मोदीराज में मुस्लिमों के लिए खतरनाक बनता भारत, लगातार बढ़ रही हिंसा और अत्याचार : रिपोर्ट में हुआ खुलासा
प्रतीकात्मक फोटो
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
जनज्वार। कृषि कानूनों पर बड़े आन्दोलन किये जा रहे हैं और प्रधानमंत्री आन्दोलनकारियों को भ्रमित बता रहे है। प्रधानमंत्री बता रहे हैं कि कृषि कानूनों से उनका भला होगा, न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी मंडियों में कोई अन्तर नहीं आएगा।
मोदी सरकार के मंत्री और सरकारी हो चुके मीडिया द्वारा लगातार बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री स्वयं बता रहे हैं कि किसान का भला होगा, तो फिर किसान और कितना भला चाहते हैं। याद कीजिये प्रधानमंत्री के नोटबंदी के ऐलान वाले भाषण को, जिसमें इसी प्रधानमंत्री ने काला धन खात्मा, आतंकवाद की कमर टूटने, केवल 50 दिनों की परेशानी और अंतिम आदमी के भले का दावा किया था – क्या प्रधानमंत्री का एक भी दावा सही हुआ?
नागरिकता क़ानून के लागू करने के बाद जब देशभर में आन्दोलन शुरू किये गए, तब इसी प्रधानमंत्री ने कभी हवा में हाथ लहरा-लहराकर तो कभी ताली पीटकर यह बताया था कि इस देश में मुस्लिम भी उतने ही सुरक्षित हैं, जितने हिन्दू। प्रधानमंत्री ने उस समय भी कहा था कि आन्दोलन के लिए विपक्ष भड़का रहा है।
पर देश में मुस्लिमों की स्थिति तो दिल्ली दंगों की रिपोर्ट, अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिलिया इस्लामिया में पुलिस की बर्बरता और लव जिहाद और गौरक्षा के नाम पर मुस्लिमों की गिरफ्तारी और लगातार हत्या ही बता देती है। दिल्ली दंगों के दौरान भड़काऊ भाषण देने वाले कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा और दूसरे लोगों का तो रिपोर्ट में जिक्र भी नहीं किया गया और मुजफ्फरपुर दंगों से बीजेपी नेताओं के नाम हटा दिए गए – प्रधानमंत्री जी अब पूरी तरह से खामोश हैं। प्रधानमंत्री जी भले ही खामोशी का चोंगा पहन लें, पर सभी इस मसले पर चुप हैं ऐसा भी नहीं है।
द साउथ एशिया कलेक्टिव नामक संस्था ने हाल में ही "साउथ एशिया स्टेट ऑफ़ माइनॉरिटीज रिपोर्ट 2020" को प्रकाशित किया है और इसके अनुसार भारत लगातार अल्पसंख्यक मुस्लिमों के लिए खतरनाक बनता जा रहा है और इनपर हिंसा और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। कुल 349 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, विशेष तौर पर मुस्लिम कार्यकर्ताओं, की दयनीय स्थिति की भी चर्चा की गई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यकों में मामले में दक्षिण एशिया के हरेक देश – भारत, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, श्री लंका, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान – की स्थिति एक जैसी है और अल्पसंख्यकों के उत्पीडन के सन्दर्भ में मानों इन देशों में ही आपसी प्रतिस्पर्धा रहती है।
साउथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल इम्तिआज आलम के अनुसार इन सभी देशों में धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों का लगातार उत्पीडन किया जाता है और भारत की स्थिति इस सन्दर्भ में पाकिस्तान या अफ़ग़ानिस्तान से किसी भी स्थिति में बेहतर नहीं है। दक्षिण एशिया के लगभग सभी देशों में लोकतंत्र के नाम पर फासिस्ट सरकारों का कब्ज़ा है जो विशेषतौर पर जनता के अभिव्यक्ति और आन्दोलनों के संवैधानिक अधिकारों का हिंसक हनन करने में लिप्त हैं।
रिपोर्ट के अनुसार भारत में जब केंद्र सरकार ने नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स लागू किया तभी निष्पक्ष सोच वाली जनता, निष्पक्ष मीडिया, शिक्षाविदों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने समझ लिया था कि यह देश में अधिकतर मुस्लिमों को बेघर करने की कवायद है। इसके बाद नागरिकता क़ानून पर देशभर में आन्दोलन किये गए, जिसके अनुसार केवल मुस्लिमों को छोड़कर शेष सभी अवैध तरीके से देश में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से घुसपैठ करने वालों को नागरिकता दी जायेगी।
इस दौरान सरकार की नीतियों के आलोचकों, विशेष तौर पर मुस्लिमों को सरकारी तंत्र और कट्टरवादी सरकार समर्थक समूहों ने उत्पीड़ित किया। इस दौर में केवल मंत्री और बीजेपी के दूसरे नेताओं ने ही नहीं, बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री ने भी ऐसे भाषण दिए, जो निश्चित तौर पर "भड़काऊ भाषण" की श्रेणी में थे।
रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत सरकार ने फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन एक्ट का इस्तेमाल मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों के लिए काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों के विरुद्ध एक हथियार के तौर पर किया, और समाचार माध्यमों पर एक अघोषित सेंसरशिप थोप दी। फरवरी के दिल्ली दंगों में भी अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया, और इसके बाद अप्रैल में तबलीगी जमात को केवल मुस्लिम होने के कारण, कोविड 19 का दोषी करार दिया गया। इसमें सरकार और मीडिया की भागीदारी एक जैसी है।
लगातार पिछले 6 वर्षों से प्रधानमंत्री मोदी जो कहते जा रहे हैं, दरअसल समाज में उसका असर ठीक उल्टा हो रहा है, पर अभी जनता को यह समझ में नहीं आया है। हाँ, किसानों को जिन्हें प्रधानमंत्री जी भ्रमित बता रहे हैं, उन्हें यह तथ्य ठीक से समझ में आ गया है तभी अब वो प्रधानमंत्री के वादे नहीं, बल्कि लिखित क़ानून चाहते हैं।