पिछले 10 वर्षों में सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई का मैदान बना हिंदी सिनेमा, साम्प्रदायिक विभाजन के नैरेटिव को बढ़ावा देनी वाली फिल्मों की आई बाढ़
PM मोदी के एक दशक के शासन में हिंदी सिनेमा का हाल बता रहे हैं जावेद अनीस
यह भारतीय राजनीति और समाज के लिये भारी उठापटक भरा दौर है, साल 2014 के बाद से एक राष्ट्र और समाज के तौर पर भारत को पुनर्परिभाषित करने के सुव्यवस्थित प्रयास किये गये हैं, जाहिर है इससे फिल्में भी अछूती नहीं हैं। इस दौरान हिन्दुस्तान का सॉफ्ट पॉवर कहा जाने वाला हिंदी सिनेमा को सॉफ्ट टारगेट बनाया गया, कभी देवताओं की तरह पूजे जाने वाले उसके सितारों को घृणा और बायकॉट अभियानों का शिकार बनाया गया, हिंदी सिनेमा को हिन्दू-मुस्लिम के साम्प्रदायिक बहस के चपेट में ढकेला गया। देश में अचानक ऐसी फिल्मों की बाढ़ आ गयी जिसमें मुसलमानों,वामपंथियों और उदारवादियों को खलनायक के तौर पर पेश किया गया है। इन सबका जुड़ाव 2014 के भगवा उभार, बॉलीवुड में खान सितारों के वर्चस्व व फिल्मी दुनिया की धर्मनिरपेक्ष मिजाज से है, जो हिन्दुत्ववादियों को कभी भी रास नहीं आयी।
सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई
दरअसल पिछले दस वर्षों में हिंदी सिनेमा को सांस्कृतिक वर्चस्व की लड़ाई का मैदान बना दिया है। इसके पीछे कई कारण हैं, इसमें कोई संदेह नहीं कि आजादी के बाद दशकों तक भारतीय सिनेमा पर नेहरुवादी समाजवाद और वामपंथी प्रभाव रहा है। अब सत्ता के केंद्र में आने के बाद हिन्दुत्वादी ताकतें सिनेमा के इस सॉफ्ट पॉवर की सीधे तौर पर नियंत्रित करते हुये इसका अपने तरीके से उपयोग करना चाहती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जो खुद को एक सांस्कृतिक संगठन के तौर पर पर पेश करता है, बॉलीवुड को धर्मनिरपेक्षता के गढ़ के रूप में देखता रहा है और लम्बे समय से इसके मिजाज को बदलने का मंसूबा पाले हुये हैं।
एक और कारण बॉलीवुड के शीर्ष तीन “खान” सुपरस्टार हैं, जो नब्बे के दशक से बॉलीवुड और दर्शकों के दिलों पर राज कर रहे हैं और जिनके प्रशंसक धार्मिक सीमा रेखाओं से परे हैं। इन तीन सितारों की अभूतपूर्व लोकप्रियता हैरान कर देने वाली है और वे हमें पुरानी सुपरस्टार तिकड़ी राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की याद दिलाते हैं। इतने व्यापक ध्रुवीकरण वाले समय में भी हिंदी सिनेमा के इस अनोखी स्थिति को लेकर हिन्दुत्वादियों की चिढ़ समझी जा सकती है। इसलिए पिछले एक दशक से खान सितारे लगातार उनके निशाने पर बने रहे हैं। इस दौरान सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल किया जाना या उनकी फिल्मों के बहिष्कार की मांग बहुत आम रही है।
दिवगंत अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की रहस्यमयी मौत के बाद तो बॉलीवुड के खिलाफ सुनियोजित बायकॉट अभियान चलाया गया, जिसमें पूरी फिल्म इंडस्ट्री को नशेड़ी और अपराधियों का नेटवर्क के तौर पर पेश करने की कोशिश की गयी। इस संबंध में बीबीसी द्वारा किये गये पड़ताल में पाया गया कि बॉलीवुड और उसके कलाकारों के ख़िलाफ़ किसी योजना के तहत एक नकारात्मक अभियान चलाया गया, बॉलीवुड के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार फैलाने वाले अधिकतर लोग बहुसंख्यक दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं और उनका जुड़ाव सत्ताधारी पार्टी से भी है।
बायकॉट अभियान को समझने के लिए दक्षिणपंथी न्यूज़ पोर्टल “ऑपइंडिया” में “बायकॉट बॉलीवुड- क्या यह वास्तव में आवश्यक है?” शीर्षक से प्रकाशित लेख का जिक्र मौजूं होगा जिसमें चिंता जाहिर की गयी है कि बायकॉट अभियान की वजह से पूरी फिल्म इंडस्ट्री का विरोध ठीक नहीं है, लेख में असली दुश्मन को पहचानने की सलाह दी गयी है, जाहिर हैं वो दुश्मन तीनों खान और उनका स्टारडम है। लेख में आह्वान किया गया है कि “हमें हिंदी फिल्म उद्योग को खत्म नहीं करना है बल्कि हमें हिंदी फिल्मों से उर्दू को हटाना है, हमें हिंदी फिल्मों में गलत इतिहास को दिखाने से रोकना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग से वामपंथियों के गैंग के एजेंडे को खत्म करना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग से हिंदू विरोधी सरगनाओं से छुटकारा पाना है, हमें हिंदी फिल्म उद्योग का शुद्धिकरण करना है।”
सांस्कृतिक वर्चस्व की इस लड़ाई में आज हमारे समाज की तरह बॉलीवुड भी खेमों में बंट गया है, यहां भी हिन्दू-मुस्लिम आम हो चुका है और पूरी इंडस्ट्री जबरदस्त वैचारिक दबाव के दौर से गुजर रही है।
सत्ता का सचेत हस्तक्षेप
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तीन मई को कर्नाटक में एक चुनावी जनसभा में ‘द केरल स्टोरी’ का जिक्र करते हुये कहा कि इस फिल्म में केरल में चल रही ‘आतंकी साजिश’ (लव जिहाद) का खुलासा किया गया। इससे पूर्व फरवरी 2024 में प्रधानमंत्री जम्मू कश्मीर की एक सभा में लोगों को “आर्टिकल 370” फिल्म देखने की सलाह देते हुये कह चुके हैं कि ‘मैंने सुना है कि “इस हफ्ते ‘आर्टिकल 370‘ पर एक फिल्म रिलीज होने वाली है… ये अच्छी बात है, क्योंकि इससे लोगों को सही जानकारी हासिल करने में मदद मिलेगी” दरअसल पिछले एक दशक में हिन्दुत्वादी एजेंडे पर आधरित फिल्मों को भाजपा के केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जबरदस्त तरीके से प्रचार किया जाता रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक शामिल रहते हैं।
लेकिन 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का एक खेमा संघ और भाजपा विचारधारा पर केन्द्रित ऐसी फिल्मों का निर्माण कर रहा है, जो बहुत ही खुले तौर पर साम्प्रदायिक विभाजन के नैरेटिव को बढ़ावा देती हैं। इन फिल्मों के फेहरिस्त में द एक्सिडेन्टल प्राइम मिनिस्टर, द केरला स्टोरी, द कश्मीर फाइल्स, पीएम नरेन्द्र मोदी, 72 हूरें, द वैक्सीन वार, मैं अटल हूँ, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, आर्टिकल 370, बस्तर-द नक्सल स्टोरी जैसी फ़िल्में प्रमुख रूप से शामिल हैं।
2024 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले “बस्तर द नक्सल स्टोरी” रिलीज हुई जिसको लेकर दावा किया गया है कि फिल्म पिछले 60 वर्षों से भारत में व्याप्त माओवाद-नक्सलवाद वामपंथ के गहरे गठजोड़ को उजागर करती है, फिल्म के निर्देशक सुदीप्तो सेन हैं जिनकी पिछली फिल्म “द केरला स्टोरी” भी काफी विवादित रही थी। इसी प्रकार से “जेएनयू: जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी” 5 अप्रैल को सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली थी, जिसे बाद में स्थगित कर दिया गया, इसी प्रकार से गोधरा कांड पर बनी फिल्म “एक्सीडेंट ऑर कॉन्सपिरेसी गोधरा” जो इस साल मार्च को रिलीज होने वाली थी, सेंसर बोर्ड सर्टिफिकेट ना मिलने की वजह से तय समय रिलीज नहीं हो पाई।
कुछ और फिल्में भी लाईन में हैं, जिसमें “रजाकर: साइलेंट जेनोसाइड ऑफ हैदराबाद” प्रमुख रूप से शामिल है जिसका निर्माण भाजपा तेलंगाना राज्य कार्यकारी समिति के सदस्य, गुडुर नारायण रेड्डी द्वारा किया गया है। इसके अलावा दीनदयाल उपाध्याय, आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की जीवनी पर भी फिल्में बन रही हैं।
जमीन अभी बाकी है
लेकिन इन तमाम प्रयासों के बावजूद बॉलीवुड की पुरानी जमीन अभी भी बची हुई है, इस दिशा में साल 2023 के शुरू में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'पठान' ने बॉयकॉट अभियान के चक्रव्यूह को तोड़ने का काम किया है और एक प्रकार से मुश्किल में पड़े बॉलीवुड के वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। इस फिल्म ने एक प्रकार से बॉलीवुड को लेकर बनाये गये ख़ास नैरेटिव को तोड़ने का काम किया। शायद इसी वजह से फिल्मकार अनुराग कश्यप ने पठान की सफलता को सोशियो-पॉलिटिकल उल्लास बताया था।
हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री ने 2013 में अपने सौ साल पूरे कर लिए थे। अपने तमाम सीमाओं के बावजूद पूरी दुनिया में इसकी पहचान अपनी खास तरह की फिल्मों के लिये है। यह हमारे उन चंद पेशेवर स्थानों में है जो समावेशी हैं और जिनका दरवाजा सभी के लिये खुला है। यही बात बहुसंख्यक दक्षिणपंथियों को हमेशा से ही खटकता रहा है। इसलिए आज वे बॉलीवुड को भी अपना भोंपू बना लेना चाहते हैं और इसके लिए वे हर हथकंडा अपना रहे हैं। आने वाले समय मे बॉलीवुड पर नियंत्रण के प्रयास और तेज होंगे, लेकिन अपनी पहचान और अस्तित्व बनाये रखने के लिए उसके पास कोई और चारा भी तो नहीं है।