Begin typing your search above and press return to search.
विमर्श

महंगाई और विकास ही सबसे अच्छा गर्भ-निरोधक

Janjwar Desk
2 Aug 2021 10:27 AM IST
महंगाई और विकास ही सबसे अच्छा गर्भ-निरोधक
x

अंतरराष्ट्रीय अनुभव में बच्चों की संख्या सीमित करने वाली नीतियों के दुष्परिणाम ही निकले हैं (photo : janjwar) 

अंतरराष्ट्रीय अनुभव में बच्चों की संख्या सीमित करने वाली नीतियों के दुष्परिणाम ही निकले हैं जैसे गर्भ की लिंग जांच कराना व लड़की होने पर गर्भपात कराना व कन्या भ्रूणहत्या, जिससे लिंग अनुपात और विकृत हुआ है....

बाॅबी रमाकांत और संदीप पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन के अनुसार, क्षय रोग (टीबी) का सबसे बड़ा खतरा कु-पोषण है। ज़ाहिर सी बात है कि यदि टीबी उन्मूलन के सपने को साकार करना है तो कुपोषण को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते। 2019 में दिल्ली-स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक और वरिष्ठ श्वास रोग विशेषज्ञ डॉ रणदीप गुलेरिया ने हम लोगों से एक साक्षात्कार में कहा था कि विकसित देशों में टीबी दर सिर्फ जांच-दवा के कारण इतनी कम नहीं हुई है, बल्कि इसलिए कम हुई क्योंकि वहां सभी इंसानों के लिए साफ-सफाई, पोषण, स्वास्थ्य सुविधाएँ, व अन्य सामाजिक-आर्थिक संकेतकों में भी सुधार हुआ। उन्होंने कहा कि यदि सभी लोगों के पोषण, गरीबी उन्मूलन, रहन सहन, स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा, आदि में सुधार होगा तो टीबी उन्मूलन की दिशा में अधिक प्रगति होगी।

टीबी उन्मूलन के लिए हम टीबी रोगी को गुनाहगार नहीं ठहरा सकते कि वह गरीब क्यों है, क्यों भीड़-भाड़ वाले इलाके में रहता है, क्यों भूखा रहता है, आदि - यह तो रोग नियंत्रण के लिए नुकसानदायक होगा, और मानवाधिकार का उल्लंघन भी। टीबी उन्मूलन और सबके सतत विकास की जिम्मेदारी सरकार की है।

इसी तरह से, जिस समाज में सभी इंसानों के लिए विकास के सभी संकेतक बेहतर हैं वहां पर जनसंख्या स्वतः ही नियंत्रित एवं स्थिर हो गयी है। जनसंख्या नियंत्रित और स्थिर करनी है तो हर इंसान का विकास करना होगा। और हर इंसान के विकास की जिम्मेदारी किसकी है - इन्सान की या सरकार की?

सबसे अहम् बात तो यह है कि किसी भी सभ्य समाज में महिला अधिकार और उसके अपने शरीर पर अधिकार को दरकिनार नहीं किया जा सकता।

उत्तर प्रदेश जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण व कल्याण) बिल 2021, राजनीति से प्ररित है व इसका उद्देश्य अगले विधान सभा चुनाव के मद्देनजर मतों का ध्रुवीकरण है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो भारतीय जनता पार्टी की प्रेरणा स्रोत है, एक अफवाह फैलाती है कि भारत में मुसलमानों की जनसंख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि एक दिन उनकी संख्या हिन्दुओं से ज्यादा हो जाएगी। इसलिए इस बिल के माध्यम से भाजपा अपने मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि उसने मुसलमानों की जनसंख्या नियंत्रित करने के लिए यह बिल पेश किया है।

हकीकत है कि परिवार में बच्चों की संख्या का किसी धर्म से ताल्लुक नहीं होता बल्कि गरीबी से होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह समझ बनी है कि विकास ही सबसे अच्छा गर्भनिरोधक है। बंग्लादेश, जो कि एक मुस्लिम बहुसंख्यक देश है, में 2011 में महिलाओं की साक्षरता दर 78 प्रतिशत थी जो भारत में 74 प्रतिशत थी। कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत बंग्लादेश में 57 प्रतिशत था, जबकि भारत में वह 29 प्रतिशत था। सिर्फ शिक्षा व रोजगार के अवसर उपलब्ध कराकर बंग्लादेश ने प्रति परिवार बच्चों की संख्या 2.2 हासिल कर ली थी, जबकि 2.1 पर जनसंख्या का स्थिरीकरण हो जाता है। भारत में तब प्रति परिवार बच्चों की संख्या 2.6 थी। इससे यह साबित होता है कि प्रति परिवार बच्चों की संख्या का ताल्लुक महिलाओं के सशक्तीकरण है। जब महिला पढ़ लिख जाएगी और घर से बाहर निकलेगी तो वह अपने बच्चों की संख्या का निर्णय खुद लेगी। महिला अधिकार आंदोलन का मानना है कि किसी भी महिला का अपने शरीर पर पूरा अधिकार है और यह निर्णय उसका अपना होना चाहिए कि वह कितने बच्चे पैदा करेगी अथवा पैदा करेगी भी या नहीं।

भारत सरकार ने दशकों पहले अंतरराष्ट्रीय संधि (जिसका औपचारिक नाम यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन फॉर एलिमिनेशन ऑफ़ आल फॉम्र्स ऑफ़ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वीमेन है) का अनुमोदन किया है और अनेक ऐसे वैश्विक स्तर पर वादे किये हैं जिनमें सतत विकास लक्ष्य, बीजिंग डिक्लेरेशन, आई.सी.पी.डी. आदि प्रमुख हैं, जिनमें उपरोक्त महिला अधिकार और उसके अपने शरीर पर अधिकार, सभी शामिल हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार प्रति परिवार बच्चों की संख्या दो तक सीमित कर महिलाओं के लिए समस्या खड़ी करने वाली है। केन्द्रीय राज्य स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. भारती पवार का कहना है कि केन्द्र सरकार उत्तर प्रदेश की तरह कोई दो बच्चों वाली नीति नहीं लाने वाली व पहले से चली आ रही स्वैच्छिक परिवार नियोजन नीति ही कायम रखेगी। उनका कहना है अंतरराष्ट्रीय अनुभव में बच्चों की संख्या सीमित करने वाली नीतियों के दुष्परिणाम ही निकले हैं जैसे गर्भ की लिंग जांच कराना व लड़की होने पर गर्भपात कराना व कन्या भ्रूणहत्या जिससे लिंग अनुपात और विकृत हुआ है।

बिल का जो मसौदा बना है उसमें तमाम विसंगतियां हैं। यदि माता-पिता के अपने बच्चे नहीं हैं तो यह प्रस्तावित कानून दो बच्चे गोद लेने की इजाजत देता है, लेकिन तीन से ज्यादा नहीं। अपना एक बच्चा होने पर दो बच्चे गोद लेने की छूट नहीं लेकिन अपने दो बच्चे होने पर एक बच्चा गोद लेने की इजाजत है। इसके पीछे क्या तर्क हो सकता है? ये नियम तो गरीब विरोधी हैं क्योंकि ज्यादातर अनाथ बच्चे गरीब परिवारों से ही होंगे इसीलिए उनके परिवार ने उन्हें त्याग दिया होगा। अनाथ बच्चों के साथ ऐसा भेदभाव क्यों यह मसौदा तैयार करने वालों को बताना चाहिए?

बिल में एक विरोधाभास है। यदि किसी परिवार के दो बच्चे हैं जिसमें से पहला विकलांग है तो तीसरे बच्चे की इजाजत है। किंतु उसी पृष्ठ पर नीचे लिखा है कि यदि पहला बच्चा विकलांग है तो दो और बच्चे पैदा करने पर प्रस्तावित कानून का उल्लंघन माना जाएगा। यह देखते हुए कि बिल का मसौदा विशेषज्ञ लोगों ने तैयार किया होगा यह समझ में नहीं आता कि बिल सार्वजनिक करने से पहले ऐसी विसंगतियां क्यों दूर नहीं की गईं?

बिल में कहा गया है कि एक ही प्रसव में एक से ज्यादा बच्चे होने पर उसे नीति का उल्लंघन नहीं माना जाएगा। किंतु फिर एक जगह लिखा है कि यदि पहले बच्चे की मृत्यु हो जाती है और दूसरा बच्चा होते हुए तीसरा और चैथा बच्चा एक ही प्रसव में हो जाता है तो यह दो बच्चों की नीति का उल्लंघन माना जाएगा। अजीब बात है कि आगे लिखा है कि यदि पहले दोनों बच्चे मर जाते हैं तो उसके बाद पैदा होने वाले दो बच्चे नीति का उल्लंघन माना जाएगा। फिर लिखा है कि यदि एक बच्चा मर जाता है और फिर दो बच्चे अलग अलग प्रसव में पैदा होते हैं तो वह भी दो बच्चों की नीति का उल्लंघन माना जाएगा।

ऐसा प्रतीत होता है कि बिल का मसौदा बहुत ध्यान से नहीं बनाया गया है। शायद बनाने वालों से इसे गम्भीरता से नहीं लिया क्योंकि उन्हें भी मालूम रहा होगा कि सरकार खुद कानून बनाने के लिए गम्भीर नहीं है। उसने सिर्फ लोगों का सरकार की असफलताओं से ध्यान भटकाने के लिए एक शिगूफा छोड़ा है। लोग बहस में उलझे रहें व भाजपा अपने राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए काम करती रहे।

जनसंख्या नियंत्रण और मातृत्व-शिशु स्वास्थ्य के प्रति सरकार अपनी असफलता पर पर्दा नहीं डाल सकती। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 के अनुसार, भारत में 15-49 वर्षीय विवाहित लोगों में, 36 प्रतिशत महिला नसबंदी कराती हैं जबकि सिर्फ 0.3 प्रतिशत पुरुष नसबंदी कराते हैं। पुरुष कंडोम दर सिर्फ 5.6 प्रतिशत है, जबकि महिला कंडोम का आंकड़ा ही नहीं है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि 12.9 प्रतिशत लोगों तक कोई भी परिवार नियोजन सुविधा नहीं पहुँचती है। यह किसकी जिम्मेदारी है कि सब तक परिवार नियोजन सुविधा और सेवा पहुंचे? सरकार अपनी असफलता को ढक कर यदि ऐसी नीतियां-कानून लाएगी तो आप अनुमान लगायें कि इसका कुपरिणाम कौन झेलेगी?

ज़ाहिर बात है कि जब तक हर प्रकार की लिंग और यौनिक असमानता नहीं समाप्त होगी, तब तक महिला कैसे विकास के हर संकेतक में बराबरी से हिस्सेदार बनेगी? जनसंख्या नियंत्रण करना है तो विकास ही एकमात्र जरिया है, और सबके विकास की जिम्मेदारी सरकार की है।

Next Story

विविध