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विमर्श

Vinayak Damodar Savarkar : सावरकर किसी के लिए देशभक्त, वीर और स्वतंत्रता सेनानी तो किसी के लिए कायर, डरपोक और देशद्रोही !

Janjwar Desk
22 Aug 2022 4:47 AM GMT
Vinayak Damodar Savarkar : सावरकर किसी के लिए देशभक्त, वीर और स्वतंत्रता सेनानी तो किसी के लिए कायर, डरपोक और देशद्रोही !
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सावरकर देशभक्त भी और देशद्रोही भी

Vinayak Damodar Savarkar : सावरकर की राजनीतिक धारा पर चलने वालों का भी देश और राष्ट्र की अवधारणा अलग है, वो देश के लगभग 20 करोड़ मुसलमानों को देश मानने को तैयार नहीं हैं. उनकी यही धारणा इसाइयों के प्रति भी है. इसलिए हिन्दुत्व का देश, कांग्रेस का देश, वामपंथी का देश या मुस्लिम राष्ट्र की सोच रखने वालों का देश एक ही नहीं है...

सलमान अरशद की टिप्पणी

Vinayak Damodar Savarkar : आज कल सावरकर ज़ेरे बहस हैं, एक समूह उनका महिमामंडन कर रहा है तो दूसरा उन्हें कायर, डरपोक और भारत की आज़ादी की लड़ाई का गद्दार समझता है. दरअसल भारत में इतिहास को बेहद भावुक अंदाज़ में लिखने, पढ़ने और डिस्कस करने का चलन है और ये इतिहासदृष्टि कत्तई नहीं है.

आज़ादी के आन्दोलन की मुख्यतः तीन धाराएँ थीं, एक धारा जिसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी, उसका लक्ष्य अंग्रेज़ों को देश से निकालना और उनकी जगह भारतियों का शासन कायम करना था, इसमें ये बात भी निहित थी कि देश के संसाधनों का इस्तेमाल देश के विकास में होगा और ये विकास देशवासियों के श्रम और मेधा के ज़रिये होगा.

एक दूसरी धारा थी, जिसका कोई एक नेतृत्व तो नहीं था, लेकिन भगत सिंह और उनके साथी तथा वामपंथी संगठन इस धारा के प्रतिनिधि थे. भगत सिंह और उनके साथियों का आन्दोलन बहुत आगे नहीं बढ़ा, और वामपंथी संगठन भारतीय समाज की समझ और आन्दोलन की दिशा को लेकर कोई एक राय नहीं बना पाए, यही नही किसी रेडीमेड सेलेबस की चाह में वो सोवियत समाजवादी खेमे की तरफ़ भी देखते रहे. यही वजह थी कि 1942 में उन्होंने एक ऐसा स्टैंड लिया जिसके लिए कम्युनिस्ट विरोधी आज भी वामपंथियों को कोसते हैं. देश आज़ाद हुआ तो भी वामपंथी संगठन भारतीय समाज के विश्लेषण एवं आन्दोलन की दिशा को लेकर एक नहीं हो पाए, आज तो खैर वो दर्जनों खेमो में बंट चुके हैं.

एक तीसरी धारा थी जो भारत में हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करना चाह रही थी, पिछली सदी के शुरू में ही इस धारा के लोगों ने समझ लिया था कि देश जल्दी ही आजाद हो जायेगा, इसलिए इस धारा के लोगों ने हिन्दुओं की एकता के लिए काम किया. जातीय आधार पर बंटे हिन्दू समाज को एक करना कठिन कार्य था, खासतौर पर जब संपत्ति एवं सम्मान पर सवर्ण हिन्दुओं का कब्ज़ा हो और शूद्र के हिस्से केवल श्रम हो, वो भी बिना किसी मानवीय गरिमा के, लेकिन इसका तोड़ निकाल लिया गया. हिंदुत्व की सियासत ने मुस्लिमों को दुश्मन घोषित किया और इस दुश्मनी का डर दिखाकर हिन्दू एकता की कोशिश करने लगे. (आज मुसलमान विरोधी हिन्दू एकता काफी हद तक मुकम्मल हो चुकी है) जब देश आज़ाद हुआ तो इस खेमे की ताक़त इतनी नहीं थी कि इनकी मर्जी का मुल्क बनता, ऐसे में देश वैसा बना जैसा कांग्रेस चाहती थी.

धर्म आधारित देश के निर्माण की एक कोशिश मुसलमानों की ओर से भी हुई, मुस्लिम लीग ने इसको लीड किया, चूँकि हिन्दुओं और मुस्लिमों दोनों का ही एक एक समूह ऐसी सियासत के लिए कोशिश कर रहा था, इसलिए दोनों में कुछ समानताएं भी थीं, जैसे दोनों कांग्रेस और कम्युनिस्ट को दुश्मन मानते थे, दोनों को राजाओं और नवाबों का समर्थन हासिल था, दोनों ही धर्म आधारित पुरातन मूल्यों वाला देश बनाना चाहते थे, यही कारण था कि दोनों ने एक दूसरे का समर्थन किया और एक साथ मिलकर सरकार भी बनाई और दंगे भी करवाए.

देश में हुए तमाम हिन्दू-मुसलमान दंगों का संचालन दोनों ने मिलकर किया और इस तरह इन दो राजनीतिक समूहों की वजह से लगभग 10 लाख लोग मारे गये. दो धार्मिक समूहों की प्रतिद्वन्दात्मक सियासत में मारकाट की ऐसी मिसाल दुनिया में और कहीं शायद ही मिले, मुस्लिम लीग ने जिस देश का निर्माण किया वो पहले दो हिस्सों में बंटा और इस बंटवारे में एक बार फिर भरी मारकाट हुई, और देश के कुछ हिस्से आज भी अपनी अलग पहचान के लिए लड़ रहे हैं, यही नहीं पाकिस्तान में एक लोकतान्त्रिक निजाम आज तक मज़बूत नहीं हो पाया है. इसे भारतियों का सौभाग्य ही समझिये कि हिन्दुत्व की सियासत करने वालों को शुरू में सफ़लता नहीं मिली, वरना भारत की हालत पाकिस्तान से भी बुरी होती, समाज जाति आधारित राजनीतिक व्यवस्था में वैसे ही बंट चुका होता जैसे कुछ सदी पहले था, ऐसा होने पर देश का जो विकास आज दिखाई दे रहा है वो नहीं होता.

बात सावरकर को लेकर शुरू हुई थी, क्या सावरकर को सीधे सपाट तरीके से अच्छा या बुरा कहा जा सकता है? इस सवाल का कोई एक ज़वाब नहीं हो सकता, हिन्दुत्व की सियासत को पसंद करने वाले के लिए सावरकर देशभक्त, वीर और स्वतंत्रता सेनानी हैं, जो लोग हिंदुत्व की सियासत को पसंद नहीं करते उनके लिए सावरकर कायर, डरपोक और देशद्रोही हैं. लेकिन बात इतनी साफ़ है नहीं. सावरकर एक समय देश की आज़ादी के लिए लड़े, इसलिए उन्हें स्वतंत्रता सेनानी कहने में कोई बुराई नहीं है, सावरकर इसी देश की आज़ादी के लिए लड़े, इसलिए उन्हें देशभक्त कहने में भी कोई बुराई नहीं है, लेकिन देखना होगा कि सावरकर जिस देश के लिए लड़े या जिस देश का उन्होंने सपना देखा, वो क्या था !

सावरकर का देश एक हिन्दू देश है, हिन्दू माने जाति आधारित समाज व्यवस्था, जिसमें श्रम तो शूद्र करेगा लेकिन उससे उत्पादित सम्पदा और सम्मान पर उसका नहीं सवर्ण का हक़ होगा, सवर्ण का अर्थ ब्राह्मण समझें क्योंकि हिन्दू धर्म में सर्वोच्च वही है. इसलिए हिन्दू राष्ट्र जब बनकर मुकम्मल होगा तो उसमें यही व्यवस्था लागू होगी और मनुस्मृति संविधान की जगह लेगा. इसलिए गुजरात में बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उनकी बेटी के हत्यारों के साथ ब्राह्मण होने को आधार बनाकर जो हमदर्दी दिखाई गयी है, उसे आने वाले भविष्य की एक झलक समझना चाहिए.

सावरकर ने जब जाति प्रथा का विरोध किया, जब गाय के "माता" वाली अवधारणा का विरोध किया, जब बलात्कार को लड़ाई का टूल कहा, राष्ट्र को लेकर जो अवधारणात्मक बहस की, उन सबके मूल में उनकी हिन्दू देश और हिन्दू राष्ट्र की जरूरतें थीं. महात्मा गाँधी की हत्या करना भी उनके हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की दिशा में की गयी कारवाही ही थी. ये बात आपको अच्छी लगे या बुरी, लेकिन जब आप उनके सियासी ज़मीन पर खड़े होकर इसे देखेंगे तो ये आपको एक ज़रूरी राजनीतिक कार्यवाही नज़र आएगी.

आज अगर आप सावरकर की आलोचना और समीक्षा करने की कोई कोशिश करेंगे तो उनकी पूरी सियासी यात्रा को एक साथ लेना पड़ेगा और उनका मूल्यांकन उनकी सियासत के ही परिप्रेक्ष्य में करना होगा. आप एक सेक्युलर राष्ट्र की चाहत रखते हैं तो सावरकर आपके दुश्मन हैं, आप एक समाजवादी मुल्क की चाहत रखते हैं तो फिर सावरकर और पूरी भगवा पलटन ही नहीं कांग्रेसी भी आपकी दुश्मन है. लेकिन कांग्रेस किसी से खुल कर दुश्मनी नहीं कर पायी और न कर पायेगी क्योंकि उसे एक समावेशी राष्ट्र का निर्माण करना था, जो उदारवादी पूंजीवादी निजाम के तहत संचालित हो. बावजूद इसके कांग्रेसी हुकूमतों के दौर में हिन्दुत्व की सियासत फलती फूलती रही क्योंकि कांग्रेस लीडरशिप मुख्यतः सवर्ण हिन्दुओं के हाथ में थी जो हिन्दुत्व की सियासत के लिए सॉफ्ट थे और मुसलमानों के लिए द्वेष भी रखते थे.

सावरकर की राजनीतिक धारा पर चलने वालों का भी देश और राष्ट्र की अवधारणा अलग है, वो देश के लगभग 20 करोड़ मुसलमानों को देश मानने को तैयार नहीं हैं. उनकी यही धारणा इसाइयों के प्रति भी है. इसलिए हिन्दुत्व का देश, कांग्रेस का देश, वामपंथी का देश या मुस्लिम राष्ट्र की सोच रखने वालों का देश एक ही नही है. आप जब सावरकर जैसे किसी व्यक्तित्व की समीक्षा करेंगे तो दो बातें देखनी होंगी, एक ये कि आपकी राजनीतिक ज़मीन क्या है दूसरे जिसकी आलोचना या समीक्षा की जा रही है उसकी राजनीतिक ज़मीन क्या है. आज जो लोग सावरकर में हिन्दू राष्ट्र का पितामह देख रहे हैं उनकी राजनीतिक ज़मीन हिंदुत्व है और जो उन्हें गद्दार और देशद्रोही कह रहे हैं उनकी रजनीतिक ज़मीन उदारवादी पूंजीवाद या फिर वामपंथी सियासत है.

एक नागरिक के रूप में आपका हित हिन्दुत्व के राष्ट्र या देश में सुरक्षित है, लिबरल पूंजीवादी देश में सुरक्षित है (जो फ़िलहाल चल रहा है) या समाजवादी देश में सुरक्षित है, इसकी पड़ताल आपको करनी होगी, ये बहुत मुश्किल नहीं है, बस तीनों तरह के देशों की अवधारणा को समझ लीजिये और तय कीजिये कि आपके लिए कौन सा देश बेहतर है. बाकि इस बहस में कुछ नहीं रखा है कि सावरकर देशभक्त थे या देशद्रोही, मेरे विचार से वे दोनों थे और दोनों ही नहीं थे. आपको क्या होना है ये तय करना आज भी आपके हाथ में हैं.

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