मोदी के भारत में मुसलमानों की दुर्दशा पर ध्यान खींचने वाले पाकिस्तानी हिंदुओं पर चुप क्यों?
पाकिस्तान के शिक्षक आसिम सज्जाद अख़्तर की टिप्पणी
हमारे मुल्क में ऐसे बाशिंदे बहुतायत में हैं जिन्हें उपनिवेशवाद विरोधी स्वतंत्रता सेनानी और मार्क्सवादी क्रांतिकारी विचारक फ्रांज फेनन ने 'इस धरती पर सबसे अधिक घृणित' की श्रेणी में रखा है। आज का पाकिस्तान नाइंसाफी और ज़ुल्म की एक देगची बन चुका है। धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों द्वारा रोजाना ही झेली जाने वाली पीड़ा कुछ कम नहीं है।
पिछले दिनों देश की राजधानी में एक हिन्दू मंदिर के निर्माण-कार्य को बीच में ही रुकवा देना इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि जो लोग 'शरीफ मुसलमान' के नाम से बनायी गई आदर्श श्रेणी में शुमार नहीं हैं उन्हें ढाँचागत हिंसा को झेलना ही पड़ता है। हो सकता है कि आखिरकार मंदिर बन भी जाये लेकिन इन मुद्दों को लेकर जिस तरह की घृणास्पद और धमकी भरी बहस देखने को मिल रही है वो किसी महामारी से कम नहीं है।
सच कहें तो घृणास्पद बहस तो हिमखंड का शीर्ष मात्र है; सच तो ये है कि पहले भी और आज भी चर्चों को जलाया गया है, हिन्दू और इसाई लड़कियों व महिलाओं का जबरन धर्म परिवर्तित करा के उनकी शादी की गयी है, अनाम-अनदेखे हजारों लोग भीड़ की हिंसा और निशाना बना कर की गयी हिंसा के शिकार हुए हैं और जुनैद हफ़ीज़ व आसिआ बीबी जैसे लोगों को आजीवन कारावास या जबरन निर्वासन भुगतना पड़ा है।
मज़हब को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के लंबे इतिहास और इस्लाम की सरकारी परिभाषा के इतर इकबालिया समूहों को संविधान की भयंकर धाराओं के तहत मताधिकार से बेदखल किये जाने को बार-बार बताया जाना चाहिए। प्रत्येक नागरिक को समान एवं सुनिश्चित संवैधानिक अधिकार हासिल है, यह कहा जाने वाला आदर्शवादी आदर्श उस क्षण तुरंत तिरोहित हो जाता है जिस क्षण हम किसी को भी 'अल्पसंख्यक' की श्रेणी में डाल देते हैं।
लेकिन मंदिर की घटना इसलिए सीख देने वाली है क्योंकि जहां यह राज्य की विचारधारा के समाज में कहीं गहरे पैठ बना लेने को दर्शाती है जिसके चलते समाज के कुछ घटक धार्मिक प्रभुता को जीने के ढंग के रूप में प्रचार करते हैं, वहीं मज़हबी इबादत की जगहों से जुड़े सांसारिक स्वार्थ को भी उजागर करती है।
सोशल मीडिया पर चल रहे कुछ वीडियो दिखाते हैं कि राज्य की विचारधारा किस हद तक समाज में अपनी पैठ बना चुकी है। एक वीडियो में पड़ोस के युवक मंदिर निर्माण स्थल पर आधी बनी चाहरदीवारी को गिरा रहे हैं, वहीं दूसरे वीडियो में एक जवान लड़का धमकी देते हुए कह रहा है कि अगर किसी अधिकारी ने हिन्दू मंदिर-निर्माण की आज्ञा दी तो उसे मार दिया जाएगा।
हालाँकि यह महत्वपूर्ण है कि सोशल मीडिया में डाली गयी इस तरह की पोस्ट को वर्तमान में महिमा मंडित नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन इन्हें कम करके भी नहीं आंका जाना चाहिए। प्रगतिवादियों द्वारा आज भी पाठ्यक्रम में बदलाव लाने और मुख्यधारा की मीडिया द्वारा घृणास्पद भाषा का इस्तेमाल करने पर कड़ी कार्रवाई की मांग की जा रही है। यह सही भी है लेकिन डिजिटल दुनिया की सनसनी पैदा करने और लोगों को बाँटने की प्रकृति खुद इस बात की माँग करती है।
अकेले पाकिस्तान ही ऐसा देश नहीं है जहाँ विचारधारा का युद्ध बढ़-चढ़ कर सोशल मीडिया पर खेला जा रहा है। पड़ोसी भारत से लेकर सुदूर अमेरिका में मोदी और ट्रंप के भक्त प्रगतिशील स्वरों को दबा दे रहे हैं। ऐसे में यह ज़िम्मेदारी प्रगति वादियों की बन जाती है कि वे इन हालात का जायज़ा लें और इस बात पर विचार करें कि कैसे उस समाज में नफरत फ़ैलाने और जुल्म करने का विरोध करने वाली विचारधारा को फैलाएं जो समाज आज तक नफरत और जुल्म को प्रश्रय देता रहा है।
अब मैं दूसरे बिंदु पर आता हूँ। पाकिस्तान में शांति, सहनशीलता और बहुलता की बात करना अच्छी बात है लेकिन ऐसे आदर्शों को भौतिक सन्दर्भों से काटा नहीं जा सकता है। पकिस्तान के किसी भी दूसरे महानगरीय केंद्र की तरह इस्लामाबाद में भी ज़मीन का मालिक बनना विवादों को जन्म देता ही है। हमारी ज़रुरत से ज़्यादा वित्तीय अर्थव्यवस्था में ज़मीन-जायदाद में धंधा करना बहुत ज़्यादा फ़ायदेमंद धंधों में गिना जाता है। अभी 2016 तक पाकिस्तान के रियल एस्टेट का अनुमानित मूल्य 700 बिलियन डॉलर था।
ऐसे मामलों के जानकार समझते हैं कि इस्लामाबाद में मस्जिदों का निर्माण चारों तरफ फ़ैला हुआ है और ये राष्ट्रीय राजधानी के लिए कैपिटल डवलपमेंट ऑथोरिटी द्वारा बनाये गए उप-नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। अपने हितों के लिए दूसरे शक्तिशाली समूहों द्वारा भी उप-नियमों की ऐसी की तैसी की जा रही है। इसमें सरकारी संस्थानों के साथ-साथ बाहरिया एन्क्लेव जैसी संभ्रांत वर्ग से जुडी निजी सुरक्षित आवासीय योजनाएं भी शामिल हैं।
किसी हिन्दू मंदिर के खिलाफ अचानक क़ानूनी प्रक्रियाओं का हवाला देना केवल विचारधारा का मसला नहीं है बल्कि कच्ची आबादी, रेहड़ी-पटरी वालों और राजनीतिक व्यवस्था में अंदर तक जुगाड़ ना होने वालों की तरह ही शहर में रहने के आपके अधिकार को सरकारी मशीनरी में काबिज लुटेरों के हित में छीन लेना है। निसंदेह ज़मीन एवं अन्य प्राकृतिक संपदाओं पर कब्ज़ा करने की चाहत नस्लीय परिधियों के अधिक क्रूर होते चले जाने को समझने का प्रयास है।
शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में रहने वाले पाकिस्तान के हिन्दू और इसाई निचले वर्ग एवं जाति से आते हैं। अपनी आस्था के चलते उनके साथ ग़ैर-बराबरी का बर्ताव किया जाता है और अमानवीय तरीके से उनका शोषण किया जाता है। पाकिस्तान में रह रहे हिंदुओं, ईसाईयों और अहमदी मत के मानने वालों की हो रही दुर्दशा की तरफ उन लोगों की चुप्पी को तोड़ना भी ज़रूरी है जो मोदी के भारत में हो रही मुसलमानों की दुर्दशा की ओर हमारा ध्यान खींचते थकते नहीं हैं।
लेकिन पाकिस्तान के बड़े हिस्से में घृणा की विचारधारा बहुत हद तक वर्गीय होती है और सुख-सुविधाओं की कमी के चलते पनपती है जिसे दक्षिणपंथ एक औजार के रूप में अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करता है। अंत में वैचारिक युद्ध तो भौतिक भू-भागों में ही लड़ा जाता है और प्रगतिवादियों को हारते हुए युद्ध का रुख पलट देने के लिए इन भू-भागों पर दोबारा अपना दावा ठोंकना होगा।
(लेखक पकिस्तान की क़ैद-ए-आज़म यूनिवर्सिटी में शिक्षक हैं। लेख पकिस्तान के अखबार डॉन से साभार लिया गया है। )