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विमर्श

शांति का नोबल पाने वाली सू की के देश म्यांमार में हो रहे नरसंहार की क्या है असली वजह?

Janjwar Desk
9 March 2021 12:44 PM IST
शांति का नोबल पाने वाली सू की के देश म्यांमार में हो रहे नरसंहार की क्या है असली वजह?
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म्यांमार के सुरक्षा बलों ने तख्तापलट का विरोध कर रहे अनेक प्रदर्शनकारियों को मार दिया है। नए जुंटा प्रशासन ने पत्रकारों को और हिंसा को उजागर करने में सक्षम अन्य लोगों जेल में डाल दिया है। इसने सीमित कानूनी सुरक्षा भी खत्म कर दी है। बाहरी दुनिया ने अब तक कड़े शब्दों में निंदा की है और प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दी है।

वरिष्ठ पत्रकार दिनकर कुमार का विश्लेषण

म्यांमार में लोकतंत्र समर्थक आंदोलनकारियों पर सैनिक शासन की जारी बर्बरता के बीच बड़ी संख्या में वहां से लोगों का पलायन शुरू हो गया है। वहां से भाग रहे दर्जनों लोग भारत की सीमा में प्रवेश कर चुके हैं। उससे भी ज्यादा संख्या में लोग इसी मकसद से सीमा के आसपास मौजूद हैं। जानकारों ने कहा है कि अब हालात ऐसे हो गए हैं कि पिछले वर्षों में रोहिंग्या और दूसरे अल्पसंख्यकों के साथ जो हुआ, वह अब देश की बहुसंख्यक आबादी के साथ दोहराया जाता लग रहा है।

म्यामांर के अल्पसंख्यक समूह दशकों से सेना का उत्पीड़न झेलते रहे हैं। पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों में रहने वाले अल्पसंख्यक समूहों पर अत्याचार की कहानियां बहुचर्चित रही हैं। उन इलाकों में नरसंहार, बलात्कार, यातना, जबरिया मजबूरी, विस्थापन आदि लंबे समय से रोजमर्रा की बात रही है। 2016-17 में रखाइन प्रांत में सेना के अत्याचार के कारण सात लाख 40 हजार से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान पलायन कर बांग्लादेश चले गए थे। 2019 में संयुक्त राष्ट्र ने रखाइन, चिन, शान, कचिन और करेन राज्यों में अल्पसंख्यकों के साथ सेना के सलूक को 'मानव अधिकारों का घोर हनन' बताया था।

म्यांमार के सुरक्षा बलों ने तख्तापलट का विरोध कर रहे अनेक प्रदर्शनकारियों को मार दिया है। नए जुंटा प्रशासन ने पत्रकारों को और हिंसा को उजागर करने में सक्षम अन्य लोगों जेल में डाल दिया है। इसने सीमित कानूनी सुरक्षा भी खत्म कर दी है। बाहरी दुनिया ने अब तक कड़े शब्दों में निंदा की है और प्रतिबंध लगाने की चेतावनी दी है।

म्यांमार में नवसृजित लोकतंत्र का खात्मा एक और तख्तापलट के जरिये किया गया है। यह क्रूरता का नया दौर लेकर आया है। म्यांमार में हिंसक सैन्य शासन का लंबा इतिहास रहा है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि आने वाले समय में हालात बदतर हो सकते हैं।

इस सप्ताह हिंसा में 38 लोगों की मौत होने के बावजूद प्रदर्शनकारियों ने सड़कों को भरना जारी रखा है।1 फरवरी के तख्तापलट के ठीक बाद के हफ्तों की तुलना में अब लोग कम संख्या में सड़क पर उतर रहे हैं। सैन्य क्रूरता के जरिये आतंक का माहौल बनाया जा चुका है।

नागरिकों ने बर्बरता के दृश्यों का वीडियो तैयार करने के लिए स्मार्टफोन का इस्तेमाल किया है। हाल के वीडियो में सुरक्षा बलों को बिलकुल करीब से एक व्यक्ति को गोली मारते हुए और प्रदर्शनकारियों को पीटते हुए और बुरी तरह से कहर बरपाते हुए दिखाया गया है।

म्यांमार की सेना के पास नागरिकों का दमन करने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं। उसके पास परिष्कृत हथियार, जासूसों का एक बड़ा नेटवर्क, दूरसंचार में कटौती करने की क्षमता, और देश के सीमावर्ती क्षेत्रों में नागरिक संघर्षों को कुचलने का दशकों का अनुभव है।

म्यांमार के साथ काम करने के लंबे अनुभव वाले संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के पूर्व राजदूत बिल रिचर्डसन ने कहा, "हम एक संकट के बिंदु पर हैं।" उन्होंने पत्रकारों की गिरफ्तारी और प्रदर्शनकारियों की अंधाधुंध हत्या का उल्लेख किया।

"अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को बहुत अधिक प्रतिरोधक प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता है, नहीं तो यह स्थिति पूर्ण अराजकता और हिंसा में बदल जाएगी।"

संयुक्त राज्य अमेरिका सहित दुनिया भर की सरकारों ने तख्तापलट की निंदा की है, जिसकी वजह से लोकतंत्र की बहाली की वर्षों की धीमी प्रगति को उलट दिया गया है।

लोकतंत्र की बहाली से पहले म्यांमार ने पांच दशकों तक एक सख्त सैन्य शासन के तहत नागरिक अधिकारों का दमन किया, जिसके कारण उसे अंतरराष्ट्रीय अलगाव और सख्त प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। जब सेना के जनरलों ने पिछले एक दशक में अपनी पकड़ ढीली की, अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने अधिकांश प्रतिबंध हटा दिए और निवेश करना शुरू किया।

हालांकि हालिया वैश्विक आलोचना के दवाब के बावजूद, इस बात की बहुत उम्मीद नहीं है कि बाहरी आलोचना से देश के अंदर आसानी से लोकतंत्र की बहाली हो पाएगी।

म्यांमार में मानव अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र विशेषज्ञ टॉम एंड्रयूज ने जो म्यांमार की सेना को हथियार नहीं बेचने का आह्वान दुनिया भर के देशों से किया है, लगता नहीं कि उसका कोई प्रभाव पड़ेगा। रूस और चीन, म्यांमार के सबसे शक्तिशाली समर्थक हैं जो अभी भी सेना को हथियार बेच रहे हैं - और उनके पास संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट है और इस तरह किसी भी निर्णय को वे उलट सकते हैं। सुरक्षा परिषद शुक्रवार को म्यांमार के संकट पर विचार करेगा।

म्यांमार के पड़ोसी देश, जो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का समूह बनाते हैं, आम तौर पर एक-दूसरे के मामलों में "हस्तक्षेप" करना पसंद नहीं करते हैं। जिसका अर्थ है कि वे जुंटा और बेदखल आंग सान सू की सरकार के बीच बातचीत के लिए आह्वान से ज्यादा कुछ भी करने वाले नहीं हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की तरफ से प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। वाशिंगटन ने 1 फरवरी को तख्तापलट के बाद म्यांमार के शीर्ष सैन्य नेताओं पर प्रतिबंध लगाए। जब संयुक्त राष्ट्र ने बताया कि सुरक्षा बलों ने 38 लोगों को मार डाला तो नए प्रतिबंध लगाए गए। तख्तापलट और दमन को देखते हुए ब्रिटेन ने तीन जनरलों और जुंटा के छह सदस्यों पर प्रतिबंध लगाए। यूरोपीय संघ तख्तापलट के बाद कदम उठाने पर विचार कर रहा है।

लेकिन उन देशों से लगाए जाने वाले सख्त प्रतिबंधों से भी कोई प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है, हालांकि प्रतिबंध आम लोगों पर भारी पड़ सकते हैं। म्यांमार ने दशकों पहले इस तरह के उपायों को खारिज कर दिया है, और सेना पहले से ही "आत्मनिर्भरता" की योजना के बारे में बात करती रही है।

म्यांमार में संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत क्रिस्टीन श्रानेर बर्गनर ने इस सप्ताह संवाददाताओं से कहा कि उन्होंने सैन्य प्रशासन को चेतावनी दी थी कि सख्त प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। लेकिन जनरलों को पता था कि "केवल कुछ दोस्तों के साथ कैसे शासन करना है।"

"म्यांमार का इतिहास बताता है कि सेना विरोध प्रदर्शन की गति को कम करने के प्रयास में अधिक क्रूरता और हिंसा का उपयोग करेगी," लंदन की क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी में अंतर्राष्ट्रीय राज्य अपराध पहल के एक विद्वान रोनन ली ने कहा। "अतीत में सेना विरोध को दबाने या अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए हजारों नागरिक प्रदर्शनकारियों को मारने के लिए तत्पर रही है।"

सेना के इस तरह के दृढ़ संकल्प के सामने कुछ पर्यवेक्षक सवाल करते हैं कि नागरिकों का विरोध आंदोलन कितने समय तक चल सकता है।

म्यांमार की सेना बीते 70 साल से ज़्यादा वक़्त से बिना रुके लड़ रही है। यहां सेना शक्तिशाली संस्थान है जिसे अपने बनाए संविधान से ताकत मिलती है। साल 2008 में सेना ने म्यांमार के संविधान में संशोधन किया। इसके बाद देश लोकतंत्र के रास्ते पर बढ़ा और साल 2015 में यहां चुनाव हुए। उस चुनाव में आंग सान सू की की पार्टी ने हिस्सा लिया और जीत हासिल की। उन्हें 80 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट हासिल हुए।

संविधान के मुताबिक़ आंग सान सू की की पार्टी सभी सीटें हासिल नहीं कर सकती थी। कुछ सीटें सेना के लिए रिजर्व थीं। आंग सू की की पार्टी तीन अहम मंत्रालय गृह, रक्षा और सीमा मामले भी अपने पास नहीं रख सकती थी। लेकिन फिर भी आंग सान सू की के नेतृत्व ने देश में उम्मीद के नए युग की शुरुआत हुई।

लेकिन जैसे-जैसे समय बीता सरकार चलाने के उनके तौर-तरीकों की आलोचना भी हुई। लेकिन आंग सान सू की की कर्तव्यनिष्ठ नेता की पहचान पर कोई असर नहीं हुआ। हालांकि, जब उन्होंने रोहिंग्या समुदाय पर सेना के हमलों की आलोचना करने से इनकार कर दिया तब दुनिया के कई देशों ने नाराज़गी दिखाई।

साल 2020 में आंग सान सू की का पांच साल का पहला कार्यकाल पूरा हुआ। इसके बाद चुनाव हुए और उन्हें प्रचंड बहुमत मिला। सेना की पार्टी को सिर्फ़ सात फ़ीसदी वोट मिले। चुनाव नतीजों से ये जाहिर हुआ कि सेना के जनरलों के हाथ से ताक़त फिसल रही है. उन्हें डर था कि आंग सान सू की संविधान में बदलाव कर सकती हैं।

सेना की नज़र में आंग सान सू की ने लक्ष्मण रेखा पार कर दी। उन्हें रोकने के लिए ज़रूरी था कि देश की सत्ता पर अधिकार कर लिया जाए। इस फ़ैसले की एक और वजह मानी जाती है। म्यांमार सेना के प्रमुख राष्ट्रपति बनने का ख़्वाब देख रहे थे। लेकिन सेना को बेहद कम वोट हासिल होने के कारण उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। ये भी साफ हुआ कि लोगों से सेना की पकड़ छूट रही है।

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