अपने कुकर्मों को भूलकर फ्रांस की घटना के बहाने 'इस्लामोफोबिया' फैलाने में जुट गए हैं मोदी भक्त
वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण
दुनिया में कहीं भी धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता। न ही कट्टरपंथियों के बीच कोई अंतर किया जा सकता है। धार्मिक कट्टरपंथी चाहे किसी भी धर्म के हों, वे मानवता के लिए दुश्मन ही हैं। लेकिन भारत में मुस्लिम विद्वेष को ही राजधर्म मानने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके अंध भक्त केवल मुस्लिम कट्टरपंथियों की हिंसा से आहत होते हैं। गाय के नाम पर गोरक्षक भीड़ के हाथों अपने देश में मुसलमानों की हत्या को वे 'वैदिक हिंसा' मानते हैं और चुप रहकर इस तरह के हत्यारे का मनोबल बढ़ाते हैं। भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलते हुए मोदी जब फ्रांस में अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थन करते हैं तो हास्यास्पद प्रतीत होते हैं। कट्टरपंथी चाहे फ्रांस के हों चाहे भारत के हों, उनकी सिर्फ भर्त्सना ही की जा सकती है।
इसी तरह मोदी के भक्त फ्रांस की घटना के बहाने सोशल मीडिया पर इस्लामोफोबिया फैलाने में जी जान से जुट गए हैं। ये भक्त संघ परिवार की तरफ से की गई हिंसक घटनाओं को भूलकर सिर्फ फ्रांस में हुई हिंसा का उदाहरण देते हुए तमाम मुसलमानों को हत्यारे के तौर पर चित्रित करते हुए उनके खिलाफ नफरत फैला रहे हैं। ऐसे भक्तों का हौसला तब और मजबूत हो जाता है जब भारत में मौजूद कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी फ्रांस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते हुए मरने मारने की बात करते हैं।
फ्रांस में पैगंबर मोहम्मद साहब के कार्टून को लेकर उठा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। साथ ही फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के बयान पर मुस्लिम जगत में विरोध रहा है। इस बीच, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि वह समझ सकते हैं कि पैगंबर मोहम्मद के कार्टून से मुस्लिम समुदाय को धक्का लगा है लेकिन हिंसा को स्वीकार नहीं किया जा सकता। एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में फ्रांस लाखों मुस्लिम शरणार्थियों को उदारतापूर्वक आश्रय देता रहा है। अगर मुस्लिम कट्टरपंथी एक ऐसे देश के खिलाफ हिंसा करते हैं तो सिर्फ धार्मिक भावना आहत होने के नाम पर उनका समर्थन नहीं किया जा सकता। कार्टून के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध जताकर अपनी आपत्ति दर्ज की जा सकती है।
जिस समय मोदी के अंध भक्त मुस्लिमों के खिलाफ नफरत के नशे में डूबे हैं, उसी समय स्वीडन स्थित वी-डेम इंस्टिट्यूट की साल 2020 की डेमोक्रेसी रिपोर्ट में पाया गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए कम होती जगह के कारण भारत अपना लोकतंत्र का दर्जा खोने की कगार पर है। लेकिन भक्तों को लोकतंत्र से क्या मतलब हो सकता है।
2014 में स्थापित वी-डेम एक स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान है, जो गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय में स्थित है। इसमें साल 2017 के बाद से प्रत्येक वर्ष दुनियाभर की एक डेटा आधारित लोकतंत्र रिपोर्ट प्रकाशित की है। नाम के अनुसार ही यह रिपोर्ट दुनियाभर के देशों में लोकतंत्र की स्थिति का आकलन करती है। संस्थान अपने आप को लोकतंत्र पर दुनिया की सबसे बड़ी डेटा संग्रह परियोजना कहता है। 2020 की रिपोर्ट का शीर्षक 'ऑटोक्रेटाइजेशन सर्जेस-रेजिस्टेंस ग्रोज'है जिसमें आंकड़ो के आधार पर बताया गया है कि दुनियाभर में लोकतंत्र सिकुड़ता जा रहा है।
रिपोर्ट के अनुसार, 2001 के बाद पहली बार ऑटोक्रेसी (निरंकुशतावादी शासन) बहुमत में हैं और इसमें 92 देश शामिल हैं जहां वैश्विक आबादी का 54 फीसदी हिस्सा रहता है। इसमें कहा गया है कि प्रमुख जी-20 राष्ट्र और दुनिया के सभी क्षेत्र अब 'निरंकुशता की तीसरी लहर' का हिस्सा हैं, जो भारत, ब्राजील, अमेरिका और तुर्की जैसी बड़ी आबादी के साथ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित कर रहा है।
रिपोर्ट में उल्लेख है, भारत ने लगातार गिरावट का एक रास्ता जारी रखा है, इस हद तक कि उसने लोकतंत्र के रूप में लगभग अपनी स्थिति खो दी है। पिछले छह साल के दौरान मोदी ने जिस तरह सभी संवैधानिक संस्थाओं को शक्तिहीन बना दिया है और संविधान की मूल भावना को ही संदेह के घेरे में रख दिया है, उसकी वजह से दुनिया भर में मोदी राज में उग्र हिन्दुत्व के कारनामों की चर्चा हो रही है। मगर बहुसंख्यवाद के नशे में डूबे भक्तों को इसी बात से खुशी मिल रही है कि मोदी ने मुल्लों को ठंडा कर दिया है, कश्मीर का विशेष दर्जा छीन लिया है, राम मंदिर का शिलान्यास कर दिया है।