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राष्ट्रीय

M. Venkaiah Naidu: उपराष्ट्रपति महोदय, तो यह मान लिया कि आप उपराष्ट्रपति नहीं, संघ के कार्यकर्ता हैं

Janjwar Desk
20 March 2022 5:52 AM GMT
M. Venkaiah Naidu: उपराष्ट्रपति महोदय, तो यह मान लिया कि आप उपराष्ट्रपति नहीं, संघ के कार्यकर्ता हैं
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M. Venkaiah Naidu: बिहार लेनिन शहीद जगदेव प्रसाद ने 1970 के दशक में कहा था– “हमारी पहली पीढ़ी मारी जाएगी, दूसरी पीढ़ी जेल जाएगी और तीसरी पीढ़ी राज करेगी।

नवल किशोर कुमार की टिप्पणी

M. Venkaiah Naidu: बिहार लेनिन शहीद जगदेव प्रसाद ने 1970 के दशक में कहा था– "हमारी पहली पीढ़ी मारी जाएगी, दूसरी पीढ़ी जेल जाएगी और तीसरी पीढ़ी राज करेगी।" मैं नहीं जानता कि जब वे ऐसा कह रहे थे तो उनकी जेहन में आरएसएस था या नहीं। मैं यह भी नहीं जानता कि पीढ़ी शब्द से उनका आशय क्या था। वैसे देखें तो जगदेव प्रसाद मारे गए, उनकी दूसरी पीढ़ी के लालू प्रसाद को जेल की सजा काटनी पड़ रही है और तीसरी पीढ़ी अब भी सत्ता के लिए संघर्ष कर रही है। रही बात सत्त की तो वह अब भी सवर्णों के हाथ में ही है। हालांकि सीएम पर पद आसीन व्यक्ति कुरमी जाति का है, लेकिन वह सवर्णों का एजेंट ही है।

जगदेव प्रसाद ने उपरोक्त बात बिहार के संदर्भ में ही कही होगी। भारत के स्तर पर तो लड़ाई बहुत विस्तृत है। हालत यह है कि भारत के राष्ट्रपति भले ही दलित समुदाय के हैं, लेकिन वह भी स्वयं को राष्ट्रपति से अधिक आरएसएस का कार्यकर्ता कहलाना पसंद करते हैं। प्रधानमंत्री तो खुलेआम आचरण भी प्रधानमंत्री से अधिक आरएसएस के प्रचार मंत्री जैसा करते हैं। संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों में अपने पद के विपरीत व्यवहार करनेवालों में उपराष्ट्रपति वेंकैयानायडू भी हो गए हैं, जिन्हें उपराष्ट्रपति बनाकर नरेंद्र मोदी ने उनकी राजनीतिक हत्या कर दी है। जाहिर तौर पर एक बार उपराष्ट्रपति बनाए जाने के बाद वे राष्ट्रपति बनने की उम्मीद तो कर सकते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री बनने का सपना भी नहीं देख सकते, जबकि भारतीय राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री के बीच का भेद वह बखूबी जानते हैं।

दरअसल, वेंकैयानायडू के पास अब केवल एक ही राजनीतिक संघर्ष शेष है और यह है राष्ट्रपति पद हासिल करने का संघर्ष। दरअसल इसी वर्ष राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होने हैं और इस बात की पूरी संभावना है कि मोहन भागवत और नरेंद्र मोदी इस बार किसी बड़े संघी को भारत का राष्ट्रपति बनाएं ताकि 2024 की राह और आसान हो सके।

लेकिन दावेदारी पेश करना तो सभी का अधिकार है। सो वेंकैयानायडू इन दिनों यही कर रहे हैं। कल ही उन्होंने इसका शानदार उदाहरण पेश किया है। कल एक ब्राह्मणों के वर्चस्व वाले शिक्षण संस्थान (आरएसएस का संस्थान) के कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे। वे प्रथम पुरुष की भाषा में बोल रहे थे– "हम पर शिक्षा के भगवाकरण का आरोप लगता है। लेकिन भगवा में गलत क्या है?"

जाहिर तौर पर वह व्यक्ति जो कि उपराष्ट्रपति के पद पर बैठा है, यदि वह इस पद की गरिमा को समझता और यदि वह भारत को समझता तो निश्चित तौर पर यह कहने से परहेज करता। कल ही मेरी बात एक वरिष्ठ पत्रकार से हो रही थी। उनका कहना था कि यह सवाल तो वेंकैया नायडू से किया ही जाना चाहिए कि उनके पोते-पोतियां कहां की छात्र-छात्राएं हैं?

मतलब यह कि उनके अपने परिजन विदेशों में अध्ययन कर रहे हैं। गाय-गोबर-गौमूत्र भारत के बहुसंख्यक दलित-बहुजनों के लिए है। वेद, जिनमें केवल और केवल ब्राह्मण वर्चस्ववाद को बनाए रखने के सारे तिकड़म भरे हैं, बहुसंख्यक दलित-बहुजन पढ़ें। वे अंग्रेजी से दूर रहें। यदि दलित-बहुजन अंग्रेजी पढ़ेंगे तो वे आगे बढ़ेंगे और आगे बढ़ेंगे तो ब्राह्मणों का वर्चस्व टूटेगा। वैसे इस वर्चस्व को कड़ी चुनौती तो मिल ही चुकी है। यदि ऐसा नहीं होता तो आरएसएस को 'बिलो द बेल्ट' राजनीति नहीं करनी पड़ती।

बहरहाल, मैं भी यही मानता हूं कि आज बहुसंख्यक वर्ग के एक छोटे हिस्से के पास ही सही, फुले, आंबेडकर और पेरियार की वैचारिकी है। इस वैचारिकी का दिन-ब-दिन विस्तार हो रहा है। कल ही सूचना मिली कि पेरियार के साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने सलाना पांच करोड़ रुपए खर्च करने का निर्णय लिया है। इस योजना के तहत स्टाालिन सरकार पेरियार के साहित्य का अनुवाद बीस भाषाओं में कराएगी। वैसे ही आंबेडकर का साहित्य रोज-ब-रोज विस्तार पा रहा है। यह इसके बावजूद कि आरएसएस को फिलहाल चुनावी राजनीति में सफलता मिल रही है, लेकिन सच तो मोहन भागवत भी जानते हैं कि यह जीत केवल झाग है, जिसे उन्होंने गंगा-जमुना के पानी में धर्म का जहर घोलकर तैयार किया है।

खैर, मैं जगदेव प्रसाद के बारे में सोच रहा हूं। बिहार के अधिकांश दलित-बहुजन नेताओं ने संघ को कमतर समझा है। यहां तक कि कर्पूरी ठाकुर जैसे नेता भी आरएसएस को मजबूत बनाने में महती भूमिका निभा रहे थे। लालू प्रसाद ने 1990 के दशक में ब्राह्मणवाद के खिलाफ अच्छा संघर्ष दिखाया, लेकिन वे अंतत: इस सामाजिक-राजनीतिक युद्ध में परास्त कर दिए गए और फिलहाल युद्धबंदी के रूप में जेल में हैं।

कुल मिलाकर यह कि सामाजिक न्याय की राजनीति को एक नये नेतृत्व की आवश्यकता है जो संघ से केवल राजनीतिक मोर्चें पर ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक मोर्चे पर भी लड़े तथा उसे परास्त करे।

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