"मोदी विकास" का मतलब देश बेचना और कुछ बच गया हो तो उसे हिन्दुत्ववादी नजरिये से देखना है
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
modi latest news today: वर्ष 2021 के अंत तक मोदी सरकार (Modi Government) ने इतना तो स्पष्ट कर दिया है कि इनके तथाकथित विकास का मतलब देश बेचना और अगर कुछ बच गया हो तो उसे हिन्दुत्ववादी नजरिये से देखना है| शायद ही इतिहास के किसी भी मोड़ पर देश ने इतना आत्म-मुग्ध और खुले आम हिंसा का हिमायती शासक देखा हो| कागज़ के पुलिंदे वाली रूलबुक (Rulebook) फेंकने के नाम पर जो सरकार डेरेक ओब्रायन (Derek O'Brien) को निलंबित करती है, वही सरकार उस मंत्री का बेहयाई से बचाव करती है, जिसकी गाडी से उसके लाडले बेटे ने किसानों के साथ ही पत्रकार को भी कुचल डाला हो| मोदी जी बार-बार अपने मंत्रियों की योग्रता और पात्रता की परिभाषा उजागर करते रहते हैं| हमारा देश ऐसे हाथों में है, जो राजनैतिक रैलियों, सरकारी रैलियों और पार्टी की रैलियों में बेशर्मी से अंतर ख़त्म कर चुका है और सरकारी खर्चे पर राजनैतिक रैलियाँ आयोजित की जा रही हैं| एक ऐसा मुखिया जो गंगा के भीतर रेड कारपेट पर खड़े होकर दुबकी लगाता है और देखता कैमरे की तरफ है| नमामि गंगे की माला जपने वाले को पूरी दुनिया ने गंगा में फूल बहाते देखा|
जिस देश की अर्थव्यवस्था खोखली हो गयी हो, जहा बेरोजगारी किसी भी दौर की तुलना में सर्वाधिक हो वहां का प्रधानमंत्री हाईवे पर भी रेड कारपेट पर चलता है, यह बात और है कि परिवहन मंत्री रेड कारपेट के नीचे के हाईवे को अमेरिका की सडकों जैसा बता रहे हैं| अब तो अपने देश में अपना कुछ है ही नहीं – सड़कें अमेरिका जैसी और शहर क्योटो जैसे| जनता भी अपने जैसी नहीं है – ऐसी दिग्भ्रमित जनता निश्चित तौर पर आजादी के बाद पहली बार देखने को मिली है, जिसके लिए बेरोजगारी और गरीबी से बड़ा मुद्दा राम मंदिर और तमाम मंदिर के साथ हिन्दू राष्ट्र है| यह सब तब हो रहा है जबकि यही जनता कोविड 19 की दूसरी लहर में सरकार से गुहार लगाती रही और मरती रही और सरकार आँख मूंदें बैठी रही| हाल में ही चुनाव प्रणाली ने सुधार के नाम पर फिर से सरकार ने अपराधी नेताओं और गोपनीय चंदे को नहीं बल्कि जनता को ही निशाना बनाया और आधार को वोटर कार्ड से लिंक करने का फरमान सुना दिया|
पुलिस और क़ानून का आलम यह है कि जो कोई भाषण नहीं देता वही भड़काऊ भाषण (Hate Speech) के नाम पर देशद्रोह के आरोप में जेल में बंद हो जाता है, और दूसरी तरफ जो कैमरे के सामने चीख-चीख कर संविधान और किसी धर्म के विरुद्ध जहर उगलता है, मरने-मारने की बातें करता है वह सबसे बड़ा देशभक्त करार दिया जाता है|
ट्विटर की ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट (Transparency Report) के अनुसार सरकारी स्तर पर ट्विटर से कोई विशेष पोस्ट हटाने के आदेश के मामले भी मोदीमय न्यू इंडिया दुनिया में दूसरे स्थान पर है, केवल जापान हमसे आगे है| भारत के बाद इस सूचि में रूस, तुर्की और दक्षिण कोरिया हैं| ट्विटर को दुनिया भर से 131933 एकाउंट्स से कुल 38524 सामग्री/जानकारी हटाने के आदेश मिले, जिसमें से 6971 आदेश अकेले भारत से थे| जनवरी से जून 2020 की तुलना में भारत सरकार द्वारा ट्विटर यूजर्स के अकाउंट से जानकारी हटाने के आदेशों में जुलाई से दिसम्बर के बीच 151 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी आंकी गयी| भारत सरकार के इन आदेशों के स्तर का आकलन करने के लिए यह आंकड़ा महत्वपूर्ण है – ट्विटर ने दुनियाभर की सरकारों के आदेशों का औसतन 29 प्रतिशत अनुपालन किया, पर हमारे देश के लिए यह आंकड़ा महज 9.1 प्रतिशत ही है|
हमारे प्रधानमंत्री अभिव्यक्ति और मानवाधिकार की रक्षा के स्वयंभू मसीहा हैं और पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा जून 1975 से घोषित आपातकाल को लोकतंत्र का काला दिन लगातार बताते रहे हैं| अब, उनके राज में देश घोषित आपातकाल से अधिक बुरा दौर अघोषित आपातकाल झेल रहा है| प्रधानमंत्री मोदी ने घोषित आपातकाल के दौर में क्या किया, यह कोई नहीं जानता – वैसे उनके चाय बेचने का किस्सा भी कोई नहीं जानता| पर, आपातकाल ख़त्म होने के बाद वर्ष 1978 में उन्होंने गुजराती में एक पुस्तक प्रकाशित की, संघर्षमां गुजरात| इसमें उन्होंने बताया है कि किस तरह उन्होंने अपनी वेशभूषा बार-बार बदल कर आपातकाल के पूरे 19 महीने के दौरान भूमिगत जीवन व्यतीत किया, सरकार के विरुद्ध आदोलनकारियों को सहायता पहुंचाई और तत्कालीन सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य और पुस्तकों को गुजरात के साथ ही मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र तक पहुंचाया| उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि यह सब उन्होंने लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए किया| इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आज सत्ता के शीर्ष पर बैठे मोदी जी लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी पूरी तरह कुचल रहे हैं| पूरी दुनिया में लोकतंत्र के नाम पर जितने भी बड़े आन्दोलन हुए हैं, उसका ऐसा ही हश्र हुआ है|
कोविड 19 के दौर से पहले भी हमारा देश बड़े पैमाने पर मानसिक बीमारियों से जूझ रहा था| विश्व स्वास्थ्य संगठन अनेक बार इस बारे में रिपोर्ट प्रकाशित कर चुका है, और भारत के सर्वाधिक अवसाद वाला देश घोषित कर चुका है| विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया में 15 प्रतिशत रोग मानसिक कारणों से हैं, पर भारत में यह इससे भी अधिक है| दूसरी तरह हमारा देश एक ऐसा देश है, जहां इसकी कोई चर्चा नहीं होती और ना ही कोई पैमाना है जिससे पता किया जा सके की कोई मानसिक तौर पर स्थिर है या अस्थिर| जाहिर है इसी कारण मनोविज्ञान के क्षेत्र में हम पिछड़े देशों में शुमार किये जाते हैं| हमारे देश में प्रति एक लाख लोगों पर 0.301 मनोचिकित्सक और 0.047 मनोवैज्ञानिक हैं|
बहुत कम लोगों को पता होगा कि वर्ष 1950 के द रेप्रेसेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट (The Representation of People's Act) की धारा 16 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति मानसिक तौर पर स्वस्थ्य नहीं है तो वह मतदाता नहीं बन सकता और ऐसा कोई भी व्यक्ति संविधान के अंतर्गत बताये गए पब्लिक ऑफिस, जैसे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मंत्री, संसद सदस्य और विधायक नहीं बन सकता| यह क़ानून आज भी लागू है, पर क्या आपने कभी देखा है कि मतदाता सूचि में नाम शामिल कराने के लिए आपसे कहा गया हो कि किसी मनोचिकित्सक का सर्टिफिकेट लेकर आओ की तुम मानसिक तौर पर स्वस्थ्य हो? या फिर कभी आपने सुना है, संसद सदस्य या विधायक के चुनाव में खड़े उम्मीदवारों से ऐसा कोई सर्टिफिकेट माँगा गया हो या फिर इनका कोई मानसिक स्वास्थ्य जांचने के लिए परीक्षण किया जा रहा हो? जाहिर है, क़ानून में शामिल करने के बाद भी मानसिक स्वास्थ्य की शर्तों को भुला दिया गया है, नकार दिया गया है|
कोई सजी सजाई विशेष ट्रेन से कानपुर पहुंचता है और उतरते ही बताने लगता है कि उसकी सैलरी कितनी है और इसमें से कितना टैक्स कटता है, कोई भाषणों के बीच में बार-बार आंसू बहाता है, कोई कहता है मुझे चौराहे पर मारना, कोई बलात्कारी से कहता है कि जिसका बलात्कार किया है उससे शादी कर लो, कोई कोविड 19 से असमय होने वाली मौतों को भगवान की मर्जी बताने लगता है, कोई माइक थामते ही हिंसक भाषा का इस्तेमाल करने लगता है – यदि आप मानसिक रोगी नहीं हैं, तो ध्यान देकर सोचिये कि मानसिक तौर पर स्वस्थ्य कोई भी व्यक्ति ऐसे वक्तव्य दे सकता है?
वर्ष 2017 में इंडियन कौंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (Indian Council for Medical Research) ने देश में मानसिक स्वास्थ्य पर एक बड़ा सा अध्ययन किया था, इसे स्वास्थ्य विज्ञान से सम्बंधित प्रतिष्ठित जर्नल लांसेट (Lancet) ने प्रकाशित किया था| इस अध्ययन के नतीजे चौकाने वाले थे, इसके अनुसार देश में हरेक सातवाँ व्यक्ति मानसिक तौर पर बीमार है| देश के कुल 18 करोड़ नागरिक मानसिक व्याधियों से घिरे हैं| देश में अवसाद से लगभग 4.6 करोड़ और तनाव से 4.5 करोड़ आबादी ग्रस्त है| विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इस दौर में अवसाद एक महामारी की तरह फ़ैल रहा है|
नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे (National Mental Health Survey) 2015-16 के अनुसार देश में 15 करोड़ से अधिक आबादी मानसिक रोगों से ग्रस्त है, पर महज 3 करोड़ से भी कम आबादी इसके लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह ले रहे हैं| मानसिक रोगों से घिरी आबादी में आत्महत्या की दर अधिक रहती है, और आत्महत्या के सन्दर्भ में हमारा देश विश्वगुरु है| नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2019 में हमारे देश में हरेक दिन औसतन 381 व्यक्तियों ने आत्महत्या की है|
ऐसा तो संभव ही नहीं है कि देश में इतनी बड़ी आबादी के मनोरोगी होने के बाद भी हमारे जनप्रतिनिधि इससे अछूते हों| आश्चर्य यह है की इस बारे में मनोचिकित्सकों और मनोवैज्ञानिकों ने पूरी खामोशी बरती है, कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है| जनप्रतिनिधियों को अलग कर भी देन तो मेनस्ट्रीम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो पूरी तरह से मनोरोगियों से भरा पड़ा है| कहीं हम सांसदों और विधायकों के मनोरोगी होने के सन्दर्भ में विश्वगुरु तो नहीं बन रहे हैं?