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विमर्श

CAB के बाद केवल मुस्लिमों को ही नहीं, गैर मुस्लिमों को भी साबित करनी होगी नागरिकता

Prema Negi
13 Dec 2019 4:19 PM IST
CAB के बाद केवल मुस्लिमों को ही नहीं, गैर मुस्लिमों को भी साबित करनी होगी नागरिकता
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एक देश, एक कानून, तीन तारीखों का भ्रम और सुलग उठा असम, नागरिकता संशोधन बिल को लेकर वरिष्ठ पत्रकार सौमित्र रॉय की तल्ख टिप्पणी

नागरिकता संशोधन बिल (कैब) के राज्यसभा से पास होने के बाद जब असम और पूर्वोत्तर के राज्यों में विरोध की आग सुलग उठी तो गृहमंत्री अमित शाह ने मीडिया के सामने एक बड़ा बयान दिया। शाह ने कहा कि इस कानून को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है, जो सही नहीं है। लेकिन इसके बाद उन्होंने जो कहा, वह बेहद गंभीर और विचारणीय है। शाह ने साफ किया कि नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी अलग हैं। सरकार का मकसद घुसपैठियों को देश से बाहर करना है। कैब के बाद एनआरसी है, जो केवल असम में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में लागू होगी।

हां दो शब्दों पर गौर करें। एक घुसपैठिया और दूसरा एनआरसी। दो सवाल हैं- घुसपैठिया कौन? केवल मुसलमान या फिर उनमें हिंदू भी आएंगे? यह कैसे साबित होगा कि घुसपैठिया कौन है? असल में गृह मंत्री कहीं न कहीं यह कहना चाहते थे कि केवल भारत के करीब 20 करोड़ मुस्लिमों को ही नहीं, बल्कि एनआरसी से बाहर रखे गए 80 करोड़ से ज्यादा हिंदुओं को भी यह बात के प्रमाण में कागजात पेश करने होंगे कि वे और उनके पूर्वज भारत में रहते आए थे।

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जो हिंदू यह नहीं साबित कर पाएंगे, उन्हें यह साबित करना होगा कि वे पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में से किसी एक देश के मूल निवासी हैं। कुल मिलाकर अमित शाह के बयान का सच यही है कि हिंदू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय को एनआरसी में अपना नाम दर्ज करवाने की पहली बड़ी चुनौती का सामना करना ही होगा। फिर जो नाकाम रहेंगे, उन्हें बंदी शिविरों की त्रासदी झेलनी होगी, जो कि नाजी यातना शिविरों के समतुल्य होगी। फिर वे चाहें यह भी साबित कर दें कि उनका मूल निवास पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में से किसी एक देश में रहा है, तो भी उन्हें प्रत्यर्पित नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि इनमें से किसी भी देश के साथ भारत की प्रत्यर्पण संधि नहीं है।

असम को लेकर बड़ा सवाल

बीजेपी ने 2016 में कहा था कि वह 24 मार्च 1971 के असल समझौते का सम्मान करेगी। वहीं, असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि बाहर से आकर बसे लोगों को नागरिकता देने की कट-ऑफ तारीख 19 जुलाई 1948 होगी। अब कैब कानून में एक तीसरी तारीख आ गई है- 31 दिसंबर 2014 और इस भ्रम ने पूरे असल को हिंसा की लपेट में लाकर खड़ा कर दिया है।

मुस्लिमों का क्या होगा?

कैब ने देश के बंटवारे के बाद भी भारत में ही रहना पसंद करने वाले मुसलमानों के साथ धोखाधड़ी की है। अगर कैब को नेशनल सिटजन रजिस्टर के साथ जोड़ा जाएगा (जिसकी संभावना ज्यादा है) तो भ्रम और बढ़ेगा। असम में एनआरसी का केंद्र की मोदी सरकार का प्रयोग नाकाम रहा है। मोदी सरकार ने सोचा था कि एनआरसी लागू करने से वहां पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठियों को अलग-थलग किया जा सकेगा। अब पता चला है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए घुसपैठियों की संख्या लगभग नगण्य है। ऐसे में कैब के जरिए धर्म के आधार पर नागरिकता का विभाजन ही बीजेपी सरकार के पास एकमात्र रास्ता था, जो किया जा रहा है।

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फिर बाकी गैर मुस्लिमों का क्या होगा?

कैब बिल इसलिए काला कानून बनेगा, क्योंकि इसमें गैर मुस्लिमों को भी पहले एआरसी में अपना नाम दर्ज करवाकर यह साबित करना होगा कि वे मूल रूप से भारतीय हैं। उन्हें विदेशी न्यायाधिकरणों में कागजात पेश करने होंगे। अब चूंकि कैब तीन पड़ोसी देशों के उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों की बात करता है तो उन्हें साबित करना होगा कि वे उन तीन बाहरी देशों के उत्पीड़ित नागरिक थे। यानी गुवाहाटी में जन्म व्यक्ति को साबित करना होगा कि वह पाकिस्तान, अफगानिस्तान या बांग्लादेश में पैदा हुआ और वहां उसे धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण सताया गया। यह नामुमकिन है।

क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट ने

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को तोड़ने के बाद भी जिस तरह से देशवासियों को दिलासा दे रहे हैं, उससे एक धारणा और भी बनती है कि कुछ साल बंदी शिविरों में रहने के बाद अवैध ‘घुसपैठियों’ को बिना नागरिक ट्रांजिट वीजा पर देश में ही रहने की अनुमति दे दी जाए। लेकिन उन्हें न तो वोट देने, रोजगार, शिक्षा, आवास या खाद्य सुरक्षा जैसी सरकार की किसी भी योजना का लाभ लेने की पात्रता नहीं होगी। असम में यह हो चुका है। वहां एनआरसी से बाहर किए गए 20 लाख लोगों में लाखों बंगाली हिंदू भी हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में केशवानंद भारती विरुद्ध केरल सरकार के मामले में फैसला सुनाते हुए यह व्याख्या की थी कि धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का मूल आधार है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इसके पांच बिंदु तय किए थे। 1. संविधान की सर्वोपरिता 2. सरकार का गणतांत्रिक और लोकतांत्रिक स्वरूप 3. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र का होना 4. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच अधिकारों का बंटवारा 5. संविधान की संघीय प्रकृति। एक ऐसा संविधान, जिसमें सभी लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता हो और साथ ही किसी एक विशेष धर्म को न मानने की भी आजादी हो।

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अनुच्छेद 14 और ‘किसी भी नागरिक’ की बात

इसका मतलब यह नहीं कि भारत के संविधान में धर्मनिरपेक्षता 1976 में जोड़ा गया। असल में यह तत्व हमारे संविधान में पहले से ही निहित था। सुप्रीम कोर्ट ने तो केवल उसकी व्याख्या की है। ऐसे में किसी भी नागरिक की नागरिकता को उसके धर्म के आधार पर रद्द कर देना सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक न्याय के अधिकारों का हनन भी है, जिसकी गारंटी संविधान अपनी उद्देशिका में सभी नागरिकों को देता है और जिसे कोई भी नहीं बदल सकता।

नागरिकता संशोधन कानून देश के हर व्यक्ति के लिए मान्यता, विश्वास और आराधना की स्वतंत्रता के अधिकार का भी हनन करता है। यहां इस बात का भी ध्यान रहे कि भारतीय गणतंत्र की स्थापना न्याय, समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर की गई है।

गृहमंत्री अमित शाह संविधान के अनुच्छेद 14 का धर्म के आधार पर वर्गीकरण करना चाहते हैं, दरअसल उसमें किसी एक धर्म के नागरिक की बजाय ‘किसी भी नागरिक’ की बात कही गई है। अगर इस ‘किसी भी नागरिक’ को वर्गीकृत करना है तो उसके 3 आधार होने चाहिए- तर्कशीलता, तर्कसंगत उद्देश्य और गैर मनमानी। तीनों ही आधार पर कैब कानून जायज नहीं कहा जा सकता।

बेतुके तर्क

इस सवाल का बौद्धिक कारण होना चाहिए कि आप कानून में से क्या बाहर कर रहे हैं और किसे/क्या अंदर रख रहे हैं। कैब कानून कहता है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उन अल्पसंख्यको को भारत में नागरिकता दी जाएगी, जिन्हें धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण सताया गया है। इस तर्क का इसलिए कोई आधार नहीं हो सकता, क्योंकि बाकी धर्म के नागरिकों को भी अलोकतांत्रिक देशों में उत्पीड़न की प्रक्रिया से गुजरना पड़ सकता है।

ह कहना भी ठीक नहीं है कि केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों को ही इन तीन देशों में प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा हो। ऐसे कई नागरिक भी होंगे, जिन्हें केवल उदार होने या नास्तिक होने के कारण प्रताड़ित किया गया हो। तस्लीमा नसरीन इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। अहमदिया, शिया मुसलमानों के बारे में कैब में बात क्यों नहीं की गई है?इसी तरह भूटान में ईसाइयों, श्रीलंका में तमिल हिंदुओं और म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों के मामले में कैब खामोश है।

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यानी इस पूरे बिल का तर्कसंगत उद्देश्य ही विवादित है और सुप्रीम कोर्ट इसी तर्कसंगतता की बात कहता है और साथ ही मनमाने कृत्य को भी रोकता है। इसके बाद सवाल आता है कि पास हुए बिल में भारत में नागरिकता पाने के लिए कट-ऑफ तारीख 31 दिसंबर 2014 किसी आधार पर रखी गई है? मोदी सरकार ने किस आधार पर यह तय कर लिया कि इस खास तारीख के बाद तीनों ही देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न बंद हो गया?

क्या सिर्फ इस आधार पर कि भारत में तब तक एक हिंदू सरकार केंद्र की सत्ता पर काबिज हो चुकी थी? या फिर इस एक तारीख के बाद तीनों ही देश धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील हो गए थे? और उन्होंने इस आधार पर अपने संविधान में भी संशोधन कर लिया है? तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर इस कट-ऑफ तारीख को मनमानीपूर्ण क्यों न कहा जाए?

कैब कानून सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में इसलिए भी नहीं ठहरता, क्योंकि इसमें भारत के सभी पड़ोसी देशों के सभी धार्मिक अल्पसंख्यकों को शामिल नहीं किया गया है। खासतौर पर अफगानिस्तान को कैब में शामिल करना हैरअंगेज है, क्योंकि भारत के विभाजन से अफगानिस्तान का कोई लेना-देना नहीं है। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट यह भी कहता है कि धर्म, लिंग और जन्मस्थान को लेकर किसी भी नागरिक के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।

स बिल में एक और विसंगति देखिए। अगर यह मान लें कि तीनों देश में किसी धार्मिक अल्पसंख्यक उत्पीड़न का शिकार है तो उसे किसी करीबी देश में शरण लेने का हक है, लेकिन उसे किसी एक स्थान विशेष में ही रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। मिसाल के लिए अगर पाकिस्तान का कोई धार्मिक अल्पसंख्यक उत्तर-पूर्व में जाकर रहना चाहे तो उसे इसकी इजाजत नहीं होगी, क्योंकि वहां के एक बड़े हिस्से में कैब लागू नहीं है।

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ब सुप्रीम कोर्ट में इस बिल के कानून बनने के बाद चुनौती दी जा सकती है, लेकिन यहां केंद्र सरकार को फायदा इस बात का मिल सकता है कि सुप्रीम कोर्ट कानून की वैधता का पहले अनुमान लगाएगी। ऐसे में कैब कानून को वैध ठहराना याचिकाकर्ता का काम होगा, न कि सरकार का। मुमकिन है कि एक बार कानून की वैधता स्पष्ट होने के बाद मामला संविधान बेंच के सुपुर्द कर दिया जाए और तब फैसला आने में और देरी हो सकता है।

हां, इतना जरूर है कि भारत की कोई भी सरकार देश के संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं कर सकती, फिर चाहे वह संविधान संशोधन या किसी सामान्य कानून के जरिए ही क्यों न किया गया हो। बस भारत के 130 करोड़ लोगों के लिए उम्मीद ही एकमात्र यही किरण बाकी है।

(सौमित्र रॉय स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)

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