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राष्ट्रीय

जूही चावला पर 20 लाख रुपये का जुर्माना क्यों लगा, पढ़िए 5G की पूरी कहानी

Janjwar Desk
4 Jun 2021 3:05 PM GMT
जूही चावला पर 20 लाख रुपये का जुर्माना क्यों लगा, पढ़िए 5G की पूरी कहानी
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फिल्म अभिनेत्री जूही चावला ने देश में 5जी को लागू करने के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया था जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया है...

हृदयेश जोशी की रिपोर्ट

जनज्वार। सरकार की घोषणा के करीब दो साल बाद अब देश में 5जी वायरलेस नेटवर्क के ट्रायल शुरू हो रहे हैं। सरकारी कंपनियों एमटीएनएल के अलावा निजी कंपनियों भारती एयरटेल, रिलायंस जियो इंफोकॉम और वीआई (पूर्व में वोडाफोन) अगले 6 महीने तक इसका ट्रायल करेंगे। लेकिन 5जी की राह इतनी आसान नहीं है। इसमें आर्थिक, ढांचागत और व्यवहारिक समस्याएं जुड़ी हुई हैं। इसके साथ ही 5जी टेक्नोलॉजी के कारण लोगों की सेहत से जुड़ी शंकाएं भी बार-बार सिर उठा रही हैं।

फिल्म अभिनेत्री जूही चावला ने 31 मई को देश में 5जी को लागू करने के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। चावला के मुताबिक वह आधुनिक टेक्नोलॉजी के खिलाफ नहीं हैं लेकिन इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि 5जी रेडिएशन बहुत नुकसानदेह और सेहत के लिये हानिकारक है। कोर्ट ने हालांकि इसे खारिज करते हुये जूही चावला पर 20 लाख रुपये का जुर्माना लगाया लेकिन दुनिया भर में 5जी का विस्तार कई पहलू समेटे है और इसके आने से संचार टेक्नोलॉजी की दुनिया में नई क्रांति हो सकती है।

क्या है 5जी टेक्नोलॉजी

5जी टेक्नोलॉजी दूरसंचार में बेहतर परफॉर्मेंस की ओर एक क़दम है। इसके जरिए वह सब कुछ साकार हो सकता है जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दायरे में आता है। इसमें उपभोक्ता को 10 से 50 गुना तक अधिक स्पीड मिल सकती है और बिजली की कम खपत होती है। मौजूदा 4जी नेटवर्क से इसकी तुलना करें तो जहां 4जी 600 से 700 मेगाहर्ट्ज फ्रीक्वेंसी (इसकी फ्रीक्वेंसी 2.5 गीगाहर्ट्ज तक हो सकती है) पर काम करता है वहीं 5जी 450 मेगाहर्ट्ज से 6 गीगाहर्ट्ज और उससे ऊपर की फ्रीक्वेंसी पर चलता है। मिलीमीटर वेव 5जी फ्रीक्वेंसी तो 80 से 90 गीगाहर्ट्ज तक भी हो सकती है।

5जी: संभावनाएं और चुनौतियां

5जी नेटवर्क बिछने के बाद दुनिया भर में रिमोट सर्जरी, बिना ड्राइवर की कार, एडवांस सुरक्षा प्रणाली, वीडियो मॉनिटरिंग और मोबाइल क्लाउड कम्प्यूटिंग मुमकिन हो जायेगी। इसमें बहुत तेज़ (सेंकड के छोटे से हिस्से में) डाटा ट्रांसफर होगा। इसीलिये इसे मानव इतिहास की सबसे बड़ी क्रांति माना जा रहा है। अभी दुनिया के 60 से अधिक देशों में करीब 150 कंपनियां 5जी नेटवर्क चला रही हैं और इसके साथ अंतरिक्ष में अपने उपग्रहों के ज़रिये दबदबे की नई जंग शुरू हो गई है।

हालांकि 5जी नेटवर्क को लेकर यह चिन्ता जताई गई है कि इसमें प्राइवेसी में दखल देने और जासूसी करने की अपार संभावनायें हैं. इसे 4G से अधिक सुरक्षित माना जाता है लेकिन अमेरिका की पर्डू यूनिवर्सिटी और आयोवा यूनिवर्सिटी के सुरक्षा पर शोध करने वालों ने नेटवर्क में कुछ कमजोरियां पाई जिससे 5जी को आम जनता के लिए लागू करने पर आशंकाएं खड़ी हो गई हैं। शोध से पता चला है कि 5G की ज़बरदस्त स्पीड का फायदा उठाकर किसी पर लगातार (रियल टाइम) नज़र रखी जा सकती है और मनचाहे तरीके से आपातकालीन सेवाओं से भी खिलवाड़ किया जा सकता है।

आज दुनिया की कई बड़ी कंपनियों में लो अर्थ ऑर्बिट (लियो) में उपग्रह स्थापित करने की होड़ है। मिसाल के तौर पर अमेरिकी इलेक्ट्रिक कार कंपनी टेस्ला के मालिक ईलॉन मस्क ने अंतरिक्ष में 12,000 से अधिक सैटेलाइट भेजने की योजना बना ली है। भारत में अब 5जी के ट्रायल शुरू हो रहे हैं और माना जा रहा है कि साल के अंत तक इसकी शुरुआत हो जायेगी। हालांकि देश में इसका फैलाव बड़ी चुनौती है। ऊंची कीमत पर स्पेक्ट्रम की प्रस्तावित नीलामी पहली बड़ी वजह है। आईटी क्षेत्र की कंपनियां अभी 5जी की डिमांड को लेकर आशंकित हैं और इसलिये निवेश को सीमित रखना चाहती हैं। सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) भी कह चुकी है कि अगर स्पेक्ट्रम की कीमत कम रखी जाये तो कंपनियों को नेटवर्क फैलाने के लिये संसाधन जुटाने में आसानी होगी।

टेलीकॉम मामलों के जानकार और कॉमफर्स्ट इंडिया के निदेशक महेश उप्पल कहते हैं, "भारत में स्पेक्ट्रम की नीलामी न हो पाने के कारण 5जी की शुरुआत अभी तक नहीं हो पाई है। कंपनियां सरकार से कह रही हैं कि जब तक आप कीमतें कम नहीं करते हम नीलामी में हिस्सा नहीं लेंगे। इस बारे में कोई आधिकारिक सूचना नहीं है लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से सरकार अभी टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी (ट्राई) से नई सिफारिशें मांग कर कीमतें कम करने की कोशिश में है।"

ज़ाहिर है कि अगर कंपनियां महंगा स्पेक्ट्रम खरीदेंगी तो उपभोक्ता को सेवायें भी ऊंची दरों पर ही मिलेंगी। 5जी के लिये बाज़ार (टारगेट कन्जूमर्स) ढूंढ़ना कंपनियों के लिये इसलिये भी चुनौती है क्योंकि ये काफी चुनिंदा सेवाओं के लिये होगा। इस नेटवर्क की स्पीड मौजूदा 4जी से 10 गुना या उससे भी अधिक होगी लेकिन उपभोक्ताओं को ऊंची कीमतों के साथ काफी महंगे हैंडसेट खरीदने पड़ेंगे। इसके लिये जो टॉवर लगेंगे वह भी अलग किस्म के होंगे और बड़ी संख्या में लगाने होंगे। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (बिना ड्राइवर की कार) के लिये 5जी काफी उपयोगी है लेकिन ऐसी सेवाएं भारत में अभी संभव नहीं हैं।

उप्पल कहते हैं, "मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आगे 5जी की मांग नहीं बढ़ेगी या बाज़ार नहीं फैलेगा लेकिन अभी इसकी मांग काफी कम है। ज़ाहिर है कि ये शुरुआती दिक्कतें हैं लेकिन कंपनियां इसे अनदेखा नहीं कर सकती।"

5जी का सेहत पर असर

क्या 5जी का मानव स्वास्थ्य पर कोई खराब असर पड़ता है?

दो साल पहले देश के कई वैज्ञानिकों और डॉक्टरों ने सरकार को इस बारे में चिट्ठी लिखी और कहा कि 5जी स्पेक्ट्रम की नीलामी नहीं होनी चाहिये क्योंकि इससे इंसानी सेहत को कई खतरे हैं। इस चिट्ठी में 5जी वायरलेस रेडिएशन के कारण कैंसर से लेकर पुरुषों में शुक्राणुओं की कमी होने जैसे ख़तरे गिनाये गए। चिट्ठी लिखने वालों में डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, सीएसआईआर, भाभा एटॉमिक रिसर्च संस्थान और आईसीएमआर से जुड़े रहे वैज्ञानिक और जानकार शामिल थे।

रेडियो तरंगें दो तरह की होती हैं। पहली जिन्हें आयोनाइज़िंग रेडिएशन कहा जाता है जैसे एक्स-रे या गामा किरणें। इनका मानव स्वास्थ्य पर नुकसानदेह प्रभाव पड़ता है। दूसरी होती हैं नॉन-आयोनाइजिंग रेडिएशन (जैसे अल्ट्रावॉयलेट, इन्फ्रारेड, माइक्रोवेव किरणें) जिनका स्वास्थ्य पर कोई गंभीर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। हालांकि इस धारणा से जुड़े कुछ अपवाद भी हैं। रेडियो बायोलोजिस्ट और जवाहरलाल विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज के डीन रह चुके पीसी केशवन याद दिलाते हैं कि सूरज से आने वाली अल्ट्रावॉयलेट किरणें भी नॉन-आयोनाइजिंग वेव होती हैं लेकिन उनसे कैंसर हो सकता है।

हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक अभी तक तमाम रिसर्च के बावजूद वायरलेस टेक्नोलॉजी के कारण स्वास्थ्य पर किसी तरह के प्रतिकूल असर की जानकारी नहीं है। स्वास्थ्य संबंधी निष्कर्ष सम्पूर्ण रेडियो स्पेक्ट्रम पर अध्ययन के आधार पर निकाले जाते हैं लेकिन अभी तक उन फ्रीक्वेंसियों पर बहुत सीमित अध्ययन हुए हैं, जो 5जी द्वारा इस्तेमाल की जाएंगी।

डब्ल्यूएचओ की वेबसाइट पर बताया गया है कि रेडियो फ्रीक्वेंसी फील्ड और मानव शरीर के बीच संपर्क में टिश्यू (ऊतकों) का तापमान बढ़ना मुख्य बात है। अभी इस्तेमाल की जा रही टेक्नोलॉजी से मानव शरीर के तापमान में नहीं के बराबर बढ़ोत्तरी होती है। जैसे-जैसे फ्रीक्वेंसी बढ़ती है ऊतकों में भेदन कम होती जाती है और रेडिएशन शरीर की सतह (त्वचा और आंखों) तक सीमित होकर रह जाता है। अगर कुल रेडिएशन अंतरराष्ट्रीय गाइडलाइंस में बताई सीमा के भीतर रहता है तो स्वास्थ्य पर किसी दुष्प्रभाव की संभावना नहीं है।

सरकार ने 5जी को सुरक्षित बताते हुये कहा है कि मानव स्वास्थ्य को सर्वोपरि रखते हुये उसने वैश्विक मानदंडों के केवल 1/10 टॉवर रेडिएशन की इज़ाजत दी है।

लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि जहां एक ओर डब्ल्यूएचओ 5जी से सेहत को किसी तरह का नुकसान न होने की बात करता है वहीं 2011 में उसके द्वारा कराये गई एक स्टडी में कहा गया था कि रेडियोफ्रीक्वेंसी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड कैंसर का संभावित कारण हो सकते हैं। महत्वपूर्ण है कि उस वक्त 2जी ही प्रयोग में था।

14 देशों के 31 वैज्ञानिकों ने इस शोध में हिस्सा लिया था और कहा कि मोबाइल रेडिएशन से 2-बी श्रेणी का कैंसर रिस्क हो सकता है, जिसका मतलब है कि यह इंसानों में कैंसर का संभावित कारण हो सकता है।

इसके अलावा डब्ल्यूएचओ 5जी समेत सभी रेडियो फ्रीक्वेंसियों से स्वास्थ्य को खतरों का अध्ययन कर रहा है। यह रिपोर्ट 2022 में प्रकाशित होगी। संगठन के मुताबिक 5जी टेक्नोलॉजी के लागू होने के बाद वह इससे जुड़े सेहत को संभावित ख़तरों वाली वैज्ञानिक रिपोर्टों की समीक्षा करेगा।

त्रुटिपूर्ण आकलन पर आधारित है 5जी का डर!

साल 2000 में अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य में ब्रोवार्ड काउंटी पब्लिक स्कूल ने भौतिक विज्ञानी बिल पी करी से यह अध्ययन करने को कहा कि स्कूल में वाईफाई नेटवर्क लगाने से बच्चों की सेहत को कोई खतरा तो नहीं होगा। करी ने स्कूल को दी गई रिपोर्ट में कहा कि इस टेक्नोलॉजी से "स्वास्थ्य को गंभीर खतरे" हो सकते हैं। साल 2019 में न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि करी का शोध और वह ग्राफ, जिसके आधार पर उन्होंने खतरे की बात कही, वह त्रुटिपूर्ण था।

न्यूयार्क टाइम्स की इस रिपोर्ट में जीव विज्ञानियों के हवाले से दावा किया गया कि अधिक फ्रीक्वेंसी पर रेडियो तरंगें मानव शरीर के लिये सुरक्षित हो जाती हैं न कि खतरनाक क्योंकि हमारी त्वचा एक बैरियर की तरह काम करती है और मस्तिष्क समेत मानव अंगों को बचाती है। हालांकि अत्यधिक फ्रीक्वेंसी वाली तरंगें (जैसे एक्स-रे) अलग तरीके से व्यवहार करती हैं और उनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव होता है। जिन जानकारों ने करी की रिपोर्ट में त्रुटि खोजी उनका कहना था कि करी एक बहुत अच्छे भौतिक विज्ञानी थे लेकिन उन्हें जीवविज्ञान की समझ नहीं थी। इसलिये उन्होंने त्वचा के रक्षात्मक पहलू को अपने विश्लेषण में शामिल नहीं किया। हालांकि न्यूयॉर्क टाइम्स ने रेडिएशन के प्रति त्वचा का रक्षात्मक स्वभाव बताने के लिये जिस शोध का ज़िक्र किया है वह अब इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं है।

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस बारे में चिकित्सा क्षेत्र के जानकारों से बात की जिनका कहना है कि मानव त्वचा भी शरीर के कई दूसरे ऑर्गन्स की तरह ही है और उसका मुख्य काम बाहरी ख़तरों से हमारी प्रतिरक्षा करना है। इसलिये त्वचा द्वारा रेडिएशन से रक्षा की थ्योरी बुनियादी रूप में सही है लेकिन अलग-अलग रेडिएशन की तीव्रता और कितनी देर तक एक्सपोज़र रहा यह देखना महत्वपूर्ण है। अभी तक हुये अध्ययनों के आधार पर कोई आखिरी निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।

यह महत्वपूर्ण है कि जब करी ने मानव स्वास्थ्य के लिये इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फील्ड के खतरे को बताते हुये रिपोर्ट दी तब 3जी टेक्नोलॉजी भी प्रयोग में नहीं थी। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट कहती है कि करी से पहले 1978 में खोजी पत्रकार पॉल ब्रॉडियर ने भी एक रिपोर्ट में यह तर्क दिया था अधिक फ्रीक्वेंसी का बढ़ता इस्तेमाल इंसानी सेहत को ख़तरे में डाल सकता है।

हालांकि ब्रॉडियर की रिपोर्ट न तो करी की रिपोर्ट जितनी स्पष्ट थी और न ही उसमें इतना आत्मविश्वास था। साल 2010 में आई करी की रिपोर्ट ने सेलफोन और वाइफाइ रेडिएशन के प्रति शंका को ज़बरदस्त बढ़ावा दिया और पूरी दुनिया में सेल फोन रेडिएशन के खतरों की बात होने लगी। इसके एक साल बाद ही डब्ल्यूएचओ ने मोबाइल रेडिएशन से 2-बी श्रेणी के कैंसर रिस्क वाली रिपोर्ट जारी की जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है।

करी की रिपोर्ट आने के अगले दशक में उनके ग्राफ को न जाने कितने लोगों ने सेल फोन रेडिएशन के ख़तरों को सिद्ध करने के लिये इस्तेमाल किया। साल 2011 में न्यूयॉर्क की यूनिवर्सिटी ऑफ ऑल्बनी में पब्लिक हेल्थ फिजिशियन डॉ डेविड ओ कारपेंटर ने कोर्ट में दायर एक मुकदमे में अपनी दलील को मज़बूत करने के लिये बिल करी के ग्राफ का इस्तेमाल किया। यह मुकदमा एक दंपति की ओर से किया गया था जिन्हें डर था कि रेडिएशन उनके स्कूल जाने वाले बच्चों को बीमार कर सकता है।

आईटी और मेडिकल क्षेत्र के जानकारों की राय

टेलीकॉम और आईटी इंडस्ट्री का बड़ा हिस्सा 5जी से ख़तरों की आशंका को "कुछ लोगों द्वारा डर का व्यापार" बता रहा है।

सेल्यूलर ऑपरेटर एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआई) के एक अधिकारी ने इस रिपोर्टर से अनौपचारिक बातचीत में कहा, "हमारे देश में गणेश के दूध पीने पर विश्वास कर लिया जाता है तो 5जी पर शंका करने पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। यह डर इसलिये भी फैलाया जा रहा है क्योंकि तथाकथित रिसर्च ने नाम पर कई संस्थान सरकारों से बड़ी फंडिंग करा सकते हैं।"

लेकिन डाटा सुरक्षा और साइबर सिक्योरिटी सलाहकार राहुल शर्मा कहते हैं, "हमारी ज़िंदगी में वायरलेस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल इतना बढ़ चुका है कि हम हर वक्त तरंगों और रेडिएशन के बीच रहने के लिये बाध्य हैं। कोरोना महामारी के बाद तो हमारा काम और लाइफस्टाइल ऐसा बन चुका है कि रोज़ाना एक्सपोज़र लेवल बढ़ रहा है। ऐसे में जब हम 5जी से जुड़ी दुनिया प्रवेश कर रहे हैं, जहां कई उपकरण और सेंसर हमारे जीवन का हिस्सा बनेंगे, तो सेहत पर कम और लम्बी अवधि में क्या असर पड़ेगा यह पता लगाने के लिये स्वतंत्र और विशेषज्ञ शोध की ज़रूरत है।

महेश उप्पल कहते हैं, "मैं उन लोगों या संस्थाओं की बात पर भरोसा करूंगा जो विश्वसनीय रिसर्च कर रहे हैं। अभी तक हमारे सामने कोई भरोसेमंद साक्ष्य नहीं है जिसके आधार पर 5जी को हानिकारक कहा जाये। आप जानते हैं कि इन (5जी) तरंगों की ऊर्जा उस रेडिएशन के मुकाबले काफी कम है जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो सकती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम सेहत को संभावित ख़तरों के बारे में अपनी जानकारी अपग्रेड न करें और रिसर्च रोक दें।"

दिल्ली स्थित लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल के रेडियोलॉजी विभाग में डायरेक्टर, प्रोफेसर डॉ किशोर सिंह कहते हैं, "हम तो (5जी की तुलना में) बहुत हैवी रेडिएशन से डील करते हैं। लेकिन हमारा रेडिएशन एक्सपोजर कुछ सेकेंडों के लिए होता है जबकि मोबाइल रेडिएशन का एक्सपोजर बहुत लंबे वक्त तक होता है। इस लगातार और लम्बे इस्तेमाल का क्या असर होगा यह कोई नहीं जानता। मोबाइल आये हुये करीब 25 साल हो गये हैं लेकिन अब तक हमें कोई ऐसा साक्ष्य नहीं मिला है कि ये रेडिएशन बीमारी पैदा कर रहे हैं।"

दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में न्यूरोलॉजी विभाग में विशेषज्ञ डॉ मंजरी त्रिपाठी कहती हैं, "दुनिया भर में 5जी के इस्तेमाल और प्रभाव को लेकर पर्याप्त अनुभव नहीं है। यह पिछले 6 महीने से एक साल के भीतर ही कुछ देशों में शुरू किया गया है। भारत में 5जी ट्रायल अभी शुरू ही हो रहे हैं और किसी उपभोक्ता को इसे नहीं झेलना पड़ा है।"

भारत में अभी 116 करोड़ से अधिक मोबाइल कनेक्शन हैं और यह अनुमान है कि 2026 तक 5जी के ही 35 करोड़ उपभोक्ता होंगे। डॉ मंजरी कहती हैं, "हम मोबाइल फोन के साथ बहुत अधिक वक्त बिताते हैं. चाहे दोस्तों से बातें करना हो या फिर मनोरंजन के लिये। हमें जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिये और 5जी को शुरू करने से पहले स्वतंत्र अध्ययन और रिसर्च के आधार पर अधिक भरोसमंद और स्पष्ट वैज्ञानिक जानकारी हासिल करनी चाहिये।"

(ये स्टोरी न्यूज़लॉन्ड्री हिन्दी से साभार ली गई है।)

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