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कानपुर विकास प्राधिकरण में 3500 करोड़ का घोटाला, जांच के नाम पर नप सकते हैं अधिकारी
मनीष दुबे की रिपोर्ट
कानपुर। उत्तर प्रदेश की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का ऐसा घुन लग चुका है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिये भी इस पर कंट्रोल करना मुश्किल साबित हो रहा है। अधिकारी सालों से चले आ रहे इस खेल को खत्म करने में तनिक भी दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। भ्रष्टाचार से जुड़े लाखों मामलों में शिकायतों के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है। जो मामले मुख्यमंत्री की संज्ञान में आते हैं, उनको छोड़कर ज्यादातर मामले किसी अंजाम तक नहीं पहुंच पाते हैं।
ऐसा ही एक मामला कानपुर में अरबों रुपये के भूमि घोटाले से जुड़ा हुआ है। डेढ़ दशक पुराने इस मामले में कानपुर विकास प्राधिकरण एवं कानपुर नगर निगम के अधिकारियों की मिलीभगत के चलते सरकार को करोड़ों रुपये की चपत लगी। शुरुआती शिकायत के बाद इस मामले में कानपुर विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष को निलंबित भी किया गया था, लेकिन इस मामले में लीज की जमीन पर खेल करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अरबों की रुपये की जमीन कानपुर विकास प्राधिकरण एवं नगर निगम के अधिकारियों की मिलीभगत से कौडि़यों के दाम बिक गई।
राज्य सरकार को भले ही अरबों का नुकसान हो गया, लेकिन आरोप है कि इस खेल में शामिल अधिकारियों के हिस्से मोटी रकम आई। पूरे खेल की शिकायत होने के बावजूद दस महीने से फाइल मुख्यमंत्री कार्यालय में धूल फांक रही है। अब तक इस मामले में कोई कार्रवाई होती नजर नहीं आ रही है। आखिर अब किसी घपले-घोटाले की शिकायत मुख्यमंत्री कार्यालय तक पहुंचाने के बाद भी आदमी किससे न्याय की उम्मीद करे?
कानुपर इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट ने 14 सितंबर 1939 को बाबू श्याम सुंदर लाल, बाबू मदन मोहन लाल तथा बाबू जगमोहन लाल को लक्ष्मण बाग नामक 24.92 एकड़ जमीन ग्रीन बेल्ट यानी बगीचे के विशेष लिखित उद्देश्य के लिये 50 रुपये सालाना भाड़े पर 99 साल की लीज पर दी। इस लीज डीड की धारा 7 एवं 11 अनुसार इस भूमि का प्रयोग सिर्फ ग्रीन बेल्ट के लिये किया जाना था। लीज डीड के अनुसार इस भूमि को कोई भी अन्य प्रयोग किया जाना वर्जित था।
इस लीज डीड की धारा 4 के अनुसार पट्टाधारक लक्ष्मण बाग नामक इस बगीचे में सिर्फ एक हजार वर्गगज भूमि में बगीचे के रखरखाव हेतु कर्मचारियों के लिये अस्थायी निवास के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार की निर्माण की मनाही थी। इस जमीन पर सात साल तक ये तीनों लोग काबिज रहे। 12 फरवरी 1946 को लक्ष्मण बाग को उपरोक्त तीनों लोगों ने लक्ष्मण बाग की जमीन लाला कैलाश पति सिंहानिया पुत्र स्व. लाला कमलापत सिंहानिया केयर ऑफ जुग्गीलाल कमलापत कॉटन स्पिनिंग एंड वीविंग मिल्स कंपनी लिमिटेड को विक्रय कर दिया। इस विक्रय के साथ उक्त पट्टा से जुड़े सभी लीज डीड की शर्तें एवं अनुबंध जुग्गीलाल कमलापत कॉटन स्पिनिंग एंड वीविंग मिल्स कंपनी लिमिटेड पर लागू हो गये।
कई दशक तक कंपनी ने यथास्थिति बनाये रखी, लेकिन 3 अप्रैल 2004 को एकाएक कानपुर विकास प्राधिकरण ने लक्ष्मण बाग की पट्टे वाली उक्त जमीन का नामांतरण जुग्गीलाल कमलापत कॉटन स्पिनिंग एवं वीविंग मिल्स कंपनी लिमिटेड के पक्ष में कर दिया। 27 अप्रैल 2004 को उक्त 24.92 एकड़ जमीन का निजी स्वामित्व उक्त कंपनी को प्रदान करने का आदेश देकर 21 मई 2004 को उक्त जमीन कंपनी को बेच दिया गया। इस फ्रीहोल्ड डीड में कानपुर विकास प्राधिकरण ने लीज डीड में उल्लेखित शर्तों एवं प्रतिबंधों का कोई जिक्र नहीं किया। कानपुर विकास प्राधिकरण ने जुग्गीलाल कॉटन मिल से 6,379 रुपये की नगण्य धनराशि लेकर कानपुर महानगर के पॉश इलाके स्वरूप नगर में स्थित लक्ष्मण बाग के लगभग 25 एकड़ जमीन को मात्र तीन हजार रुपये के स्टॉम्प पेपर पर बेच दिया।
कानपुर विकास प्राधिकरण के इस खेल के खिलाफ तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से शिकायत की गई। मुख्यमंत्री के तत्कालीन प्रमुख सचिव ने इस मामले की जांच कर कार्रवाई करने के निर्देश दिये। प्रारंभिक जांच में गड़बड़ी पाये जाने पर तत्कालीन उपाध्यक्ष कानपुर विकास प्राधिकरण एवं आईएएस अधिकारी हीरालाल यादव को निलंबित कर दिया गया। साथ ही तत्कालीन महाधिवक्ता को इस विषय में अपना अभिमत प्रस्तुत करने को कहा गया।
महाधिवक्ता ने 1 सितंबर 2004 को प्रमुख सचिव को दी गई अपनी रिपोर्ट में विवरण सहित इस बात का उल्लेख किया कि कानपुर विकास प्राधिकरण द्वारा जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल के पक्ष में किया गया नामांतरण फ्रीहोल्ड डीड वैध नहीं है। महाधिवक्ता की रिपोर्ट के बावजूद कानपुर विकास प्राधिकरण ने जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल को किया गया नामांतरण एवं फ्रीहोल्ड रद्द करने की कोई कार्रवाई नहीं की। इतना ही नहीं इससे भी आगे जाते हुए कानपुर विकास प्राधिकरण ने इस बगीचे पर इमराल्ड गार्डन नाम की टॉऊनशिप का मानचित्र भी स्वीकृत कर दिया। कानपुर विकास प्राधिकरण के इस खेल से सरकार को अरबों रुपये की क्षति हुई है।
कानपुर विकास प्राधिकरण ने पॉश इलाके में मौजूद लगभग 25 एकड़ जमीन को मात्र 6,379 रुपये यानी पांच पैसे प्रति वर्गगज के हिसाब से बेच दिया, जबकि वर्तमान समय में इस जमीन की कीमत डेढ़ से दो लाख रुपये प्रतिवर्ग गज वसूली जा रही है। इस लिहाज से देखें तो इस 24.92 एकड़ जमीन से सरकार को 1946 से स्वामित्व देने तक मात्र 12,279 रुपये की आमदनी हुई, जबकि जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल को अपनी सहयोगी संस्था के माध्यम से जमीन की बिक्री करने पर अनुमानत: 1800 करोड़ रुपये से ज्यादा की आमदनी होने का अनुमान है।
खेल नम्बर दो : इतना ही नहीं, जुग्गीलाल कमलापत कॉटन स्पीनिंग एंड वीविंग मिल्स कंपनी लिमिटेड ने नगर महापालिका के साथ मिलकर एक और खेल किया, जिससे प्रदेश सरकार को अरबों रुपये का चूना लगा। 18 मार्च 1961 को तत्कालीन सरकार के निर्देशानुसार कानपुर नगर महापालिका ने यूपी में रोजगार सृजन एवं औद्योगिकरण के लिये जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल को जाजमऊ में 90.818 एकड़ की विशाल भूमि मात्र एक रुपये प्रतिवर्ष पट्टे किराये पर 999 वर्ष की लीज दी। यह लीज विशेष रूप से जूट मिल चलाने के लिये दी गई।
लीज डीड की धारा 2 (के) के अनुसार इस जमीन पर रेयान फैक्ट्री के अलावा कोई दूसरा कार्य सर्वथा वर्जित किया गया था। इसी लीज की धारा 2 (क्यू) के अनुसार जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल को रेयान फैक्ट्री के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य करने की दशा में इस जमीन को नगर महापालिका को कब्जा वापस दे देना था अन्यथा जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल को वर्तमान बाजार दर पर 90.819 एकड़ जमीन का मूल्य भुगतान नगर महापालिका को करना था। इस लीज डीड की धारा 2 (ए) के अनुसार इस विशाल भूमि के कुछ हिस्सों में कब्रिस्तान था, जिसमें कॉटन मिल द्वारा आवागमन बाधित नहीं किये जाने की शर्त शामिल थी।
वर्ष 1991 में जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल ने पट्टे पर ली गई इस भूमि पर जेके रेयान उद्योग को बंद कर दिया। इसके साथ ही इस जमीन को लेकर हुआ पट्टा के उद्देश्य खत्म हो गया। इस तरह लीज डीड की धारा 2 (क्यू) प्रभावी हो गई, जिसके तहत कानपुर नगर महापालिका का री-इंट्री का प्रावधान ओर अधिकार था, परंतु कंपनी ने ना तो इस भूमि का कब्जा कानपुर नगर महापालिका को वापस किया और ना ही इस जमीन के वर्तमान दर के हिसाब से भुगतान किया। एकाएक 10 फरवरी 2011 को कानपुर विकास प्राधिकरण ने जुग्गीलाल कमलापत कॉटर स्पिनिंग एंड वीविंग मिल्स कंपनी लिमिटेड के पक्ष में इस विशाल भूमि का नामांतरण कर दिया तथा इसके पश्चात इस जमीन का निजी स्वामित्व कंपनी को प्रदान कर दिया।
14 फरवरी 2011 को कानपुर विकास प्राधिकरण ने कंपनी से मात्र 16,515 रुपये की नगण्य धनराशि लेकर 1500 रुपये के स्टाम्प पेपर पर इस 90.818 एकड़ विशाल भूमि को बेच दिया। इस फ्री होल्ड डीड में लीज डीड की शर्तों एवं प्रतिबंधों का कोई उल्लेख नहीं किया गया। साथ ही नियमों की अनदेखी करते हुए चारागाह और कब्रिस्तान की जमीन भी कंपनी को सौंप दी गई, जबकि खुद कानपुर विकास प्राधिकरण ने फ्री होल्ड डीड के साथ संलग्न मानचित्र में कब्रिस्तान का स्थान दिखाया है। 2017 में इस मुफ्त की मिली जमीन पर कानपुर विकास प्राधिकरण ने इमराल्ड गुलिस्तान नामक विशाल रियायशी एवं व्यवसायिक टाउनशिप का मानचित्र स्वीकृत कर दिया, जबकि कानपुर की महायोजना में इस भूमि का भू प्रयोग औद्योगिक है।
जाहिर है कि 1961 में राज्य सरकार से जिस औद्योगिक विकास के लिये इस जमीन को मात्र एक रुपये की वार्षिक किराये पर पट्टा लिया गया था, जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल ने उसे विपरीत जाते हुए लगभग इसे मुफ्त में ले लिया। 1961 से 2011 में फ्री होल्ड होने तक इस जमीन के लिये यूपी सरकार को मात्र 18,065 रुपये की आमदनी हुई, जबकि वर्तमान में ये जमीन 40 से 50 हजार प्रतिवर्ग गज की दर बेची जा रही है। इस हिसाब से 90.818 यानी 4,39,560 वर्ग गज जमीन की कीमत लगभग 1758 करोड़ रुपये होती है। इस खेल के एवज में तत्कालीन एवं वर्तमान अधिकारियों को भी मोटी रकम मिलने का आरोप है। अगर ईमानदारी से जांच की जाये तो इस खेल में शामिल कई मोहरे सामने आयेंगे, जिनकी मिलीभगत से अरबों की सरकारी जमीन हजारों में बिक गई।
अधिकारियों की मिलीभगत
जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल के मामले में जिम्मेदार अधिकारियों की भूमिका पूरी तरह संदिग्ध रही। उन्होंने बीआईएफआर के वर्ष 2002 में हुए आदेश का पूरी तरह दुरुपयोग किया। इस आदेश के जरिये शासन को भ्रमित कर जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल को लाभ पहुंचाया गया। इस मामले से जुड़े तत्कालीन एवं वर्तमान अधिकारियों ने उपरोक्त दोनों प्रकरणों में कोई विरोध नहीं किया, जिसका सीधा मतलब है कि इस पूरे खेल में इन अधिकारियों की भी मौन सहमति रही होगी। साथ ही इन्होंने इस गड़बड़ी में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया।
जनसुनवाई पोर्टल पर हुई शिकायत के क्रम में तत्कालीन उपाध्यक्ष कानपुर विकास प्राधिकरण के विजयेन्द्र पांडियन ने इसे निस्तारित करते हुए लिखा - कंपनी के रुग्ण होने के कारण मामला माननीय बीआईएफआर नई दिल्ली के समक्ष प्रस्तुत हुआ था, जिस पर माननीय बीआईएफआर ने रुग्ण औद्योगिक कंपनियों को (विशेष प्रवधान) अधिनियम 1985 के अंतर्गत आदेश दिनांक 12.12.2002 के द्वारा कंपनी को रुग्ण औद्योगिक इकाई के रूप में पुनर्वास एवं पुनर्रुद्धार हेतु कंपनी की उपरोक्त भूमि सहित सम्पतियों को फ्री होल्ड एसं भू परिवर्तन हेतु राज्य सरकार एवं अन्य संबंधित विभागों, बैकों, निकायों आदि को आदिेशित किया गया तथा इस प्रकार विभिन्न प्रकार की छूट एवं रिययतें कंपनी को प्रदान की गई।
दिलचस्प पहलू यह है कि बीआईएफआर के आदेश में रुग्ण कंपनी को अपनी निजी जमीन को बेचने का निर्देश दिया गया था, ना कि सरकारी जमीन को खरीदने की या फ्री होल्ड कराने की, लेकिन अधिकारियों ने शासन को अंधेरे में रखकर बीआईएफआर के आदेश का मतलब ही उलट दिया। जिस बीआईएफआर का हवाला देते हुए जमीन बेचने के आदेश को सही कहा गया, उस हिसाब से जुग्गीलाल कमालपत कॉटन मिल को जमीन बेचनी चाहिए थी, लेकिन उक्त मिल ने सरकार से जमीन खरीदी यानी फ्रीहोल्ड कराई, यानी कि बीएफआईआर के आदेश के अनुसार यह सही नहीं था। वैसे भी, जब बीआईएफआर ने यह आदेश दिया था तब जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल इन दोनों जमीनों का मालिक नहीं था, बल्कि उसका मालिकाना हक सरकार के पास था, जिसे जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल को रेयान मिल और बगीचे के विशेष वर्णित उद्देश्य के तहत दिया गया था।
बीआईएफआर का 2002 का आदेश इसके पूर्व की संपत्तियों के लिये था, जबकि जुग्गीलाल कमलापत कॉटन मिल क्रमश: 2004 एवं 2011 में इन जमीनों को सरकार से फ्रीहोल्ड कराया। इसलिये बीआईएफआर का आदेश उक्त दोनों संपत्तियों पर किसी भी प्रकार से प्रभावी नहीं था। जिस बीआईएफआर के हवाले से उपाध्यक्ष ने मामले को सलटाया, उसमें स्पष्ट कहा गया था कि रुग्ण कंपनी अपनी अतिरिक्त भूमि बेचने में रियायत प्रदान करने को कहा गया था, ना कि सरकारी भूमि को खरीदने में रियायत देने की बात कही गई थी। ना ही इस आदेश में किसी कंपनी को सरकारी भूमि फ्रीहोल्ड कराने के संदर्भ में कोई छूट, रियायत या लीज डीड की शर्तों का उल्लंघन करने का आदेश दिया गया था।
अधिकारी हैं जादा भारी
इन दोनों मामलों की जांच अगर ईमानदारी से करा ली जाये तो कई अधिकारी नप सकते हैं। मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में तो केडीए के तत्कालीन उपाध्यक्ष को निलंबित भी किया गया था। पर बाद में मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। अगर 25 एकड़ के बगीचे वाली जांच अपने अंजाम तक पहुंची होती तो 90 एकड़ जमीन में खेल करने की हिम्मत अधिकारियों की नहीं होती, लेकिन अधिकारी भ्रष्टाचार करने के बावजूद राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव में बच निकलने में सफल रहे। योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद निराश लोगों में उम्मीद जागी है।
शिकायतकर्ता अजय सिंह अज्जू ने यह भी मांग की है कि मुख्यमंत्री खुद की देखरेख में इस मामले की जांच करायें। धोखाधड़ी करने वाली कंपनी से जुर्माना के साथ वसूली की जाये या फिर इस जमीन को कानपुर नगर निगम को वापस दिलवाकरक इसे ग्रीन बेल्ट या फिर सार्वजनिक सुविधा स्थल के रूप में विकसित की जाये। शिकायतकर्ता अजय सिंह अज्जू ने सरकार और मुख्यमंत्री से अपने जान माल की सुरक्षा की गुहार भी की है।
(लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह से मिले ईनपुट के साथ)