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विमर्श

पत्रकारिता अब जनता नहीं विशेष धर्म का ले रही पक्ष, टीवी चैनल बो रहे नफरत के बीज

Janjwar Desk
11 Aug 2021 4:35 PM IST
पत्रकारिता अब जनता नहीं विशेष धर्म का ले रही पक्ष, टीवी चैनल बो रहे नफरत के बीज
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किसान आंदोलन में लगे थे गोदी मीडिया विरोधी ये पोस्टर (file photo)

साम्प्रदायिक बातें अब राष्ट्रवादी बताई जाने लगी हैं, मीडिया में थ्योरी है 'कल्टीवेशन थ्योरी' जो लोगों को दिखाया जाता है, वह उसे ही सच मानने लगते हैं....

हिमांशु जोशी की टिप्पणी

जनज्वार। किसी राजनीतिक वीडियो पर महिलाओं की टिप्पणी न के बराबर होती है और अगर महिलाओं की राजनीति पर रुचि ख़त्म हो जाएगी तो उनके मुद्दे सुने कैसे जाएंगे। अपनी शिक्षा, सुरक्षा के लिए महिलाओं को राजनीति के मुद्दों पर अपनी राय खुल कर रखनी चाहिए

पिछले कुछ समय से बोलना, सुनना और समझना बड़े ही संकट में जान पड़ रहा है। 'लंकेश पत्रिका' का संचालन करने वाली गौरी लंकेश 2017 में मार दी गई, भारतीय फ़ोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी को अफगानिस्तान में एक रिपोर्टिंग के दौरान मार दिया गया, श्याम मीरा सिंह को सबसे तेज़ 'आजतक' ने तेज़ी के साथ सिर्फ इसलिए नौकरी से निकाल दिया, क्योंकि वह सोशल मीडिया पर 'लोकतांत्रिक देश' के प्रधानमंत्री के खिलाफ़ लिख रहे थे, खुलकर लिख-बोल रहे मीडिया घरानों में छापों की बात तो सबको पता ही है।

देश के बड़े-बड़े टीवी चैनल अलग-अलग धर्मों के खरीदे हुए लोगों को बुला डिबेट करा लोगों के बीच नफ़रत के बीज बो रहे हैं। पत्रकारिता अब जन का नहीं विशेष धर्म का पक्ष लेने लगी है, ये दो लिंक हैं जो आपको भारत में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के धर्मों के बीच खाई बनाने वाली पत्रकारिता से वाकिफ़ करायेंगे।

https://twitter.com/SudarshanNewsTV/status/1406579667365109762?s=20

https://youtu.be/lN4OKNSHU7Q

जंतर-मंतर पर ऐसी खबरों का तुरंत असर दिखता है और एक विशेष धर्म के खिलाफ़ नारे लगाए जाते हैं, मुख्य समाचार पत्रों और टीवी चैनलों से यह ख़बर गायब रहती है और खुद दिल्ली इससे अनजान है। दिल्लीवासियों के इसी हवा में उड़ाने वाले रवैये ने उन्हें पिछले साल दंगों की आग में झोंका था, पर वहां अब भी भाईचारे और अमन चाहकर ऐसे नफ़रत फ़ैलाने वाले लोगों को नेस्तनाबूद करने वाले लोग नदारद हैं।

स्वतंत्रता दिवस से ठीक पहले पत्रकार श्याम मीरा सिंह ने दिल्ली में इस नफ़रत फैलाने वाले एजेंडे का विरोध करने के लिए प्रदर्शन किया, जिसमें उन्हें काफी सामाजिक कार्यकर्ताओं का भी साथ मिला।

इस प्रदर्शन को कवर करने के लिए भी मुख्यधारा मीडिया नदारद थी, पर कुछ सच खोज लाने और सीना चौड़ा कर उसे जन को दिखा सकने की हिम्मत करने वाले पत्रकार वहां मौजूद थे।

लोकतंत्र को जीवित रखने में महत्वपूर्ण मीडिया की इस कमज़ोरी के पीछे कमी लोकतंत्र की नीति बनाने वालों में नहीं, कमी पत्रकारिता के रखवालों में जान पड़ती है। कहीं पत्रकारिता में शोध करने वाले को यह कह दिया जाता है कि शोध का माध्यम राष्ट्रभाषा हिन्दी में नही सिर्फ़ अंग्रेज़ी में होगा तो कहीं पत्रकारिता छात्रों के मन में इस बात को पहले ही डाल दिया जाता है कि 'तेरा तो भविष्य ही नही'

पत्रकारिता के वर्तमान हालातों को गहराई से समझाने वाली क़िताबें पत्रकारिता कोर्स से ग़ायब हैं। नेट परीक्षा में पत्रकारिता के छात्रों से वह सवाल पूछे जाते हैं जो ब्रिटिश छात्रों से पूछे जाने चाहिए।

पत्रकारिता अब दो धड़ों में बंट चुकी है, गोदी पत्रकारिता और 'लात मारो' पत्रकारिता। गोदी पत्रकारिता का मतलब आप जानते ही हैं, खूब सारे पैसे और अवार्ड तो लात मारो पत्रकारिता मतलब तंत्र के खिलाफ़ लिखने वाले पत्रकारों को कभी भी अपशब्द बोल दो, उनके साथ मारपीट कर लो या उन्हें कभी भी नौकरी से निकाल दो।

सोर्स का हवाला तो पत्रकारिता में पहले ही कम दिया जाता था, इसकी कोई अनिर्वायता भी नही थी, क्योंकि तब समाचारों के बीच एक दूसरे से आगे निकलने की ऐसी प्रतिद्वंद्विता नहीं थी। अब सैकड़ों समाचारों चैनलों और पत्रों के बीच खुद को जीवित रखना मुश्किल हो गया है, कोरोना से मीडिया के बुरे हाल हैं। निजी विज्ञापन न मिलने की वजह से अब मीडिया घराने सरकार पर ज्यादा निर्भर हैं और ऐसे में आप अनुमान लगाइए कि आपको मिलने वाली खबरें कैसी होंगी, वह वास्तविक होंगी भी या नही।

जो लोगों को दिखाया जाता है, वह उसे ही सच मानने लगते हैं। मीराबाई चानू के सम्मान समारोह में मीराबाई से बड़ी तस्वीर प्रधानमंत्री की लगी है, नीरज चोपड़ा से बातचीत करते प्रधानमंत्री ही ज्यादा बोलते दिखते हैं।

ओलंपिक का हर पदक मोदीजी के नए भारत के लिए किए गए प्रयासों से आया है, व्यवस्थाओं के अभाव में भी पदक लाने वाले खिलाड़ियों का तो उसमें नाममात्र का योगदान है। रिकॉर्ड स्तर में पहुंच चुकी बेरोज़गारी का बढ़ना सरकार के कारण नहीं है, यह ठीक वैसा ही है जैसे कोरोना से हुई मौतों के लिए भी सरकार जिम्मेदार नहीं थी।

साम्प्रदायिक बातें अब राष्ट्रवादी बताई जाने लगी हैं। मीडिया में थ्योरी है 'कल्टीवेशन थ्योरी' जो लोगों को दिखाया जाता है, वह उसे ही सच मानने लगते हैं। हो भी यही रहा है मुझे अलग-अलग धर्मों के अपने दो दोस्त याद आते हैं, दोनों पिछले कुछ समय से एक-दूसरे धर्मों के प्रति नफ़रत भरे पोस्ट करने लगे, मेरे उनकी इस नफरत का कारण पूछने पर दोनों के एक ही जवाब थे।

भारत प्रेस की आज़ादी में इसलिए पिछड़ रहा है, क्योंकि पाठक भी यही चाहते हैं। जो चैनल, अखबार सरकार की जितनी तारीफ़ करे, उसकी उतनी अधिक रेटिंग। युवा पीढ़ी पर अज्ञानता का बोझ लाद, साम्प्रदायिकता का चश्मा पहना दिया गया है।

सूचना की स्वतंत्रता के लिए रक्षक पेरिस स्थित अंतरराष्ट्रीय एनजीओ 'रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर' के अनुसार वर्ष 2021 में विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक की 180 देशों के लिस्ट में नॉर्वे 1 नम्बर पर है तो भारत का 142 स्थान पर है।

मीडिया से असली मुद्दे नदारद

होना यह चाहिए कि जब हम अपनी समस्याओं के लिए मीडिया का मुंह ताकें तो बिकी हुई मीडिया न मिले। हमारी टूटी सड़कों, बेरोजगारी, अक्सर गायब रहने वाली बिजली के मुद्दे मीडिया मजबूती के साथ उठाए पर हो क्या रहा है!

उत्तराखंड में मुख्यधारा मीडिया राजनीतिक पार्टियों के फ्री बिजली कनेक्शन विज्ञापन का प्रचार कर रही है जबकि अभी विद्युत विभाग पैसे लेकर भी चौबीस घण्टे बिजली देने में असमर्थ है। ग्राहकों को मैसेज भेज बिजली कटने की सूचना दे दी जाती है और समय से बिजली कट भी जाती है पर फिर समय से आती नही।

बेरोज़गारी जैसे आंकड़े बाहर न आएं, इस डर से 'वित्त मंत्रालय' ने मान्यता प्राप्त पत्रकारों को बगैर अप्वाइंटमेंट के अंदर आने से मना किया और इस पर कोई विरोध भी नही्र हुआ।

आईटी सेल की मदद से वाट्सएप यूनिवर्सिटी का जनता के बीच प्रभाव कितना बढ़ गया है, इस ज़हर को मैं खुद एक दिन उत्तराखंड के किसी फ़ेसबुक पेज़ पर झेल चुका हूं, जब एक युवा को उत्तराखंड के जाने माने पेज़ में साक्षात्कार के लिए बुलाया जाना था, पर अन्य युवा उसके धर्म विशेष से जुड़े होने पर उसे साक्षात्कार हेतु बुलाए जाने का विरोध करने लगे थे। जब मैंने इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई तो मुझे भी भला-बुरा कहा गया। मेरे समझ यह नही आया कि पहाड़ की शांत वादियों के युवाओं में आख़िर यह ज़हर आया कहां से! शायद ज़हर फैलाने के लिए सस्ते कर दिए गए इंटरनेट से! तब मैंने महसूस भी किया लिखना है तो हिम्मत चाहिए, सच के साथ रहने के लिए।

महिलाओं का राजनीतिक मसलों पर लिखना-पढ़ना न के बराबर हो गया है, यह मैंने 'जनज्वार' की वीडियो समीक्षा में यह खुद महसूस किया है। किसी राजनीतिक वीडियो पर महिलाओं की टिप्पणी न के बराबर होती है और अगर महिलाओं की राजनीति पर रुचि ख़त्म हो जाएगी तो उनके मुद्दे सुने कैसे जाएंगे। अपनी शिक्षा,सुरक्षा के लिए महिलाओं को राजनीति के मुद्दों पर अपनी राय खुल कर रखनी चाहिए।

बहुत से बड़े अखबार असल मुद्दों में लेख छापने से कतराने लगे है्र, बस गिने-चुने वेब पोर्टल्स और अख़बार आजकल सच लिख भेजा छापते हैं नही तो अधिकतर को बस 'कम चुभने वाले' समाचार ही भाते हैं। जब आप सरकार पर सवाल करती ख़बर पढ़ेंगे ही नही तो उनका झूठ कैसे पकड़ेंगे और जब झूठ पकड़ेंगे ही नही तो वोट तो अपनी 'सच्ची' सरकार को ही देंगे।

फेक न्यूज़, समस्या बड़ी है

महान बनाने का सपना बहुत खतरनाक है, वही सपना जो महान अमेरिका और फ्रांस को भी दिखाया गया है। पूरी दुनिया हिटलर के महान जर्मनी बनाने वाले सपने की ओर अग्रसर है। हिटलर ने जो नफ़रत के बीज बोए थे वह अब भी बोए जा रहे हैं, उसकी बदला लेने की राजनीति अब भी हो रही है। कभी आप दीदी की मिमिक्री सुनते हैं तो कभी पप्पू वाले व्यंग्य।

एक नेता की सोच पर लाखों यहूदियों को मारा गया था, उसमें मारने वाला सिर्फ़ हिटलर नहीं था, उसकी सोच से प्रभावित नागरिक भी थे। अमेरिका, अफगानिस्तान, चीन, भारत , फ्रांस सहित पूरी दुनिया में भी आज वही हो रहा है। निर्दोषों को भीड़ द्वारा घेरकर मारे जाने की खबरों से आप अनजान नही हैं , नक्सलवाद हो या रंगभेद सब एक ही सोच का परिणाम होते हैं, महान।

आप खुद महसूस करते होंगे कि सस्ता-सस्ता कर इंटरनेट आपके जीवन का अभिन्न अंग बना दिया गया है, इसके बिना आप रह नही सकते। वाट्सएप, टीवी, यूट्यूब की खबरों पर आपको किताबों से ज्यादा भरोसा हो गया है और शायद आपने अरसे से कोई किताब पढ़ी भी न हो।

टीवी, वाट्सएप पर इतिहास को लेकर ज्ञान बढ़ाने से बेहतर लाइब्रेरी में बैठना है, वाट्सएप यूनिवर्सिटी इतनी लोकप्रिय हो गई है कि वहां कोरोना का हर सम्भव इलाज है तो नेहरू, गांधी, मोदी को लेकर अथाह अज्ञानता भरे आलेख।

खबरों के डिजिटल होने के बाद हर कोई ख़बर अपने फोन पर पाना चाहता है, वह उसे ही सच मानता है जो उसे वेब पोर्टल दिखाता है। पत्रकार ख़बर मसालेदार भी बना सकता है और सादी भी, ख़बर डाइनिंग टेबल में लगे खाने की तरह हो गई है। ख़बर को पाठकों के सामने जैसा परोसा जाएगा वह उसे वैसा ही खा लेगा। सोशल मीडिया का भी वही हाल है, जबकि वहां तो खबरों में और झन्नाटेदार तड़का लगा दिया जाता है क्योंकि लोगों को पता है कि जो भी लिखो उसकी सच्चाई को जांचने परखने वाला कोई टूल अभी तक आया नहीं है।

जेल का भय

प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के खिलाफ़ लिखने भर से कितने ही लोगों को जेल डाल दिया गया है, ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट आपकी आंख खोलने के लिए काफ़ी है।

पत्रकारिता की स्वतंत्रता और पत्रकारों के हितों की रक्षा करने वाली संस्था ' कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट' की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1992-2021 के बीच भारत के 53 पत्रकारों की जान गई और वर्ष 2020 में ही चार पत्रकारों को जेल डाल दिया गया था।

सच बोलने पर जेल के भय को समाप्त किया जाना चाहिए, महात्मा गांधी ने भी यही किया था। महात्मा गांधी अन्याय के खिलाफ़ जेल गए और उन्हें देख लोगों ने जेलें भर दी थी। लिखने का गला घोंटने पर कानून बनाए जा रहे हैं, पर आप लिखिए और पढ़िए क्योंकि आप तंत्र से ऊपर हैं और यही लोकतंत्र है।

यदि आप इस स्वतंत्रता दिवस से पहले समय निकाल कर भारतीय इतिहास की किताबों को टटोलें तो उसमें आपको महात्मा गांधी के चारों और अम्बेडकर, सुभाष चन्द्र बोस, नेहरू और पटेल दिखेंगे, पर आज के 'मज़बूत' नेता के पास दूसरों की बुराइयां हैं। तथ्य के तौर पर अक्सर चुनाव प्रचारक का कार्य करते 'मज़बूत' नेता का चुनाव रैलियों वाला आप कोई भी वीडियो देख सकते हैं। असली नेता वही होता है जो सबको साथ लेकर चले।

फिल्मों से समाज बहुत कुछ सीखता है, पर भारतीय फिल्मों ने कभी ऐसे मुद्दों को छुआ ही नहीं जिससे जाति-धर्म की दूरियां खत्म हों, वह बस सुंदरता और अमीरी-गरीबी ही बेचने में रहे।

मुख्य अख़बार, टीवी चैनल ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं, जिससे प्रेम को लेकर लोगों के मन में नकारात्मक भावना ही जन्म लेती है, आज भी जोड़ों को सुरक्षा नहीं मिलती। कहीं कोई इश्क़ फ़रमाते दिख जाए तो पहले उसका जाति-धर्म पूछा जाता है और अगर वह वहां पास भी हो जाए तो सार्वजनिक स्थान पर इश्क़ करने के लिए उसकी इज्ज़त को तार-तार किया जाता है।

समाज को ऐसे लव पार्कों की सख़्त आवश्यकता है जहां किसी की काली नज़रें न पहुंचें और साथ ही ऐसी खबरों की भी जो किसी के प्यार को धर्म-जाति का नाम दे। संविधान में वयस्क वाली अवधारणा कुछ सोच कर ही रखी गई है। यही युवा पीढ़ी को आज़ादी का उपहार होगा।

निजता है जरूरी

24 अगस्त 2017 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने निजता को मौलिक अधिकार बताया था। पैग़ासस, ट्विटर विवाद, आरोग्य सेतु और आधार कार्ड अनिवार्यता वह मुद्दे हैं, जो हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या हम उस अधिकार का सही प्रयोग कर पाए हैं और क्या सरकार हमारे मौलिक अधिकार की सुरक्षा करने में सक्षम हुई हैं।

हम जागरूक नही होंगे तो मीडिया घराने लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ नही, राजनीतिक पार्टियों का पहला स्तम्भ बन जाएंगे। 1949 में लिखी जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास '1984' की 'विचार पुलिस' जल्द हमारे ऊपर कब्ज़ा कर लेगी।

खैरात में नही बंटता लोकतंत्र

लोकतंत्र के महत्व को समझना है तो हमें हांगकांग के संघर्ष को देखना चाहिए, हमें उस कश्मीर को देखना चाहिए, जहां सूचनातंत्र बंद होने पर भी हम शांत थे। अफगानिस्तान अपने वजूद को बचाने के लिए लड़ रहा है और वो खुद को स्वतंत्र रखने की लड़ाई है।

भारत के मेनस्ट्रीम मीडिया ने लाठी खा रहे लोगों की खबरों को दिखाना बंद कर दिया है। इस मुख्यधारा मीडिया में पैग़ासुस के बाद भी शांति बनी हुई है जबकि ऐसी जासूसी पर मीडिया ने आरोपियों को बेनकाब करना चाहिए था, पर ट्रेंड रहा है तो राज कुंद्रा की पोर्न का मामला और ओलम्पियनों के स्वागत की खबरें।

बन्दा मिला है ख़बर बनाने के लिए जमकर बनेगी, वरना सुना बहुत बार है कि सरकार ने पोर्न साइट्स पर प्रतिबंध लगाया है। एक बार गूगल पर 'पोर्न' लिख कर तो देखिए राज कुंद्रा को भूल जाएंगे। यही एथेलीट कर्ज़ा ले विदेश कोचिंग करते हैं, बज़री वाले ग्राउंड पर हॉकी खेलते हैं तब कभी ख़बर नही बनते।

एक मरी मीडिया लाखों मरे नागरिक पैदा करती है वाक्य अगर आप अपने ज़ेहन में लाएं तो स्वतंत्रता दिवस से पहले यह वाक्य बहुत सारे सवाल खड़े कर जाता है, जो हमें खुद से पूछने चाहिए। जिस बात के लिए भगत सिंह, महात्मा गांधी शहीद हुए थे क्या यह वैसा ही राष्ट्र है!

फ़ेसबुक के एक पेज़ पर मुझे नफ़रत पाले युवाओं को देख दुख हुआ था तो कुछ पेज़ों पर नाज़ भी है, जहां कभी किसी युवा के स्वरोज़गार अपनाने की ख़बर को सकारात्मक रूप से दिखाया जाता है तो कभी जात-पात और धर्म से परे एक दूसरे की मदद वाली ख़बरों को फैला समाज़ में अच्छा सन्देश दिया जाता है। वहां समय-समय पर अपने शहर-गांव में ख़राब सड़क बनाने वालों के साथ बिन सड़क पूरी किए टोल वसूलने वालों को घेरा भी जाता है। यही तो नागरिक पत्रकारिता है।

गांधी जी का वक्तव्य इन टीवी चैनलों, अखबारों के लिए ठीक बैठता है "आप इन निकम्मे अखबारों को फेंक दें। कुछ ख़बर सुननी हो, तो एक दूसरे से पूछ लें। अगर पढ़ना ही चाहें, तो सोच-समझकर अख़बार चुन लें, जो हिन्दुस्तानवासियों की सेवा के लिए चलाए जा रहे हों। जो हिन्दू और मुसलमान को मिलकर रहना सिखाते हों।" आपको भी समय रहते यह समझना होगा।

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