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विमर्श

‘धरती मर नहीं रही, बल्कि उसे कत्ल किया जा रहा है और उन क़ातिलों के नाम-पते भी हैं’

Janjwar Desk
6 Aug 2025 6:35 PM IST
‘धरती मर नहीं रही, बल्कि उसे कत्ल किया जा रहा है और उन क़ातिलों के नाम-पते भी हैं’
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सरकारें आपदाओं से सबक लेने की बजाए उन खतरों को हमेशा नजरअंदाज करती रही है। उत्तराखंड के केदारनाथ, कश्मीर और काठमांठू में आयी आपदाओं से पहले की चेतावनियों और बाद के बचाव, राहत और पुनर्वास पर जिस तरह का रुख सरकारों का रहा है उसने साफ कर दिया है कि वे किसी भी तरह हिमालय को समझने की जहमत नहीं उठाना चाहते...

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हिमालय में लगातार आ रही त्रासदियों से सबक लेने की बजाए सारा दोष प्रकृति पर मढ़ देना नीति-नियंताओं के लिये सबसे आसान है। इन त्रासदियां को दैवीय आपदाओं के नाम पर भुलाने की कोशिशें होती हैं। पिछले एक दशक से पूरे हिमालयी क्षेत्रों में छोटी-बड़ी आपदायें की संख्या बढ़ी है। उत्तराखंड से लेकर कश्मीर और नेपाल तक तबाही का जो सिलसिला चला उसने हिमालय की हिफाजत के बारे में नये सवाल खड़े किये हैं। ये सवाल प्रकृति ने नहीं, बल्कि मानव के हिमालय को नहीं समझने से खड़े हुये हैं।

पहाड़ में आपदाओं का आना नई बात नहीं है। सदियों से हिमालयी क्षेत्र कई बडी आपदाओं से थर्राता रहा है। इस तरह की घटनायें भविष्य में भी होंगी, लेकिन अब इनका स्वरूप बदल रहा है। हिमालय को जीतने के दंभ का लगातार बढ़ रहा है। विकास के नाम पर जिस तरह से दैत्याकार योजनायें पहाड़ के सीने को चीर रही हैं, उसने हिमालय की बर्बादी का रास्ता खोला है। एवरेस्ट पर विजय पाने के लिय अब पर्वतारोहण ने भी बाजार का रूप ले लिया है। अब दस वर्ष के बालक से लेकर 90 वर्ष के बुजुर्ग भी एवरेस्ट की चढ़ाई कर रहे हैं। इन्हें वहां पहुंचाने के लिये बड़ी-बड़ी कंपनियां प्रायोजन कर रही हैं।

हिमालय के तमाम सरोकार बाजार में बदल रहे हैं। हिमालय कुंभ के नाम पर उत्तराखंड में होने वाली राजजात यात्रा को जिस तरह से प्रायोजित किया जा रहा है, उसमें लाखों लोग एक साथ संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पहुंच रहे हैं। स्वाभाविक रूप से बदलती पारिस्थितिकी और प्रकृति के साथ टूटते अन्तर्संबंधों ने इन खतरों को और बढ़ा दिया है। ये अन्तर्संबंध नीति-नियंताओं और मुनाफाखोर व्यवस्था ने साजिश के तहत तोड़े हैं। उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। सरकारें आपदाओं से सबक लेने की बजाए उन खतरों को हमेशा नजरअंदाज करती रही है। उत्तराखंड के केदारनाथ, कश्मीर और काठमांठू में आयी आपदाओं से पहले की चेतावनियों और बाद के बचाव, राहत और पुनर्वास पर जिस तरह का रुख सरकारों का रहा है उसने साफ कर दिया है कि वे किसी भी तरह हिमालय को समझने की जहमत नहीं उठाना चाहते।

हिमालयी सरोकारों से जुड़े पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत की पुस्तक ‘हिमालय का कब्रिस्तान’ हिमालय के इन तमाम सवालों को बहुत संजीदगी के साथ उठती है। केदारनाथ में 15-17 जून 2013, कश्मीर में 2 सितंबर 2015 और काठमांठू में 25 अप्रेल 2015 को आयी आपदाओं के आलोक में पुस्तक ने सभी पहलुओं को छूने की कोशिश की है जो आपदाओं के बाद ‘नायकत्व’ के आभामंडल में खो जाती हैं। सबसे बड़ी बात है हिमालय को देखने के नजरिये की। उसकी संवेदनशीलता को समझने की। हिमालयी क्षेत्रों को हमेशा देवभूमि के रूप में प्रतिस्थापित किया गया।

हिमालय की शुभ्रता, सौन्दर्य, नदियों का नाद, देवताओं का निवास और हिमालय में रहने वाले लोगों का देवतुल्य हो जाना वास्तव में उसके लिये सबसे बड़ा अभिशाप बनकर सामने आया है। टूटते पहाड़, सूखती नदियां, बदलती पारिस्थितिकी, तेजी के साथ घटते जंगल और पर्यावण के संतुलन के लिये आवश्यक जैव विविधता का समाप्त होना किसी की चिंता का विषय नहीं है। हिमालय को जिस रूप में दिखाया जा रहा है वैसा हिमालय अब बचा नहीं है। बांज-बुरांस और काफल से आच्छादित वनों और ग्लेशियरों से निकलने वाले हिमनदों से जिस पहाड़ की तस्वीरों को देखकर लोग अभिभूत हो रहे हैं उसका पूरा स्वरूप बदल गया है। सरकारी कानूनों, नीतियों से हिमालय के सामने टूटने और बिखरने के खतरों से लड़ने की जो भयावह तस्वीर है वह दिखाई नहीं जा रही है। पुस्तक में इस बात को तथ्यात्मक तरीके से रखा गया है कि जिसे दैवीय आपदा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है वह असल में मानव जनित आपदाये हैं।

‘हिमालय का कब्रिस्तान’ पुस्तक केदारनाथ आपदा के बाद बहुत देर बाद आयी है। इस बीच बहुत सारी पुस्तकें और रिपोतार्ज आते रहे हैं। अभी भी आ रहे हैं। लेकिन इस पुस्तक ने उन सवालों को उठाया है जो इस पूरे दौर में आपदा के सैलाब में बह या बिखर गये। केदारनाथ आपदा को जिस तरह से दैवीय आपदा के रूप में प्रचारित किया गया उसे नये सिरे से समझने के लिये बहुत सारे तथ्य इस पुस्तक में हैं। व्यवस्था किस तरह आपदा से पूर्व चेतावनियों को नजरअंदाज करती है उसके बहुत सारे उदाहरण पुस्तक में हैं। लेखक ने वर्ष 2004 में ‘दैनिक जागरण’ में रहते चैराबरी झील पर एक तथ्यात्मक रिपोर्ट लिखी थी। इस रिपोर्ट में कई भूगर्भीय तथ्यों के आधार पर कहा गया था कि केदारनाथ को खतरा है।

वास्तव में यह चौंकाने वाली बात है कि सरकार के एक बड़े भू-गर्भीय अध्ययन संस्थान की टीम जो चैराबरी झील पर काम कर रही थी और इसके संभावित खतरों को भी जानती थी उस खबर से आहत हो गयी जिसमें केदारनाथ पर संभावित खतरे का जिक्र किया गया। उसे लगता था कि इस तरह की खबरें अतिरेक से भरी हैं। जो मीडिया बे-सिर पैर की खबरों को अपनी एक्सक्लूसिव बनाने की होड़ में लगा रहता है वह भी इस खबर की भयावहता से डर जाता है। केदारनाथ में आपदा से पहले मौसम विभाग ने सरकार और आपदा प्रबंधन विभाग ने 15 से 17 जून तक भारी बारिश की चेतावनी दी थी। विभाग ने कहा था कि मौसम को देखते हुये केदारनाथ यात्रा को रोका जाये। सरकार ने इस चेतावनी को भी नहीं माना।

लंबे समय से इस क्षेत्र में बड़ी जलविद्युत परियोजनाओं और विकास के जनविरोधी माॅडल के खिलाफ लोगों की आवाज को भी अनसुना किया गया। यह सिलसिला यहीं नही रुकता। केदारनाथ में आपदा के बाद राहत और सुरक्षा के समय भी यह दिखाई दिया। केदारनाथ मंदिर में जूते पहनकर जाने न जाने की खबर ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगी। केदारनाथ की पूजा को लेकर जिस तरह की बयानबाजी हुयी उसने यह भी साफ कर दिया कि हिमालय को जिस रूप में देखने की समझ बनाई है उससे बाहर नहीं निकलना चाहते। जहां हजारों लाशें पड़ी हों वहां पूजा का सवाल ही कहां उठता है। दूसरी ओर एक बड़ी जमात खड़ी हो गयी, यह बताने के लिये कि धारीदेवी के प्रकोप से यह आपदा आयी। जिस धारीदेवी को श्रीनगर की जलविद्युत परियोजना ने लील लिया हो, उसका प्रकोप समझ से बाहर है।

‘हिमालय का कब्रिस्तान’ पुस्तक में जहां हिमालय के सवालों को प्रमुखता से उठाया है वहीं केदारनाथ आपदा के कारणों पर बहुत सारी तथ्यात्मक जानकारियां हैं। आपदा के बाद राहत कार्यो में सरकारी तंत्र की नाकामियों का चिट्ठा है तो सेना की जांबाजी के बहुत सारे उदाहरण हैं। आपदा प्रबंधन विभाग और अन्य एजेंसियों के बीच तालमेल के अभाव में कई जिंदगियों को नहीं बचाया जा सका। आपदा में अपनों को खोने की बहुत सारी मार्मिक कहानियां हैं। कई परिवारों के हिमालय में दफन होने की कहानी के साथ उन लोगों की व्यथा भी पुस्तक में शामिल है जो दो-तीन वर्षों तक अपने लोगों की तलाश में भटकते रहे।

कई ऐसे थे जिनको सरकार ने मृत घोषित कर दिया, लेकिन वे उत्तराखंड के किसी गांव-शहर में विक्षप्तावस्था में मिले। राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने आपदा के बारे में जिस तरह के बयान दिये वह उनकी संवेदनहीनता को बताता है। राहत और बचाव कार्यो में जिस तरह की बदंरबांट हुयी उसने लोगों के जख्म और गहरे कर दिये। सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों ने राहत और बचाव कार्य में जिस तरह के खर्च दिखाये वे यह समझने के लिये काफी हैं कि सरकारी तंत्र के लिये आपदाओं का मतलब क्या है।

केदारनाथ आपदा के एक वर्ष बाद 5 सितंबर, 2014 को कश्मीर में आयी भारी बारिश और बाढ़ ने अपना रूप दिखाया। यहां भी राजनीतिक और प्रशासनिक लापरवाहियों के चलते मौसम विभाग की तमाम चेतावनियों के बाद भी आपदा को पहचानने की कोशिश नहीं की गयी। कश्मीर ने मौसम विभाग ने 2 सिंतबर, 2014 को ही यह चेतावनी जारी कर दी थी कि भारी बारिश और बाढ़ का खतरा है, लेकिन सरकार आपदा का इंतजार करती रही। झेलम ने अपना रूप दिखाया और 277 जानें गयीं। 390 गांव डूबे। 2600 गांव बुरी तरह प्रभावित हुये।

छह करोड़ से ज्यादा राजस्व का नुकसान हुआ। आपदा को सिर्फ एक प्राकृतिक प्रकोप के रूप में देखने की नादानी हर जगह दिखाई देती है। कश्मीर में तो यह और भी उभरकर सामने आती है। पुस्तक में एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि श्रीनगर शहर का रैनावाड़ी जैसा मुहल्ला ही डल झील की जमीन पर कब्जा करके खड़ा किया गया है। अतिक्रमण से डल झील 50 फीसदी सिकुड़ गई है। झील का दायरा आज महज 1200 हेक्टेयर रह गया है किसी जमाने में डल झील 2400 हैक्टेयर क्षेत्र में फैली थी। कश्मीर में आई आपदा भी यह बताने के लिये काफी है कि आपदाओं को दैवीय बताने की भूल और नदियों के रास्तों में मानवीय हस्तक्षेप महंगा साबित होगा।

हिमालय की त्रासदी तीसरे साल भी नहीं रुकी। इस बार नेपाल में आये भूकंप ने तबाही नई कहानी लिख दी। 25 अप्रैल, 2015 को आये भूकंप ने काठमांठू को हिला दिया। इसमें आठ हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और 21 हजार से ज्यादा घर तबाह हो गये। आपदा के बाद राहत और बचाव की कहानी यहां भी अलग नहीं है। पुस्तक इस सच को सामने लाई है कि किस तरह आपदा की भयावहता से लोगों का ध्यान हटाया गया। पहला सच यह कि नेपाल में आपदा 25 अप्रैल को आयी। राहत कार्य दो दिन बाद शुरू हुआ। राहत और बचाव कार्य का बड़ा सरकारी अलमा 22 देशों के 237 पर्वतारोहियों की सुध लेने में लगा रहा, जबकि नेपाल के 14 प्रभावित जिलों की एक तिहाई आबादी यानी दस लाख लोग मदद का इंतजार करते रहे।

दूसरा सच यह कि बहुत दिनों तक काठमांठू ही बचाव का मुख्य केन्द्र रहा जबकि भूकंप से सबसे ज्यादा तबाही सिंधु पाल चैक, गोरखा, दौलखा, नवाकोट, रसुआ, भक्तपुर, हिमाली क्षेत्र, चारीकोट, ललितपुर, घादिंग, काव्यपंचाग सहित 14 जिलों में हुई। और मारे जाने वाले सबसे ज्यादा सात हजार लोग इन्हीं क्षेत्रों से थे। सरकारी लापरवाही का हाल यह था कि आपदा के एक सप्ताह बाद तक भी यहां राहत शिविर नहीं लग थे। पुस्तक में नेपाल त्रासदी के कारणों और राहत कार्यो से लेकर एनजीओ तक की भूमिका का ब्योरा है। नेपाल को अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहरों को खोने की पीड़ा भी बहुत संजीदगी से रखी गयी है। पुस्तक में बहुत सारे चित्र आपदा की कहानी सुना देते हैं।

लक्ष्मी प्रसाद पंत ने ‘हिमालय का कब्रिस्तान’ पुस्तक में आपदाओं की रिपोर्टिग के बहाने दरकते-टूटते हिमालय के सच को जिस तरह सामने रखा है उससे हिमालय के सवाल और मुखर होकर सामने आये हैं। पुस्तक में केदारनाथ, कश्मीर और नेपाल की त्रासदियों को बताने के लिये वे संदर्भ बहुत महत्वपूर्ण हैं जो आपदा के कारणों को बताते हैं। पुराने अनुभवों से न सीखने से लगातार दुहराई जा रही गलतियों से साबित हो रहा है कि हिमालय के प्रति सरकारें कितनी संवेदनशील हैं। आपदाओं की यह बात वास्तव में गौर करने वाली है कि हिमालय सबके लिये एक प्रयोगशाला से ज्यादा कुछ नहीं है। हिमालय की चिंता में दुबले होते लोगों की बड़ी जमात भी खड़ी है।

साठ के दशक के बाद हिमालय को बचाने के नारों के बीच हिमालय में रहने वाले लोगों के सामने एक नया हिमालय खड़ा किया जा रहा है। अपने हितों का हिमालय। हिमालय प्रहरियों को लगातार हिमालय से दूर करने के यत्न किये जा रहे हैं। कश्मीर में जहां राजनीतिक अस्थिरता के दौर में सहमा है तो उत्तर-पूर्व में मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड और त्रिपुरा जैसे राज्यों में भी हिमालय की जीवंतता समाप्त हो रही है। उत्तराखंड में विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं से पाटा जा रहा है। नदियां सुरंगों के हवाले की जा रही हैं।

हिमालय को मात्र पर्यटन की दृष्टि से देखना ठीक नहीं है। पिछले वर्ष नंदा राजजात यात्रा को अपनी राजनीति चमकाने के लिये तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ‘हिमालयी कुंभ’ के नाम से प्रचारित किया। इसे यात्रा में दो लाख से अधिक लोगों के शामिल होने का दावा किया गया। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इतना बड़ा मानव जमावड़ा वहां की पर्यावरणीय संवेदनशीलता के लिये खतरा है। सरकार चाहती है कि चारधाम यात्रा वर्षभर खुली रहे। हिमालय के नाम पर सरकारी और गैरसरकारी तौर पर बड़े प्रयासों के दावों के बीच हिमालय लगातार दरक रहा है। पुस्तक में एक जगह अमेरिकी लोक गायक और कवि उताह फिलिप्स को उद्धत किया है- ‘धरती मर नहीं रही, बल्कि उसे कत्ल किया जा रहा है और उन क़ातिलों के नाम-पते भी हैं।’

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