नेपाली प्रधानमंत्री ओली की ज़िद के सामने बेबस हुई प्रचंड की महत्वाकांक्षा
टीका आर प्रधान की रिपोर्ट
प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली द्वारा संसद भंग करने की कार्रवाई को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पलट देने और ग़ैर-संवैधानिक ठहराने के कुछ ही दिन बाद रविवार को ओली ने कह दिया कि वे त्यागपत्र नहीं देंगे और साथ ही उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने की चुनौती भी अपने विरोधियों को दे डाली।
रविवार 28 फरवरी को झापा ज़िले में एक कार्यक्रम में बोलते हुए ओली ने कहा,"आपने केस जीत कर सदन को फिर से चालू तो कर दिया है, अब मुझे हटा कर दिखाओ, अविश्वास प्रस्ताव पास कर तो दिखाओ।"
ओली का इशारा पुष्प कमल दहल और माधव कुमार नेपाल की तरफ था। गौरतलब है कि इन दोनों के ही साथ ओली का 36 का आंकड़ा है।
16 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारियों को 13 दिनों के भीतर-भीतर सदन की बैठक बुलाने का आदेश दे कर नेपाल की राजनीति को वापिस संसद भेज दिया। इसीलिये सरकार ने संघीय संसद का शीत कालीन सत्र 7 मार्च से शुरू होने की संस्तुति की है।
वैसे तो सैद्धांतिक रूप से नैतिक आधार पर ओली को इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया है। इसलिए दहल-नेपाल गुट असमंजस की स्थिति में है। और राजनीति पहले से कहीं ज़्यादा पेंचीदा हो गई है।
हालाँकि दहल-नेपाल धड़ा ओली को बाहर का रास्ता दिखाना चाहता है, लेकिन ऐसा करने के क़ानूनी-संवैधानिक रास्ते हैं नहीं। हाँ,ऐसा एक ही सूरत में हो सकता है :अगर संसद में नए समीकरण बन जाएं। लेकिन अगर नेपाली कांग्रेस मौन साधे रहती है तो इसकी संभावना भी नहीं है।
सदन में सदस्यों की संख्या कुछ इस प्रकार हैं : दहल-नेपाल धड़े के नियंत्रण में 90 सीटें हैं,प्रधानमंत्री ओली के पास 80 से 83 सीटें हैं,नेपाली कांग्रेस के पास 63 (2 निलंबित) और जनता समाजबादी पार्टी के पास 34(2 निलंबित) सीटें हैं। वहीं राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी,नेपाल मज़दूर किसान पार्टी और राष्ट्रीय जनमोर्चा के पास 1-1 सीट हैं। एक स्वतंत्र सांसद भी है।
दहल-नेपाल धड़े की तरफ से स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य बरसमान पुन का कहना है,"ओली को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर करना ही एकमात्र विकल्प हमारे पास है। लेकिन अगर वो ऐसा करने से मना करते हैं तो हम अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से उन्हें बाहर का रास्ता दिखा देंगे। हमें पूरा भरोसा है कि जब सदन का सत्र शुरू होगा तो नेपाली कांग्रेस हमारा समर्थन करेगी।"
हालाँकि नेपाली कांग्रेस ने तटस्थ बने रहने का निर्णय लिया है और दहल-नेपाल धड़े की समर्थन सम्बन्धी गुज़ारिश के प्रति कोई प्रतिबद्धता अभिव्यक्त नहीं की है। नेपाली कांग्रेस सही समय का इंतज़ार कर रही है। उसका कहना है कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी अभी तक क़ानूनी रूप से विभाजित नहीं हुई है।
चुनाव आयोग ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी पर कोई निर्णय लेने से अभी तक मना कर दिया है। हालाँकि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव आयोग को एक अर्ज़ी दी थी जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय समिति के 441 सदस्यों में अधिकांश इसके साथ हैं लेकिन चुनाव आयोग ओली और दहल को अभी भी पार्टी अध्यक्ष मानता है।
चुनाव आयोग की नज़र में केवल एक नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी है जो मई 2018 में इसके साथ पंजीकृत हुई थी।
अगर चुनाव आयोग कोई निर्णय देता है तो अलग बात है वरना संसद भी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को ही पहचानती है ना कि ओली या दहल-नेपाल वाले धड़ों को। पर्यवेक्षकों के अनुसार, ओली को प्रधानमंत्री के पद से हटाने का एक तरीका यह है कि दहल-नेपाल धड़ा यह दिखा सके कि ज़्यादातर सांसद उसके साथ हैं।
एक राजनीतिक अर्थ शास्त्री हरी रोका ने कहा कि अगर दहल-नेपाल धड़े के साथ अधिकांश सांसद हैं तो इसे सबसे पहले ओली को संसदीय दाल के नेता के पद से हटा देना चाहिए।
रोका ने कहा,"दहल-नेपाल धड़े के लिए सबसे अच्छा क़ानूनी विकल्प यह होगा कि वे 25 फीसदी सांसदों के साथ संसदीय दल की बैठक बुलाएँ। " इसके लिए दहल-नेपाल धड़े के लगभग 43 सांसदों को यह कदम उठाना पड़ेगा। फिर भी बहुत सी दिक्कतें हैं।
सदन बर्ख़ास्त करने के दो दिन बाद 22 दिसंबर को दहल-नेपाल धड़े ने अपनी केंद्रीय समिति की एक बैठक बुलाई और ओली को पार्टी सदस्यता ख़त्म करने का निर्णय लिया। धड़े ने प्रचंड का चुनाव संसदीय दल के नेता के रूप में कर लिया और इसकी सूचना चुनाव आयोग को दे दी। लेकिन सदन इस तरह के निर्णयों को मान्यता नहीं देता है। ओली को संसदीय दल के नेता के पद से हटाने के लिए दहल-नेपाल धड़े को पहले ओली की पार्टी की सामान्य सदस्यता को ख़त्म करने के 22 दिसंबर के अपने निर्णय को वापिस लेना होगा और दहल को संसदीय दल का नेता चुनना होगा।
उन्होंने स्वीकार किया कि बहुत कुछ चुनाव आयोग पर निर्भर करता है।
लेकिन ये दूर की एक कौड़ी है। इससे पहले कि सदन की बैठक शुरू हो, सुप्रीम कोर्ट "नेशनल कम्युनिस्ट पार्टी" के नाम सम्बन्धी एक तीन साल पुराने केस में फैसला देने वाला है।
चुनाव आयोग में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का पंजियन ऋषिराम कट्टेल नाम से किया गया था। जब चुनाव आयोग ने ओली-दहल के नेतृत्व वाली नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को "Nepal Communist Party (NCP)" के नाम से पंजीकृत करने के लिए हामी भर दी तो कट्टेल दिसंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया।
अगर कोर्ट कट्टेल के पक्ष में फ़ैसला देता है तो इसका मतलब है कि ओली और दहल-नेपाल धड़े जिस Nepal Communist Party (NCP) के लिए झगड़ रहे हैं वो अमान्य हो जाएगी। इसका मतलब है फिर से विलय के पूर्व की स्थिति जब यूएमएल और माओइस्ट सेंटर वजूद में थे।
फिलहाल तो दहल-नेपाल धड़ा विकल्प रहित ही दिखाई देता है।
संविधान के जानकार कहते हैं कि सदन शुरू होने के बाद ही चीज़ें साफ़ होंगी। उनके अनुसार, ओली ने धारा 76 (1 ) के तहत सरकार बनाई थी लेकिन चूंकि सदन को बर्खाश्त करने का कदम पलट दिया गया है और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में साफ़ तौर पर दो धड़े हो चुके हैं इसलिए एक नई प्रक्रिया शुरू की जा सकती है।
संविधान के जानकार और एक वरिष्ठ वकील चंद्र कान्ता ग्यावली ने कहा,"धारा 76(1) के तहत गठित सरकार के फैसले को उलटने का मतलब है कि ऐसी सरकार को हार का सामना करना पड़ा है। अब ओली के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की ज़रुरत भी नहीं है। 138 सदस्यों के समर्थन का दावा करने वाला कोई भी सांसद अब राष्ट्रपति के पास जा कर धारा 76 (2) के तहत नई सरकार बनाने का दावा पेश कर सकता है।"
धारा 76 (2) कहती है -धारा (1) के तहत निचले सदन (हाउस ऑफ़ रेप्रेज़ेन्टेटिव्स) में अगर किसी भी दल को बहुमत नहीं हासिल है तो राष्ट्रपति निचले सदन के किसी ऐसे सदस्य को प्रधानमंत्री बना सकता है जो निचले सदन के दो या अधिक दलों का समर्थन हासिल कर बहुमत पा सकता हो।
"धारा 76 (2) के तहत सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए किसी सांसद को संसदीय दल का नेता होना भी ज़रूरी नहीं है।"
लेकिन धारा 76 (2) के तहत अगर कोई सांसद प्रधानमंत्री चुना जाता है तो उसे 30 दिनों के भीतर सदन का विश्वास मत हासिल करना होगा। इसके लिए दहल-नेपाली धड़े और नेपाली कांग्रेस को एक साथ आना होगा।
Kathmandu University School of Law के पूर्व डीन बिपिन अधिकारी के अनुसार बहुत कुछ कांग्रेस पार्टी पर निर्भर करता है।
अधिकारी ने काठमांडू पोस्ट से कहा,"यह कांग्रेस पार्टी को तय करना है कि वो 'किंग' बनना चाहती है या 'किंगमेकर'। सरकार बनवाने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इसकी वजह से चुनाव ज़रूरी बन सकता है। स्थायित्व प्रदान करने और क़ानून के शासन के लिए सबसे बढ़िया रास्ता निकालना ही पार्टी का उद्देश्य होना चाहिए।"
हालाँकि राजनीतिक दिक्कतें ज़्यादातर राजनीतिक वैधता खो देने के बावजूद ओली द्वारा पद से इस्तीफ़ा न देने के चलते हुई हैं।
दहल-नेपाल धड़े की ये आम समझ थी कि सदन के बहाल होने पर ओली नैतिक आधार पर इस्तीफ़ा दे देंगे।
अब जबकि ओली इस्तीफ़ा देने से मना कर रहे हैं उनके प्रधानमंत्री बने रहने की पूरी सम्भावना है। हाँ,बात बदल सकती है अगर दहल-नेपाल धड़ा कोई अनजान चाल चलता है तो।
ग्यावली के अनुसार, दहल-नेपाल धड़े की कमज़ोरियाँ और Nepal Communist Party की वैधता सम्बन्धी विवाद को सुलझाने में चुनाव आयोग की देरी भी उलझन की स्थिति पैदा कर रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर नेपाली कांग्रेस और जनता समाजबादी पार्टी दहल-नेपाल धड़े के साथ आने से मना करते हैं तो ओली तब तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे जब तक कि कानून या बजट पास करते समय कोई नई स्थिति पैदा नहीं होती है।
अधिकारी बोले,"चूंकि यह सरकार एक प्रभारी की हैसियत में है इसे ऐसी सरकार ही समझना चाहिए जिसने पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया है,और इसलिए ओली को इस्तीफ़ा देने की ज़रुरत नहीं है। सवाल यह है कि राष्ट्रपति इस स्थिति से कैसे निपटते हैं। "
(टीका आर प्रधान की यह रिपोर्ट मूल रूप से अंग्रेजी में काठमांडू पोस्ट में प्रकाशित।)