निरंकुशता और नरसंहार के मामले में विश्वगुरु बना भारत, शासन व्यवस्था की म्यांमार, इथियोपिया, सूडान से भी बदतर हालत
भारत में तेजी से हो रहा प्रजातंत्र का खात्मा
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पांडेय का विश्लेषण
थाईलैंड में 13 मई को कोविड 19 के कुल 4800 नए मामले आये और इनमें से 2800 मामले अकेले बैंकाक स्थित दो जेलों से मिले। इससे पहले 5 दिनों पहले जमानत पर बाहर आयी एक महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता और प्रजातंत्र समर्थक को बाहर निकलने के बाद टेस्ट में कोविड 19 की पुष्टि की गयी है। इन दोनों जेलों में सैकड़ों प्रजातंत्र समर्थक कैद है, और जेल के भीतर कोविड 19 के हालात को देखते हुए प्रजातंत्र समर्थकों को जेल से जमानत पर जल्दी रिहा करने की मांग जोर पकड़ रही है।
वर्ष 2020 में थाईलैंड में राजशाही और प्रधानमंत्री प्रयुत चन ओचा के विरुद्ध युवाओं ने बड़े आन्दोलन किये गए थे, और इसके बाद अनेक प्रदर्शनकारियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में बंद कर दिया गया| हालां की जेल अधिकारियों के अनुसार हरेक जेल में शत-प्रतिशत कैदियों का कोरोना टेस्ट कर दिया गया है, पर संक्रमितों की संख्या नहीं बताई गयी। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का अनुमान है कि जेलों में बंद 80 से अधिक लोकतंत्र-समर्थक आन्दोलनकारी कोविड 19 से पीड़ित हैं, पर उनका पर्याप्त इलाज नहीं किया जा रहा है।
दूसरी तरफ गृहयुद्ध की विभीषिका झेल रहे इथियोपिया के टाइग्रे क्षेत्र में सैनिकों द्वारा बड़े पैमाने पर नरसंहार किया जा रहा है, और लाशों को सियार और लोमड़ी खा रहे हैं। इथियोपिया के सैनिक इस क्षेत्र में बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, और 8 वर्ष की बच्चियों का भी बलात्कार कर रहे हैं।
मानवाधिकार संगठनों के अनुसार इथियोपिया के राष्ट्रीय सैनिकों ने कम से कम 500 महिलाओं का बलात्कार किया है, जिनकी उम्र 8 वर्ष से 72 वर्ष तक है। इस क्षेत्र में इन्टरनेट सेवा बंद कर डी गयी है, और किसी को जाने की इजाजत नहीं है। जाहिर है, पूरे टाइग्रे क्षेत्र से कोई समाचार नहीं आता| यह सब एक ऐसे देश में हो रहा है, जहां के प्रधानमंत्री को वर्ष 2018 में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया था।
राजशाही और निरंकुश शासन में जो कुछ किया जा रहा है, वह दुनिया के सबसे बड़े तथाकथित लोकतंत्र भारत में बिलकुल सामान्य घटनाएं हैं। दरअसल भारत का तथाकथित लोकतंत्र इस दौर में सबसे भद्दा मजाक है, जहां लाशों के ढेर पर बैठकर एक निरंकुश बादशाह आत्मप्रशंसा में विभोर है और जिसे बस एक अपराध नजर आता है – वह है विरोध।
यहाँ की सरकार किसी के जिन्दा रहते उसे जलील करती है, प्रताड़ित करती है – और मरने के बाद घडियाली आंसू बहाती है। पंडित राजन मिश्र का उदाहरण सबके सामने है, जिन्होंने कोविड 19 से पीड़ित होने के बाद प्रधानमंत्री से मदद की गुहार लगाई थी, पर प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं किया और उनके मरते ही कोविड अस्पताल का नाम उनके नाम पर रख दिया।
थाईलैंड में तो राजशाही के बाद भी कोविड 19 के दौर में कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ता जमानत पर बाहर निकालने में सफल रहे, पर हमारे देश में जो सैकड़ों मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में बंद में हैं, उनमें से किसी के बाहर आने की सूरत नहीं है। विपक्षी दलों ने और कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने सरकार से अनुरोध किया पर कोई नतीजा नहीं निकला और देश की अदालतें किसके लिए काम करती हैं, सब जानते हैं।
यहाँ की अदालतों के काम करने का अंदाज लगातार उजागर होता है। कोविड 19 के दौर में भी एक गर्भवती कार्यकर्ता को जमानत देने में कई महीने लग जाते हैं, और एक कार्यकर्ता के पिता की मृत्यु हो जाती है, पर उसे जमानत इसके एक दिन बाद मिलती है। दिल्ली के तिहाड़ जेल में पिंजरा तोड़ संस्था की नताशा नरवाल पिछले एक वर्ष से जेल में हैं, उन्हें अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट के तहत गिरफ्तार किया गया है, पर एक वर्ष में भी पुलिस उनके खिलाफ सबूत नहीं जुटा पाई है, जाहिर है अभी सुनवाई भी शुरू नहीं की गयी है। पर, वो पिछले एक वर्ष से जेल में बंद हैं। हाल में ही उनके पिता की जब कोविड 19 के कारण तबियत बिगड़ने लगी तब उन्होंने जमानत की अर्जी डी, न्यायालय में सुनवाई हुई पर न्यायाधीश ने तीन दिनों के लिए फैसला रोक लिया, पर दो दिनों के भीतर ही उनके पिता की मौत हो गयी। पिता की मौत के अगले दिन उन्हें जेल से रिहा किया गया।
केरल के पत्रकार सिद्दिकी कप्पन को भी अक्टूबर से जेल में बंद रखा गया है| हाल में ही जब कोविड 19 से संक्रमण के बाद जब उनकी तबियत बहुत बिगड़ गयी, तब उन्हें हथकड़ी और जंजीरों में जकड कर चार दिनों के लिए अस्पताल में रखा गया। अस्पताल में उन्हें शौचालय जाने की अनुमति भी नहीं दी गयी, और चार दिनों बाद भी उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ तो कोविड 19 पॉजिटिव होते हुए भी उन्हें वापस जेल में भेज दिया गया।
मानवाधिकार कार्यकर्ता उमर खालिद और खालिद सैफी की भी यही कहानी है। खालिद सैफी दिल्ली की मंडावली जेल में हैं, इन्हें कोविड 19 होने के बाद भी जेल प्रशासन ने टेस्ट नहीं कराया| इसके बाद न्यायालय के आदेश पर टेस्ट तो कराया गया, पॉजिटिव होने के बाद भी चिकित्सा सुविधाएं नहीं दी गईं। चिकित्सा सुविधा के नाम पर एक्सपायर्ड पेरासिटामोल के टैबलेट दिए गए।
वर्ष 2018 के भीमा-कोरेगांव मामले में भी सबूत नहीं होने के बाद भी और सुनवाई के बिना ही ढेर सारे मानवाधिकार कार्यकर्ता जेल में लम्बे समय से बंद हैं। इन्हें कोविड 19 भी हो चुका और दूसरी बहुत सारी स्वास्थ्य समस्याएं हैं, पर जेल से रिहा करने के बदले सरकार ने इन्हें ऐसे जेलों में रखा है जहाँ क्षमता से भी अधिक कैदी हैं। इन्हें रिहा करने की अपील संयुक्त राष्ट्र भी कर चूका है, पर मोदी सरकार के लिए सबसे खतरनाक विरोध की आवाजें हैं। कश्मीर के नाम पर भी हजारों लोग देश की विभिन्न जेलों में बंद हैं, और इनकी वास्तविक संख्या सरकार ने कभी उजागर नहीं किया है।
वर्ष 2018 तक देश में एक पब्लिक सेफ्टी एक्ट था, जिसके तहत किसी कैदी को उसके राज्य की जेल में ही रखने का प्रावधान था, पर मोदी सरकार ने इस कानून को हटा दिया। वर्ष 2019 में पकडे गए जम्मू और कश्मीर के मानवाधिकार कार्यकर्ता हजारों की संख्या में देश की विभिन्न जेलों में बंद हैं। कितने लोग बंद हैं और किस जेल में बंद हैं – यह किसी को नहीं मालूम।
संयुक्त राष्ट्र ने भी ऐसे कैदियों को रिहा करने का आग्रह किया था, पर सरकार अपने तानाशाही रवैय्ये पर अड़ी रही। सर्वोच्च न्यायालय भी अनेकों बार कोविड 19 के दौर में जेलों से कैदियों की संख्या कम करने के बारे में कह चुका है – हरेक ऐसे आदेश के बाद सरकार हत्यारों को, बलात्कारियों को और खतरनाक मुजरिमों को बड़ी संख्या में जमानत पर जेल के बाहर भेजती है, पर एक भी मानवाधिकार कार्यकर्ता कभी रिहा नहीं किया जाता। ऐसा नहीं है कि सरकार को जेलों में कोविड 19 के खतरों के बारे में पता नहीं है – 20 मई 2020 को गृह मंत्रालय द्वारा जारी कोविड 19 से सम्बंधित दिशा निर्देश में स्पष्ट तौर पर जेलों को हॉटस्पॉट बताया गया है। दूसरी तरफ सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारतीय जेलों की कुल क्षमता के मुकाबले वर्ष 2018 में 117.6 प्रतिशत कैदी थे, जिनकी संख्या 2019 में बढ़कर 118.5 तक पहुँच गयी। भारतीय जेलों में बंद कैदियों में से 69.07 प्रतिशत कैदी अभी पहली सुनवाई का इंतज़ार कर रहे हैं।
इथियोपिया के निरंकुश शासन के दौर में गृहयुद्ध के बीच शवों को सियार और लोमड़ी खा रहे हैं, नोच रहे हैं। हमारे लोकतंत्र में तो कोविड 19 के सन्दर्भ में तथाकथित सरकारी चुस्त-डस्ट व्यवस्था के बीच, टीके के सन्दर्भ में विश्वगुरु के दावों के बीच नदियों में बहते और नदियों के किनारे दफनाये गए असंख्य शवों को चील, कौवे और कुत्ते खा रहे हैं – और यह नजारा पूरी दुनिया का मीडिया दिखा रहे है, और हमारे आका आत्मप्रशंसा में विभोर हैं।
इथियोपिया में ही गृहयुद्ध के बीच सैनिकों द्वारा 8 वर्षीय बच्ची का बलात्कार एक समाचार बनता है, पर हमारे देश में तो ऐसी खबरें ही रोज नहीं आती है, बल्कि बलात्कारी को पुलिस सुरक्षा देने और किसी अनजान को मुजरिम करार देने की खबरें ही रोज के अखबारों का हिस्सा हैं।
बलात्कार का आलम ऐसा है की दिल्ली पुलिस के अनुसार वर्ष 2020 में अकेले दिल्ली में बलात्कार की 1699 घटनाएँ दर्ज की गईं, 2186 मामले यौन उत्पीडन के थे और 65 मामले बच्चियों के शोषण के थे। यह सभी जानते हैं कि ऐसे मामलों की वास्तविक संख्या दर्ज संख्या की तुलना में कई गुना अधिक होती है। वर्ष 2021 के दौरान ही अप्रैल तक ओडिशा के कालाहांडी में 3 वर्षीय बच्ची, बाँदा में 8 वर्षीय बच्ची, पीलीभीत में भी 8 वर्षीय बच्ची और बुलंदशहर से 12 वर्षीय बच्ची की खबरें आ चुकी हैं।
हमारे देश में हरेक 15 मिनट में एक बलात्कार होता है और पिछले 10 वर्षों के दौरान ही बलात्कार के मामलों में 500 प्रतिशत की बृद्धि हो चुकी है। प्रधानमंत्री के उत्तम प्रदेश यानि उत्तर प्रदेश में वर्ष 2019 के दौरान बलात्कार के 59853 मामले दर्ज किये गए थे। उत्तर प्रदेश बलात्कार और बच्चियों के यौन शोषण – दोनों मामलों में देश के राज्यों में पहले स्थान पर है, पर बेशर्म मुख्यमंत्री आदित्यनाथ दूसरे राज्यों में चुनावी रैलियों में दावा करते हैं कि बीजेपी की सरकार आने पर महिलायें और बच्चियां सुरक्षित रहेंगी।
जाहिर है, हमारे देश की शासन व्यवस्था इस दौर में म्यांमार, इथियोपिया, सूडान, येमन और थाईलैंड से भी बदतर है।हम विश्वगुरु तो बन गए पर निरंकुशता और नरसंहार में।