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विमर्श

PM मोदी ने संसदीय लोकतंत्र से निकालकर यज्ञ की वेदी पर बैठा दिया है देश को, संसद में बची हैं सिर्फ चीखें

Janjwar Desk
27 July 2023 9:50 AM GMT
PM मोदी ने संसदीय लोकतंत्र से निकालकर यज्ञ की वेदी पर बैठा दिया है देश को, संसद में बची हैं सिर्फ चीखें
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file photo

लगता है भारत संसदीय लोकतंत्र से निकलकर अब यज्ञ की वेदी पर बैठ चुका है। यहां बस पुरोहित है, जजमान है, भोग ग्रहण करने वाले देवगण हैं और बलि के इंतजार में बंधा हुआ घोड़ा है, ....यह यज्ञ की आगे से दम घोंटता हुआ वह धुंआ है जो आंखों में चुभते हुए भी बर्दाश्त किया जा रहा है....

अंजनी कुमार की टिप्पणी

PM Modi and Election 2024 : जिस सलीके, धूम-धाम और कर्म-कांड के साथ हवन करते हुए प्रधानमंत्री ने एक विकास कार्य का उद्घाटन किया है, ऐसा लगता है भारत संसदीय लोकतंत्र से निकलकर अब यज्ञ की वेदी पर बैठ चुका है। यहां बस पुरोहित है, जजमान है, भोग ग्रहण करने वाले देवगण हैं और बलि के इंतजार में बंधा हुआ घोड़ा है, ....यह यज्ञ की आगे से दम घोंटता हुआ वह धुंआ है जो आंखों में चुभते हुए भी बर्दाश्त किया जा रहा है।

ऐसा लगता है कि संसदीय लोकतंत्र से देश निकल चुका है और संसद एक ऐसे खोखले रूप में बदल चुका है जिसके भीतर से सिर्फ चीखें आ रही है। एक गूंजता हुआ शोर उठ रहा है, जिसका पाठ करना मुश्किल है। यह कमाल की बात है कि देश का एक राज्य जल रहा है और उस पर कोई सवाल और जवाब नहीं है। बाढ़ की विभिषिका देश को खा रही है, इस पर संसद में कोई रिपोर्ट नहीं है। सुखाड़ की स्थितियां बढ़ रही हैं और देश के सबसे गरीब हिस्से झारखंड, बिहार और उत्तर-प्रदेश का पूर्वी हिस्से में खरीफ की फसल बर्बादी की ओर बढ़ चुकी है, इस पर कोई चिंता नहीं है।

करोड़ों गरीब और भूमिहीन किसानों की खेती और मजदूरी इस बाढ़-सुखाड़ से छिन रही है, लेकिन इस पर चुप्पी बनी हुई है। बहुमत के नाम पर सिर्फ बिल, अध्यादेश पास हो रहे हैं, लेकिन उस की गई बहस, सुझाव को सुना नहीं जा रहा है। भारत के जंगलों पर आधारित 30 करोड़ की जिंदगी पर निर्णय लेने वाला बिल महज 20 मिनट में पास हो गया। यह एक सामान्य घटना नहीं है।

संसद में महज चंद मिनटों में बता दिया जाता है कि 5 करोड़ से अधिक मनरेगा मजदूरों के नाम को रोजगार सूची से खत्म कर दिया गया है। इसका कारण भी बता दिया गया, लेकिन इस बहस नहीं है। इस संदर्भ में आये जमीनी रिपोर्ट पर कोई बात नहीं है। इस फंड में आती कमी, और कई राज्यों में इस फंड का अन्य कार्यों में उपयोग बहस के केंद्र में नहीं है।

राजनीति संसद से बाहर हो रही है। वह भी बहस की तरह नहीं गालियों की भाषा में। संसद चलने के कुछ नियम कानून हैं और उसकी संवैधानिक अवस्थितियां भी हैं। ऐसा लगता है कि उसका कोई अर्थ नहीं रह गया है। मसलन, विपक्ष एक संवैधानिक व्यवस्था है। एक जनप्रतिनिधि का चुना जाना भी एक संवैधानिक प्रक्रिया है और उसका संसद में आकर बैठना, एक पार्टी के साथ उसका जाना या खुद को स्वतंत्र बनाये रखना भी उसी संवैधानिक नियमों का हिस्सा है, जिसमें बहुमत दल का एक प्रतिनीधि प्रधानमंत्री चुना जाता है।

जिस तरह से बुलडोजर का प्रयोग जमीनी तौर पर तो भूमि अतिक्रमण नियमों के उलंघन के कारण चलाया जाता है लेकिन दावा इसे एक राजनीतिक कारण बनाकर किया जाता है। अतिक्रमण के नाम पर की गई कार्रवाई में न्यायपालिका को महज एक मूकदर्शक बनने की स्थिति में पहुंचा दिया गया है। वैसे ही हालात संसद के भीतर चलने वाली प्रक्रियाओं में देखा जा रहा है। भारत में जो संसदीय लोकतत्र चल रहा है उसमें चुने हुए प्रतिनीधियों का अर्थ प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रीपरिषद के सामने दम तोड़ रहा है। खुद प्रधानमंत्री और मंत्रीपरिषद के बीच का रिश्ता भी प्रधानमंत्री के सामने दम तोड़ रहा है। पिछले नौ सालों का रिकार्ड देखें, तब आप प्रधानमंत्री को वित्तमंत्री से लेकर रेलमंत्री तक का काम, विदेश मंत्री से लेकर खेल मंत्री तक का काम करते हुए देख सकते हैं।

हाल के दिनों में जब कुछ संसद सदस्यों की सदस्यता खत्म की गई, तब सिर्फ और सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया का इंतजार बस रह गया था। और, वह जैसे ही पूरी हुूई, उन सदस्यों को की सदस्यता खत्म करने में देरी नहीं की गई, लेकिन इस बात को हर कोई जान रहा था कि ऐसा होने वाला है। झूठ के सहारे जब यह माहौल बनाया गया कि वह संसद सदस्य भारत में विदेशी हस्तक्षेप की मांग कर रहा था, उस समय उसे बोलने तक नहीं दिया गया। और, यह काम कोई और नहीं संसद की व्यवस्था और संसद सदस्य कर रहे थे। दरअसल, वे संसदीय लोकतंत्र में जितना भी लोक रह गया था उसकी खुदाई कर रहे थे, और मौका मिलते ही उसकी सदस्यता उस खुदी जमीन में गाड़ दिया गया। अब वह बाहर है तब ऐसा लगता है मानों सारे सत्ता पक्ष के सदस्य संसद से बाहर निकलकर उसे खोज रहे हैं। आज बाहर का माहौल और भी बदतर हो रहा है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष के गठबंधन इंडिया पर सीधा हमला किया। फिर क्या था, योगी आदित्यनाथ ने इसे कौआ से जोड़ दिया। निर्मला सीतारमण का बयान पढ़िएः ‘जो लोग भारत में निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए पाकिस्तान से मदद की भीख मांग रहे थे, वे अब इंडिया नाम का फायदा उठाना चाहते हैं।’ ऐसा ही बयान विदेश मंत्री जयशंकर ने भी दिया है। ये बयान 2018 में विपक्षी एकता के संदर्भ में अमित शाह के बयान से थोड़ा आगे का है।

उस समय अमित शाह का बयान थाः ‘ये मोदी जी की जो बाढ़ आई हुई है उससे घबराकर सभी कुत्ते, बिल्ली, सांप और नेवले इकठ्ठा होकर चुनाव लड़ना चाहते हैं।’ इस विपक्ष को सिर्फ जानवरों से ही नहीं उसे ऐसे नामों के साथ जोड़ा जा रहा है जिनके साथ लूट, आतंकवाद और विदेशी होने का ठप्पा लगा हुआ है। यह मजेदार बात है कि मोदी को ईस्ट इंडिया कंपनी की याद आई, लेकिन ब्रिटिश-इंडिया की नहीं।

इन बयानों से साफ लगता है कि यह कोई घबराहट, हताशा और बेचैनी में निकला हुआ बयान नहीं है, जैसा मीडिया में कहा जा रहा है। यह बेहद सोच समझकर दिया गया बयान है। भाजपा के रणनीतिकार फासीवादी राष्ट्रवाद के उभार को देख रहे हैं। वे रूस-यूक्रेन के बीच हुए युद्ध से दुनिया के स्तर पर बढ़े तनाव को देख रहे हैं। वे भारत की सीमा पर पाकिस्तान और चीन के साथ बढ़े हुए तनाव को देख रहे हैं। ऐसे में राष्ट्रवाद का सिक्का चलने का अनुमान लगा रहे हैं और विपक्ष को इस फासीवादी राष्ट्रवाद की जमीन पर उतारकर चुनाव का खेल खेलने की तैयारी में हैं।

दूसरे, भारत में गांव के स्तर पर मनरेगा जैसे कामों की मांग बढ़ रही है। शहरों में औसत मजदूरी की दर में तेजी से कमी आ रही है। मध्यवर्ग की आय में क्षरण बढ़ रहा है और श्रम और पूंजी का अनुपात में श्रम की भागीदारी तेजी से गिर रही है। बाजार में मुद्रास्फीति औसत कमाई को खा रही है और डिजिटल बाजार परम्परागत दुकानदारी को चौपट करने में लगी हुई है।

आक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक सीईओ चार घंटे में जितना कमाता है उसे एक मजदूर सालभर काम करने के बाद कमा पाता है। यह आंकड़ा एक औसत अनुपात को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। धनी और गरीब की खाई इतनी चौड़ी हो चुकी है, जिसे सरकार अनाज वितरण से पाट रही है और आवास योजनाओं में कुछ घर उपलब्ध करा रही है। यह काम करते हुए सरकार गरीबी का आंकड़ा भी पाट ले रही है और कुछ नये मानकों के आधार पर दावा कर रही है कि गरीबी घट रही है। ये आर्थिक आंकड़ें बेरोजगारी, अनिश्चितता और बर्बादी से उपज रहे सामाजिक तनाव, सांस्कृतिक टूटन और मानसिक अस्वस्थता को ढंक रहे हैं, और राजनीतिक पार्टियां इसे धार्मिक उन्माद, विभाजन और इससे पैदा होने वाली हिंसा का प्रयोग करने में लगी हुई हैं। यह भयावह स्थिति है। इसे हल करने की जगह पर इसी भयावह हालात के ऊपर आगामी लोकसभा चुनाव जीतने की इबारत लिखने की तैयारी चल रही है। आज जरूर इससे बाखबर रहिए और हो सके तब इस हालात से निकलने के लिए कुछ न कुछ जरूर, जितना ही संभव हो, पहल करिए।

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