सरकार अब स्वयं बन चुकी है महामारी, सत्ता लोभी प्रधानमंत्री से न करें समस्या के समाधान की उम्मीद
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
प्रधानमंत्री जी ने कोविड 19 के टीके की दोनों डोज़ ले ली, पूरी दुनिया में इसकी तस्वीरों दिखाई गईं, साथ ही यह भी बताया गया की उस दिन दुनिया के किसी भी देश की तुलना में भारत में कोविड 19 के सबसे अधिक मामले दर्ज किये गए। प्रधानमंत्री जी से किसी भी विषय पर विशेषज्ञों से किसी गंभीर मंत्रणा की उम्मीद व्यर्थ है और कोविड 19 के मामले में भी यही हो रहा है। प्रधानमंत्री जी की हरेक योजना और यहाँ तक की हरेक वक्तव्य ना तो देश और ना ही जनता के लिए होता है। उनके हरेक कदम का आप बारीकी से विश्लेषण करें तो केवल सत्ता में टिके रहने की, विपक्ष को कमजोर करने की, मानाधिकार को कुचलने की और पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने की प्रवृत्ति ही दिखाई देगी। संभव है आप इससे सहमत नहीं हों, पर कभी खुले मन से एक भी योजना ऐसी खोजने का प्रयास कीजिये जिससे केवल जनता को और देश को सही में लाभ मिला हो।
नोटबंदी के तमाम फायदे प्रधानमंत्री जी बार-बार दोहराते रहे थे पर उनमें से एक भी फायदा कभी नहीं दिखा। जनता को बार-बार गिनाये गए फायदों से परे बीजेपी और इसके नेताओं का नोटबंदी के बाद बैंक बैलेस अचानक बढ़ गया, विपक्ष लगभग कंगाल हो गया, मानवाधिकार तार-तार हो गया और अरबपतियों की पूंजी पहले से अधिक हो गयी। ठीक इसी तरह, कोविड 19 के नामपर लगाए गए तालाबंदी से कोविड 19 को छोड़कर अन्य सभी चीजों पर असर पड़ गया। फिर भी बेशर्मी की पराकाष्ठ देखिये, प्रधानमंत्री जी लगातार चुनावे रैलियों में विपक्ष पर भद्दे आरोप लगा रहे हैं, ओछे वक्तव्य दे रहे हैं, और समाज से जुड़े मुद्दों से जनता को भटका रहे हैं।
एक सत्तालोभी प्रधानमंत्री और उसकी फ़ौज से आप यह उम्मीद भी नहीं कर सकते कि देश की किसी भी समस्या का समाधान उसके खजाने में होगा, अलबत्ता नई समस्याएं कैसे ईजाद करें इसमें उन्हें महारत हासिल है। ताली-थाली बजवाना, मोमबत्तियां जलवाना और टीका उत्सव मनवाना उनके कोविड 19 के विरुद्ध हथियार हैं। इस सरकार के मूल-भूत सिद्धांत हैं, जनता तो मरती ही रहेगी। पहला मौका नहीं है, जब जनता महामारी से मर रही है बल्कि महामारी तो अब सरकार बन चुकी है।
याद कीजिये वर्ष 2016 में किन सब्जबागों के साथ नोटबंदी का ऐलान किया गया था। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में बताया था कि बस पचास दिनों की बात है, उसके बाद तो बस स्वर्णिम भविष्य है। नोटबंदी के लगभग 45 दिनों के भीतर ही लगभग 100 लोगों की मौत सदमें और लम्बी लाइन में खड़े होने के कारण हो गई थी। कुछ बैंक कर्मचारी भी अत्यधिक काम के बोझ से अपनी जान गवां बैठे थे। सरकार का रवैय्या हरेक ऐसे मौके पर एक ही रहता है – आकडे को छुपाना और दूसरे स्त्रोतों के आंकड़ों को सिरे से नकार देना।
नोटबंदी के कारण मौत के आंकड़ों को जानने का प्रयास अनेक आरटीआई एक्टिविस्ट ने किया, पर जवाब कभी नहीं मिला। अनेक जानकारों के अनुसार केवल नोटबंदी के कारण प्रत्यक्ष तौर पर 150 से अधिक लोगों की जान गई थी, और अप्रत्यक्ष तौर पर भूख और दवा नहीं खरीद पाने के कारण हजारों जानें गईं। सरकार जब आंकड़े नहीं जारी करती है, तो जाहिर है उसे इन मौतों का कोई अफ़सोस नहीं है।
5 अगस्त 2019 के दिन जम्मू और कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटा लेने के बाद से वहां की खबरें आनी बंद हो गईं हैं और निष्पक्ष मीडिया पर सरकारी पहरा लगा दिया गया है। पर, 15 सितम्बर 2020 को राज्यसभा में सरकार की तरफ से बताया गया कि इसके बाद पिछले वर्ष 71 नागरिक और 74 सुरक्षाकर्मी अपनी जान गवां चुके हैं। इन 71 नागरिकों में से 45 मौतें आतंकी गतिविधियों के दौरान और 26 सीजफायर के उल्लंघन के दौरान दर्ज की गईं हैं।
इसी तरह 49 सुरक्षाकर्मी आतंकी गतिविधियों के दौरान और 25 सीजफायर के उल्लंघन के कारण जान गवां चुके हैं। पिछले वर्ष अनुच्छेद 370 के हटाने के बाद से जम्मू और कश्मीर में 211 आतंकी घटनाएं दर्ज की गईं हैं। दूसरी तरफ जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकार पर कार्यरत कोएलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटी के अनुसार सरकारी आंकड़े वहां के हालात की सही तस्वीर नहीं बताते, और मौत के आंकड़े बहुत अधिक हैं जिसमें बच्चे और महिलायें भी शामिल हैं।
नागरिकता संशोधन क़ानून को 2019 के 11 दिसम्बर को लागू किया गया था और इसके बाद देशभर में इसका विरोध किया गया था, जिसमें फरवरी 2020 तक 69 लोगों की जान चली गई थी। मोदी सरकार लगातार किसानों और मजदूरों के भले की बात करती रही है, कतार के अंतिम आदमी के भले को जुमले की तरह इस्तेमाल करती रही है, दूसरी तरफ, नॅशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2019 के दौरान देश में कुल 42480 मजदूरों और किसानों ने आत्महत्याएं कीं। इसमें 5563 पुरुष किसान, 394 महिला किसान, 3949 पुरुष खेतिहर मजदूर, 575 महिला खेतिहर मजदूर, 29092 पुरुष दिहाड़ी मजदूर और 3467 महिला दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्याएं सम्मिलित हैं। आत्महत्याओं का यह आंकड़ा वर्ष 2018 की तुलना में अधिक है।
वर्ष 2020 के मार्च में कोविड 19 के कारण अचानक लगे देशव्यापी लॉकडाउन को सरकार ने अपनी महान उपलब्धि बताया है। प्रधानमंत्री जी आज भी गर्व से बताते हैं कि यदि ऐसा नहीं किया होता तो पूरा देश ही कोविड 19 की चपेट में आ जाता। बिना किसी तैयारी के लगे लॉकडाउन के बाद शहरी श्रमिकों के पैदल अपने गाँव वापसी का मंजर पूरी दुनिया ने देखा था। करोड़ों लोग सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा महिलाओं और बच्चों के साथ बिना किसी मदद के ही पूरी कर रहे थे। इसमें सैकड़ों लोगों ने रास्ते में ही दम तोडा। पर, सरकार के लिए इसमें दुखद कुछ नहीं था, और न ही सरकारी लापरवाही थी।
मौत के इन आंकड़ों में सरकार प्रायोजित भीड़ हिंसा के मामले, प्रदूषण से मौत के आंकड़े, भूख और बेरोजगारी के आंकड़े और बलात्कार के बाद हत्याओं के मामले जोड़ लीजिये – फिर ये विश्वास करना कठिन हो जाएगा की हमारा देश लोकतंत्र भी है। प्रधानमंत्री जी का लोकतंत्र तो पहनावा, टोपी और दाढी में ही सिमट कर रह गया है।
मोदी सरकार ने वर्ष 2014 से ही जितने भी बड़े कदम उठायें, उसमें से कोई भी ऐसा नहीं था जिसने लोगों की असामयिक जान नहीं ली हो। फिर भी सरकारी निर्लज्जता का आलम देखिये, हरेक बार अंतिम आदमी के उत्थान की बात की जाती है। सब देखकर यही लगता है कि मोदी सरकार अंतिम आदमी का खात्मा ही कर देगी, जैसे वर्त्तमान में किसानों को खत्म कर रही है और शेष को कोविड-19 से ख़त्म करने की और अग्रसर है।