जब जनता के मौन को सत्ताएँ अपने प्रति समर्थन मानकर निरंकुश होने लगतीं हैं, तब विरोध सड़कों पर व्यक्त होने की बजाय ईवीएम के बटनों के जरिए आकार लेने लगता है
वरिष्ठ लेखक श्रवण गर्ग की टिप्पणी
जनज्वार। देश की एक सौ पैंतीस करोड़ जनता को 75वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा लाल क़िले की प्राचीर से दिए जाने वाले भाषण को सुनने की तैयारी प्रारम्भ कर देना चाहिए। प्रधानमंत्री का पिछला सम्बोधन कोरोना की दूसरी लहर के बीच हुआ था। हमें ख़ासा अनुभव है कि उस वक्त हमारे हालात क्या थे और हम सब कितने बदहवास थे! मोदी जी का यह भाषण तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच होने जा रहा है। जनता को उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करना चाहिए कि प्रधानमंत्री बीते साल की उपलब्धियों का ज़िक्र किस अंदाज में और कितने उत्साह से करते हैं और आने वाले वक्त को लेकर क्या आश्वासन देते हैं।
प्रधानमंत्री का भाषण इसलिए भी महत्वपूर्ण होगा कि पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों से झुलसी हुई सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी छह महीनों बाद ही उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में चुनावों का सामना करने जा रही है। प्रधानमंत्री ने अपनी हाल की बनारस यात्रा के दौरान कोरोना महामारी के देश भर में श्रेष्ठ प्रबंधन के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को सार्वजनिक रूप से बधाई दी थी। इसलिए इन चुनावों के महत्व को ज़्यादा बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे प्रधानमंत्री के वर्ष 2022 के स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन की आधारशिला भी रखने वाले हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों के लिए उत्सुकता का विषय हो सकता है कि देश के मौजूदा हालातों को देखते हुए प्रधानमंत्री अपने नागरिकों के साथ किस तरह का संवाद करते हैं ! और यह भी कि समान हा्लातों में दुनिया के दूसरे (प्रजातांत्रिक) राष्ट्रों के प्रमुख अपने लोगों से किस तरह बातचीत करते रहे हैं!
कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जब पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ था, प्रधानमंत्री ने अपने 86 मिनट के स्वतंत्रता दिवस भाषण में दिलासा दिया था कि 'आज एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन वैक्सीन टेस्टिंग के चरण में हैं। जैसे ही वैज्ञानिकों की हरी झंडी मिलेगी, उक्त वैक्सीन की बड़े पैमाने पर उत्पादन की तैयारी है। कुछ महीनों पहले तक N-95 मास्क ,PPE किट्स ,वेंटिलेटर ये सब विदेशों से मँगवाते थे। आज इन सभी में भारत न सिर्फ़ अपनी ज़रूरतें पूरी कर रहा है, दूसरे देशों की मदद के लिए भी आगे आया है।' उत्सुकता इस बात की भी रहेगी कि क्या प्रधानमंत्री इन सब घोषणाओं का इस बार भी ज़िक्र करेंगे ?
संभव है कि प्रधानमंत्री पंद्रह अगस्त के भाषण में अपने हाल के इस आरोप को दोहराना चाहें कि विपक्षी पार्टियाँ जान-बूझकर संसद नहीं चलने दे रही हैं। यह संसद, लोकतंत्र और देश की जनता का अपमान है। उस स्थिति में प्रधानमंत्री को देश की जनता के प्रति भी शिकायत व्यक्त करना चाहिए कि वह विपक्ष की 'पापड़ी-चाट' वाली हरकतों को देखते हुए भी कुछ नहीं बोल रही है। चुपचाप बैठी है। चिंता जताई जा सकती है कि क्या जनता भी विपक्ष के साथ जा मिली है? कांग्रेस के ख़िलाफ़ 2014 जैसी सुगबुगाहट इस समय क्यों नहीं है? उन राज्यों में भी जहां भाजपा सत्ता में है !
प्रधानमंत्री को अधिकार है कि वे देश को अपनी मर्ज़ी से चलाएँ। उनका विवेकाधिकार हो सकता है कि देश को चलाने में विपक्षी दलों की मदद नहीं लें, सरकार के निर्णयों में उन्हें भागीदार नहीं बनाएँ। पर साथ ही वे यह भी चाहते हैं कि संसद को चलाने में ,सरकार द्वारा विपक्ष के साथ बिना किसी विमर्श के तैयार किए गए विधेयकों को पारित करवाकर उन्हें क़ानून की शक्ल देने में भी विरोधी पार्टियाँ कोई हस्तक्षेप नहीं करें। वे विपक्ष को उसका यह अधिकार नहीं देना चाहते हैं कि वह पेगासस जासूसी कांड और विवादास्पद कृषि क़ानूनों को लेकर संसद में किसी भी तरह की बहस की माँग करे।
नागरिकों के मन की यह बात प्रधानमंत्री के कानों तक पहुँचना ज़रूरी है कि सरकार और विपक्ष दोनों को ही समान तरह की जनता का समर्थन प्राप्त है जो अलिखित हो सकता है, पर बिना शर्त नहीं है। अतः सरकार अपार बहुमत की शक्ल में हाथ लगे समर्थन को बिना किसी शर्त का मानकर विरोध को ख़ारिज नहीं कर सकती। दूसरे यह भी साफ हो जाना चाहिए कि प्रजातंत्र में अगर जनता गूँगी हो जाए तो उसे सरकार की हरेक बात का समर्थन और विपक्ष बोलने लगे तो उसे नाजायज़ विरोध नहीं मान लिया जाना चाहिए।
ऐसा एकाधिक बार सिद्ध हो चुका है कि जब जनता के मौन को सत्ताएँ अपने प्रति समर्थन मानकर निरंकुश होने लगती हैं, तब विरोध सड़कों पर व्यक्त होने की बजाय EVM के बटनों के जरिए आकार लेने लगता है और शासनाधीशों के लिए उस पर यक़ीन करना दुरूह हो जाता है। अमेरिकी चुनावों के नौ महीने बाद भी डोनाल्ड ट्रम्प यह ग़लतफ़हमी पाले हुए हैं कि उन्हें मतदाताओं ने क़तई नहीं हराया है, बल्कि उनकी जीत पर बाइडन ने डाका डाला है।
प्रधानमंत्री तक इस संदेश का पहुँचना भी ज़रूरी है कि उनके कहे और जनता के समझे जाने के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है और विपक्षी पार्टियाँ इसी को अपनी ताक़त बनाकर संसद में गतिरोध उत्पन्न कर रहीं हैं। इस समय जनता की समझ और नब्ज पर विपक्ष की पकड़ पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मज़बूत है। वर्ष 2014 में जो जनता नरेंद्र मोदी के आभामंडल से चकाचौंध थी, मौजूदा हालातों ने उसी जनता को सत्ता के समानांतर खड़ा कर दिया है। अब विपक्ष भी उस तरह का नहीं बचा है जिसका गला तब रूंध गया था, जब संसद में विवादास्पद कृषि क़ानून पारित करवाए जा रहे थे। कोरोना महामारी से संघर्ष के बाद जनता के साथ-साथ विपक्ष की इम्यूनिटी भी बढ़ गई है।
सत्तारूढ़ दल के लिए विपक्षी दलों के साथ-साथ जनता की भूमिका को भी संदेह की नज़रों से देखने की ज़रूरत का आ पड़ना इस बात का संकेत है कि वह अब अपने मतदाताओं को भी अपना विपक्ष मानने लगा है। आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने के अवसर पर प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के सांसदों को पचहत्तर गाँवों में पचहत्तर घंटे रुककर जनता को (सरकार की) उपलब्धियाँ बताने के निर्देश दिए हैं।
उन्होंने पार्टी सांसदों से यह भी कहा है कि वे संसद की कार्यवाही में बाधा डालने की विपक्ष की करतूतों को जनता और मीडिया के सामने एक्सपोज़ करें। मीडिया को लेकर तो चिंता की ज़्यादा वज़हें नहीं हैं पर विपक्ष को 'बेनक़ाब' करने के लिए ये सांसद जनता को देश में कहाँ ढूँढेंगे?