकों तक पहुंचने का मौका दिया. KDP Select प्रोग्राम में शामिल ई-बुक्स (₹99–₹449 मूल्य वाली) पर लेखक को 70 प्रतिशत तक रॉयल्टी मिल सकती है लेकिन इसमें प्रति एमबी करीब ₹7 का डिलीवरी शुल्क कटता है. पब्लिश ड्राइव के अनुसार यदि किताब Select प्रोग्राम में नहीं है तो रॉयल्टी सिर्फ 35 प्रतिशत तक ही सीमित रहती है. इसी तरह Apple Books, Google Play Books और Kobo जैसे प्लेटफॉर्म भी लगभग 70 प्रतिशत रॉयल्टी का दावा करते हैं, लेकिन यहाँ भी कीमत तय करने और मार्केटिंग की जिम्मेदारी लेखक की ही होती है.

अनुराग शर्मा का ई-बुक्स के प्रयोग और आधी सदी का किस्सा

प्रवासी हिंदी लेखक अनुराग शर्मा ने हिंदी ई-बुक्स का नया प्रयोग चुनते हुए अपनी किताब 'आधी सदी का किस्सा' ई बुक के रूप में पब्लिश की और यह Amazon Kindle सहित कई डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर प्रकाशित हुई.

इस किताब ने न सिर्फ़ नए पाठकों तक पहुंच बनाई, बल्कि यह भी दिखाया कि हिंदी लेखक पारंपरिक प्रकाशन की चौखट पर निर्भर रहने के बजाय डिजिटल स्पेस में अपनी जगह बना सकते हैं. अनुराग शर्मा ने इस विषय पर बात करते हुए कहा कि ऑनलाइन पब्लिशिंग किताब को तुरंत कहीं भी पहुंचा सकती है, सारी दुनिया में आपको कोई डाक/कुरियर किसी भी चक्कर में पढ़ने की जरूरत नहीं है. इधर बंदे ने इच्छा की उधर प्रकाशित हो गई. उधर बंदे ने इच्छा की और पढ़ ली. यह एक बहुत बड़ा फायदा है और किंडल वगैरा डिजिटल प्लेटफॉर्म्स में सबसे बड़ा फायदा ट्रांसपेरेंसी का भी है. आपकी जितनी किताबें बिकती हैं आपके सामने स्टैटिसटिक्स है, नंबर आपको दिख रहा है रिपोर्ट पर. कमीशन जो भी आपको मिलना है वह मिल जाता है हालांकि वह बहुत ही कम है. बहुत बड़ा मार्जिन वह खुद खा जाते हैं और उसके बाद कौड़ियां आपके सामने फेंक देते हैं, अगर कुछ बिका तो. लेकिन फिर भी सुविधा तो है ही न कि आपको किसी पब्लिशर के पास जाने की जरूरत नहीं है और जो सबसे बड़ा लाभ मैं देखता हूं किंडल में वह यह है कि आपकी किताब हमेशा अवेलेबल है. लोग किताबें पैसे दे दे के छपवाते हैं और उसके बाद प्रकाशक 200 कॉपियां, 500 कॉपियां ऑथर को ही बेचकर अपनी दुकान बंद करके चल देते हैं. आगे बाद में आप ढूंढते रहिए, किताब आपको कहीं मिलने वाली नहीं है. ऑथर भी बेचारा कहता है, मेरे पास ही आखिरी कॉपी बची है, यह आपको दे दूंगा तो फिर क्या बचेगा. ऑनलाइन पब्लिशिंग में आप अपने गर्व के साथ ग्रेसफुली जो करना चाहते हैं वह करते हैं.

नवीन जोशी : यथार्थ का आईना

हिंदी में लेखन से आजीविका पर जाने माने पत्रकार और हिंदी लेखक नवीन जोशी कहते हैं कि हिंदी में स्वतंत्र लेखक अपनी आजीविका नहीं चला सकते. पारिश्रमिक की स्थितियां बेहद खराब हैं. मैं भी अगर पत्रकारिता नहीं करता, तो परिवार नहीं पाल सकता था. मेरी पत्नी भी नौकरी करती थी, इसलिए घर चलाने में कभी दिक्कत नहीं हुई.

इसका कारण पूछने पर वे कहते हैं, हिंदी किताबें अधिक नहीं बिकतीं. पांच सौ से एक हजार प्रतियों के संस्करण बिकने पर हिंदी लेखक खुश हो जाते हैं. प्रकाशक लेखकों से सच छुपाते हैं और उन्हें किताबों की बिक्री व आवृत्तियों के बारे में सही विवरण नहीं देते. लेखकों को समय पर रॉयल्टी भी नहीं मिलती. इसके लिए लेखकों को प्रकाशकों को बार-बार चिट्ठी लिखनी पड़ती है.

हिंदी लेखन और ई-बुक्स पर प्रकाशकों का पक्ष

लेखकों को कम रॉयल्टी देने का मामला हर समय उठता रहता है, क्या कारण है कि हिंदी लेखन में यह स्थिति है! प्रश्न के उत्तर में कोतवाल का हुक्का, हैंडल पैंडल, शिक्षा में बदलाव की चुनौतियाँ, किनारे किनारे दरिया, इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ जैसी लोकप्रिय किताबों सहित 52 किताबें प्रकाशित करने वाले काव्यांश प्रकाशन के सम्पादक प्रबोध उनियाल कहते हैं कि दरअसल सारी बात किताब की बिक्री को लेकर है, रहा लेखकों को रॉयल्टी देने का प्रश्न तो यह तो पहले से ही तय होता है.

ई-बुक्स के भविष्य पर उन्होंने कहा कि हां, प्रकाशकों ने ई-बुक्स पर भी प्रयास किए हैं, लेकिन यह देखना अभी बाकी है कि यह कितने सफल होंगे. दूसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि कुल मिलाकर देखें तो हिंदी के पाठक तो कम है ही.

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