वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
पिछले सात दौरों की वार्ता के असफल होने के बाद भी पता नहीं किस आधार पर कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को उम्मीद है कि 8 जनवरी की वार्ता में किसानों की मांगों का हल निकल जाएगा। दूसरी तरफ, हरेक दौर की वार्ता के बाद किसान नेता पहले से अधिक आश्वस्त रहते हैं कि सरकार किसी भी समस्या को सुलझाने के मूड में नहीं है इसलिए आन्दोलन की लम्बी रणनीति तैयार कर ली जाती है। सातवें दौर की वार्ता जो 4 जनवरी को की गई थी, उसके बाद कृषि मंत्री तोमर ने पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब में अनेक बेतुकी बातें की थीं।
कृषि मंत्री ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में सरकार ने कृषि कानूनों को केवल किसानों के हित के लिए बनाया था। इसके बाद कहा कि वे किसान नेताओं की मांग के अनुसार इन कानूनों में संशोधन के लिए विचार कर सकते हैं। सवाल यह है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में किसानों के भले के लिए कानून बनाए गए हैं, तब फिर आप संशोधनों की बात ही क्यों कर रहे हैं? इसका जवाब तो यही हो सकता है कि आपको या फिर प्रधानमंत्री को पता ही नहीं कि इन कानूनों से किसानों का भला होगा यह नहीं, पर कॉर्पोरेट घरानों के और वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाईजेशन के दबाव में सरकार ने कानून बना लिए और फिर इनका भौंडा प्रचार कर किसी तरह इसे किसानों पर थोपने की तैयारी है।
वैसे भी इस सरकार को अब तक बड़े आन्दोलनों का अनुभव नहीं रहा है और जनता को हरेक तरीके से दबाकर बीजेपी और आरएसएस के एजेंडा को थोपने की आदत पड़ गई है। इस बार भी किसानों से इतने बड़े और लम्बे समय के आन्दोलन की उम्मीद सरकार को नहीं थी। सरकार के मंत्रियों और बीजेपी नेताओं और प्रवक्ताओं के पास किसानों की किसी भी समस्या का हल नहीं है, इसलिए इनका जवाब रहता है – प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों का भला चाहा है या फिर प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई बदलाव नहीं होगा तो फिर कानून की क्या जरूरत है। प्रधानमंत्री मोदी का नाम जिस तरह कानून से तुलना करते हुए बीजेपी नेता और मंत्री जपते हैं वैसा तो गुलामी के दौर में अंग्रेज अधिकारी इंग्लैंड की रानी का भी नहीं लेते थे।
कृषि मंत्री बार-बार कहते हैं कि जो आन्दोलनकारी किसान दिल्ली की सीमाओं पर डेट हैं, उनके अलावा देश में किसी किसान को इन कानूनों से कोई भी समस्या नहीं है। दूसरी तरफ कृषि मंत्री अपने वक्तव्यों से ही बार बार साबित करते रहे हैं कि उन्हें देश के किसानों की कुछ खबर ही नहीं है और फर्जी किसानों से उन्होंने टीवी समाचार चैनलों के सामने इन कानूनों का समर्थन कराया था।
सातवें दौर की वार्ता के बाद उन्होंने कहा कि जिन 40 आन्दोलनकारी किसान संगठनों के नेताओं से वार्ता की जा रही है वे इनके अतिरिक्त भी देश के दूसरे किसान संगठनों से बात कर इन कानूनों पर राय लेंगें। इस वक्तव्य के बाद जाहिर है, किसान आंदोलन के 40 दिन बीतने के बाद भी उन्होंने देश के दूसरे किसान संगठनों से इस बारे में अब तक बात नहीं की हैं, और जब बात ही नहीं की तब कृषि मंत्री किस आधार पर बार-बार कहते हैं कि देश के दूसरे किसानों को इन कानूनों से कोई भी समस्या नहीं है? हास्यास्पद तो यह है कि लगभग ऐसी ही बातें प्रधानमंत्री जी भी करते हैं।
कृषि मंत्री कहते हैं कि उन्हें पूरे देश के किसानों की चिंता है। पर क्या कृषि मंत्री यह बता सकते हैं कि आन्दोलनकारी किसानों को वे किसान समझते हैं या नहीं, और यदि उन्हें किसान समझ रहे हैं तब फिर उनकी परेशानियां क्यों नहीं दिखाई दे रही हैं? प्रधानमंत्री समेत सभी मंत्री देश भर के किसानों को नए कृषि कानूनों पर प्रवचन सुना रहे हैं, फिर आज तक वही प्रवचन दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों को सुनाने की हिम्मत क्यों नहीं कर सके?
जिस सरकार ने यह तय कर लिया था कि इस देश की जनता को कितना भी दबाया जाए या परेशान किया जाए फिर भी जनता प्रतिकार नहीं करेगी, उसी सरकार ने वर्ष 2020 के आरम्भ में नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध आन्दोलन और अंत में किसानों का आन्दोलन देखा। किसानों का वर्तमान आन्दोलन आजादी के बाद अपने देश के आन्दोलनों के इतिहास से कुछ मामलों में अनोखा है। आजादी के बाद किसी आन्दोलन में सरकार के साथ ही पूंजीपतियों के विरुद्ध भी आवाजें उठ रही हैं।
इससे पहले तो गुलामी के दौर में अंग्रेजों के उत्पादों का बहिष्कार किया जाता था, पर किसानों ने तो अडानी-अम्बानी के उत्पादों के बहिष्कार का भी आह्वान किया है। देश के आन्दोलनों के इतिहास में संभवतः यह भी पहली बार हो रहा है कि बड़ी संख्या में अनेक संगठन आन्दोलन कर रहे हैं, सरकार से वार्ता करने जा रहे हैं पर सरकार की लाख कोशिशों के बाद भी कानूनों को वापस लेने की मांग से जरा भी हिले नहीं हैं। इस आन्दोलन में पहली बार यह सन्देश भी दिया गया है कि मोदी जी भले ही देश के प्रधानमंत्री हों पर उनके कहने पर किसानों को विश्वास नहीं है, बल्कि लिखित कानून पर विश्वास है।
किसानों के आन्दोलनों के बाद सरकार को इतना तो स्पष्ट हो ही गया होगा कि देश का सामान्य नागरिक कोई विधायक या राजनैतिक नेता नहीं है, जो हरेक समय बिकने को तैयार बैठा है और जिसे खरीदने की लत बीजेपी को लग चुकी है। किसान नेता न तो बिकना जानते हैं और ना ही ईडी, फेरा, मनी लौन्ड़ेरिंग या सीबीआई की चपेट में आते हैं – और यहीं मौजूदा सरकार को मात मिल रही है।