निडर आंखों को घूरते हुए अंदर से काँप रहा समाज, पुरुषत्व इतना असुरक्षित कि इतनी तीव्रता से पिघल रहा...

युवा कवि शशांक शेखर की कविता 'संसार कुछ और नहीं'
संसार कुछ और नहीं
पुरुष मनस का विस्तार
जिसे कभी संघर्ष भी बोला गया
वो और कुछ नहीं
महत्वाकांक्षाओं का आरोपण
शहर की नसों में जो दौड़ रही
वो आपाधापी, पसीने की पूरी नहर एक
कुछ और नहीं वो
पुरुषत्व की जीती जागती संस्कृति
पूर्वाग्रहों का रसातल
इस अभागे पल में लगाने वाले अंकुश
बच्चे!
अपने अबूझ प्रश्नों
की श्रृंखलाएं लिए
औरतें!
जो अपने श्रम की सही
क़ीमत ना माँग सकीं
अपवाद के नाम पर जंगल
प्रच्छंन एवं प्रांजल
घने वृक्षों की शाखाओं को थामे आदिवासी
चुनौती की तरह आखें दिखाता प्रेम
अखबार का वो फिल्मी पन्ना
घरों में रोज़ दस्तक देती नौकरानियाँ
या फिर यकायक बीच सड़क के
किसी गाय का बैठ जाना
इन चुनिंदा लम्हों के अलावा
और कहाँ जहाँ विषैली मर्दानगी न हो
जिसे पुरुषार्थ बोला गया
वो कुछ और नहीं
सहानुभूतिपूर्ण लिंगभेद ही
फिर समाज रुग्ण बताया जा रहा
तो डॉक्टर भी पुरुष
युद्ध का होता उद्घोष अगर
तो शासक भी पुरुष
चाँद पर पैर रखने से लेकर
मर्यादा पर हाथ रखने तक
जहाँ नज़र आ रहा
सिर्फ़ पुरुष
फिर अकेली निरीह काया से
भयभीत क्यों भला?
केवल बहस में उसकी शिरकत से
या उसके दृष्टिकोण से ही
या फिर बोलने बतियाने से उसके
गुस्ताखी भला किस बात की?
आज उसकी
निडर आखों को घूरते हुए
अंदर से काँप रहा समाज
पुरुषत्व इतना असुरक्षित
कि इतनी तीव्रता से पिघल रहा
ये इतने सेना के साजो सामान परेड में
निर्लज्जता से दिखाते हुए भी
विश्व पर विजय पा लेने की
घिनौनी हसरत को पालते हुए भी
पुरुष निरुपाय
किसी दामन की ओट में
मिमियाने और कराहने को आतुर
संसार…
कल्पतरु सा समस्त
इच्छायें पूर्ण करता भी
अनासक्त सदा से
अनछुआ और निर्लिप्त!





