दुर्दांत आतंकवादियों और कट्टर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नेताओं की भाषा और व्यवहार में काफी समानतायें, अध्ययन में हुआ बड़ा खुलासा
केंद्र ने HM, Lashkar और अन्य संगठनों के 10 लोगों को किया आतंकवादी घोषित, 6 का ठिकाना है पाकिस्तान
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
The terrorists and extreme right and nationalist politicians use same language and behave in exactly similar way. एक नए अध्ययन से स्पष्ट होता है कि दुर्दांत आतंकवादियों और कट्टर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नेताओं की भाषा और व्यवहार में बहुत समानताएं हैं। इनकी भाषा में खुद को महान, यहाँ तक की भगवान साबित करना और दूसरों को या विपक्षी नेताओं को मनुष्यों से भी कमतर करार देने की कवायद रहती है। आतंकवादियों के निशाने पर जो लोग रहते हैं, या कट्टरपंथी नेताओं के सन्दर्भ में विपक्ष को दुनिया की हरेक समस्या का कारण बताया जाता है। भाषा में अपने आप को हमेशा पाकसाफ़ बताया जाता है। एक विशेष तरह की भाषा का उपयोग कर जनता के बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त किया जाता है, और फिर इसी जनता को लूटा जाता है।
इस अध्ययन को चार्ल्स डार्विन यूनिवर्सिटी में भाषा विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ अवनी एताय्वे के नेत्रित्व में किया गया है और इसे डिस्कोर्स एंड सोसाइटी नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। इस अध्ययन के लिए दुर्दांत आतंकवादियों, जिनमें ओसामा बिन लादेन, बोकोहरम के नेता अबूबाकर शेकु और न्यूज़ीलैण्ड के क्राइस्टचर्च में मस्जिद पर गोलियां बरसाने वाले ब्रेंटन टारेंट जैसे नाम शामिल हैं, की भाषा का विस्तार से अध्ययन किया गया है। हरेक आतंकवादी भाषा से अपने आप को गुणों की खान और किसी एक वर्ग का मसीहा साबित करता है, जबकि उस वर्ग विशेष के बाहर के लोगों को सभी समस्याओं और अराजकता का कारण साबित करता है। दूसरे वर्ग के लोगों को सत्ता के लिए नकारा साबित करता है और इन लोगों की क्षमता पर ही अपने शब्दों से सवाल खड़े करता है।
आतंकवादियों की भाषा में उलझकर जनता का एक बड़ा वर्ग मानसिक तौर पर प्रभावित होता है, हिंसक बन जाता है और दूसरे वर्ग के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। प्रोफ़ेसर डॉ अवनी एताय्वे ने इससे पहले आतंकवादी अपने समर्थकों की भीड़ बढ़ाने के लिए और हिंसा को सामाजिक मान्यता दिलाने के लिए किस तरह भाषा का इस्तेमाल करते हैं, पर एक विस्तृत अध्ययन प्रकाशित किया था। आतंकवादी समाज के सामाजिक तानाबाना ध्वस्त कर उसमें पारस्परिक घृणा और हिंसा का समावेश कर देते हैं, और इसमें भाषा की एक बड़ी भूमिका रहती है।
लगभग सभी बड़े आतंकवादी संगठन व्यक्ति केन्द्रित होते हैं, इसमें मुखिया के इशारे पर ही सारा संगठन, योजनायें और गतिविधियाँ चलती हैं। समाज के बीच में इन संगठनों के मुखिया को ही स्वीकार किया जाता है, और इन सबमें उसके भाषा की सबसे अधिक भूमिका रहती है। सामाजिक विकास के इस दौर में हम भले ही मनुष्य को सामाजिक प्राणी बता का इतरा रहे हों, पर सच तो यह है कि हम सामाजिक सिद्धांतों पर नहीं, बल्कि व्यक्तिवादी सिद्धांतों पर आगे बढ़ रहे हैं।
पूंजीवाद, आतंकवाद और कट्टर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सत्ता – सभी दुनिया में तेजी से पनप रहे हैं और सबके मूल में व्यक्तिवाद है। सोशल मीडिया भी सोशल नहीं बल्कि व्यक्तिवादी है, और इसमें भी निगेटिव विचारधारा वाले ही पनप रहे हैं। सोशल मीडिया पर झूठ, फेकन्यूज़ और सामाजिक तानाबाना बिगाड़ने वाली खबरें तेजी से फ़ैल रही हैं, यही व्यक्तिवादी परंपरा है।
हाल में ही पलोस वन नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि सोशल मीडिया पर फेकन्यूज़ को फैलाने वाले की यूजर्स की संख्या बहुत कम होती है। सोशल मीडिया के एक्स प्लेटफोर्म पर कुल 448103 यूजर्स द्वारा पोस्ट किये गए 2397388 पोस्ट का विस्तृत अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट हुआ कि एक-तिहाई से अधिक फेकन्यूज़ महज 10 अकाउंट से पोस्ट किये गए, जबकि लगभग 1000 यूजर्स कुल फेकन्यूज़ में से 70 प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं। इससे इतना तो स्पष्ट है कि समाज के लिए घातक फेकन्यूज़ की उत्पत्ति सामाजिक नहीं बल्कि व्यक्तिगत है और इस पर समाज के बड़े वर्ग का भरोसा फेकन्यूज़ भाषा के महत्व की तरफ इशारा करता है। फेक न्यूज़ का विस्तार व्यक्तिवादी सिद्धातों पर चलने वाले आतंकवादी, दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नेता और पूंजीवाद ही करता है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि आतंवादियों की भाषा और दक्षिणपंथी नेताओं की भाषा एक ही होती है। आतंकवादी संगठनों को बढ़ावा देने में दक्षिणपंथी नेताओं का ही हाथ रहता है, जाहिर है दोनों की भाषा एक ही होगी। दूसरी तरफ, सत्ता में बैठे दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नेता स्वयं एक आतंकवादी जैसा हिंसक व्यवहार करते हैं। हमारे देश में राजनैतिक माहौल के साथ ही मेनस्ट्रीम टीवी समाचार चैनलों पर क्रूर हिंसक और समाज को विभाजित करने वाली भाषा का ही वर्चस्व है।
हमारे देश की सत्ता में बैठे लोगों की यही राष्ट्रीय भाषा है और सत्ता पर जब भी नाकामी के प्रश्न उठते हैं तब उनके जवाब के बदले हिंसक भाषा और उग्र हो जाती है और विपक्ष पर हमले बढ़ जाते हैं। इसके बाद भी जनता के समर्थन में कोई कमी नहीं आती है। भारत को छोड़कर किसी भी दूसरे देश की मेनस्ट्रीम मीडिया सत्ता में बैठे नेताओं के ऐसे हिंसक और भौंडे वक्तव्यों का महिमामंडन करते हुए दिनभर उसे जनता के बीच नहीं परोसती। वैसे भी हमारे देश में भूखी, बेरोजगार और गरीब जनता की खुशी आर्थिक समृद्धि में नहीं है, बल्कि धर्म और मंदिरों में है – आतंकवादी भी तो यही करते हैं।
संदर्भ:
1. Awni Etaywe, Discursive pragmatics of justification in terrorist threat texts: Victim-blaming, denying, discrediting, legitimating, manipulating, and retaliation, Discourse & Society (2024). DOI: 10.1177/09579265241251480
2. Matthew R. DeVerna et al, Identifying and characterizing superspreaders of low-credibility content on Twitter, PLOS ONE (2024). DOI: 10.1371/journal.pone.0302201