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समाज

तंत्र—मंत्र का धंधा और मोक्ष प्राप्ति की आस में हुईं दिल्ली की 11 आत्महत्याएं

Janjwar Team
3 July 2018 6:43 AM GMT
तंत्र—मंत्र का धंधा और मोक्ष प्राप्ति की आस में हुईं दिल्ली की 11 आत्महत्याएं
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अध्यात्म और तंत्र-मंत्र एक छलावा है। इनके पास जीवन की समस्याओं का कोई समाधान नहीं होता, उलटे ये व्यक्ति को जीवन के संघर्ष से काटकर उसे भाग्यवादी और पलायनवादी बना देते हैं और उनका आखिरी हश्र उस 11 सदस्यीय परिवार जैसा भी हो सकता है जो मोक्ष की आस में कायर बन बैठा...

सुशील मानव का विश्लेषण

महान समाजविज्ञानी अगस्त काम्टे ने अपनी प्रत्यक्षवाद (पोजीटिविटी) की अवधारणा की पृष्ठभूमि में समाज और बौद्धिक विकास की विभिन्न स्थितियों की व्याख्या करते हुए कहा है कि समाज के बौद्धिक विकास व चिंतन की मुख्य तीन अवस्थाएँ होती हैं धर्मशास्त्रीय, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक।

धार्मिक चिंतन आदिम समाजों में पाया जाता है जिसमें हर घटना, क्रिया, प्रक्रिया के लिए लोग किसी अदृश्य शक्ति को जिम्मेदार मानकर उसे खुश करने के लिए बलि (हत्या), आत्महत्या जादू-टोना-टोटका, भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं। ऐसे ही समाजों में डायन, चुड़ैल, मुँहनोचवा, चोटीकटवा ओझा—सोखा जैसे अतार्किक व्यक्तित्व अस्तित्व धारण करता है। ऐसे समाजों में वैज्ञानिक तकनीकी और सूचना संचार उपकरणों का भी दुरुपयोग ही होता है।

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ताजा घटनाक्रम में 1 जुलाई की रात को दिल्ली के बुराड़ी में एक ही परिवार के 11 लोगो ने तंत्र मंत्र के चक्कर में आत्महत्या कर ली है। उनके घर के एक छोटे से मंदिर के बगल से एक रजिस्टर बरामद हुआ है जिसमें 2015 से ही नोट्स लिखा जा रहा था। पुलिस का कहना है कि रजिस्टर में मौत का दिन, मौत का वक्त और मौत का तरीका साफ—साफ लिखा है। ताज्जुब ये कि परिवार ने लगभग वैसे ही आत्महत्या करके जान दिया जैसे कि रजिस्टर में लिखा है। आत्महत्या करने वाले परिवार ने मौत का रजिस्टर में लिख रखा था-

1. सभी लोग आंखों पर पट्टियां अच्छे से बांधेंगे। पट्टी ऐसे बंधे कि सिर्फ शून्य दिखे. इसके अलावा रस्सी के साथ सूती चुन्नी और साड़ी का इस्तेमाल करना होगा।

2. सात दिन बाद लगन और श्रद्धा से लगातार पूजा करनी होगी, अगर इस दौरान कोई घर में आए तो पूजा अगले दिन करनी होगी।

3. रविवार या गुरुवार के दिन को ही इस काम के लिए चुनें।

4. बेब्बे खड़ी नहीं हो सकती तो अलग कमरे में लेट सकती हैं।

5. परिवार के सभी सदस्यों की सोच एक जैसी होनी चाहिए, इसके बाद आगे के काम दृढ़ता से शुरू होंगे।

6. मद्धम रौशनी का प्रयोग ही करें।

7. हाथों को बांधनेवाली पट्टियां बच जाएं तो उन्हें आंखों पर डबल बांध लें।

8. मुंह पर पट्टी को भी रूमाल बांधकर डबल कर लें।

9. जितनी दृढ़ता और श्रद्धा दिखाओगे, फल उतना ही उचित मिलेगा।

10. रात 12 से 1 बजे के बीच क्रिया करनी है, और उससे पहले हवन करना है।

मौत के रजिस्टर में पहली इंट्री नवंबर 2017 की और आखिरी इंट्री 25 जून 2018 की है। रजिस्टर में लिखा था- सभी इच्छाओं की पूर्ति हो। जाहिर है ये आत्महत्यानुमा अनुष्ठान या तो किसी मनोकामना की पूर्ति के लिए की गई है या फिर मोक्ष की इच्छा से। प्रश्न उठता है कि क्या ऐसे ही समाज की कामना महात्मा गाँधी, भीमराव अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू जैसे राष्ट्रनिर्माताओं ने की थी?

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अध्यात्म और तंत्र मंत्र सब एक छलावा है। इनके पास जीवन की समस्याओं का कोई समाधान नहीं होता उलटे ये व्यक्ति को जीवन के संघर्ष से काटकर उसे भाग्यवादी पलायनवादी बना देते हैं। मोक्ष की अवधारणा स्वर्ग, जन्नत, हेवेन जैसी काल्पनिक दुनिया की अवधारणा इस भौतिक दुनिया से पलायन के विचारभाव पर ही टिकी हुई है। मोक्ष की अवधारणा अपनी दुनिया के बदलने के लिए संघर्ष करने के बजाय दूसरी एक मनगढ़ंत दुनिया में भागने का मिथ्या विकल्प पेश करती है, जिसका कि कोई अस्तित्व ही नहीं है।

कर्मकांडों को लेकर नेहरू से लेकर मोदी तक

देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जब वाराणसी प्रवास के दौरान काशी विश्वनाथ मंदिर गये और वहां वो पूजन कराने वाले ब्राह्मणों के पाँव छुए तो पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने उनकी सख्त आलोचना और प्रतिवाद किया। लेकिन आज के हालात बिल्कुल सामंती और कबीलाई हो चुके हैं। देश के प्रधानमंत्री नवरात्रियों का व्रत रखकर हिंदुत्ववादी मूढ़ता की अमेरिका तक ब्रांडिंग कर आते हैं।

प्रधानमंत्री बड़े बड़े मंचों से आशाराम और रामदेव जैसों के पैरों में गिर पड़ते हैं। मंदिर और श्मशान आज चुनावी मुद्दे बनते हैं। मुख्यमंत्री गाय के मूत का सेवन करता है। राष्ट्रीय पुरस्कार में एक घंटे खड़े न हो पाने वाला राष्ट्रपति मंदिर—मंदिर जाकर धक्के खा रहा है। ब्राह्मणवादी अपमान में उसे स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होता दिख रहा है।

पी.वी. नरसिंम्हा राव जैसा प्रधानमंत्री चंद्रास्वामी जैसे तांत्रिक फ्रॉड से राय मशविरा करके देश का भविष्य तय करता है। सत्ता में काबिज ऐसे उदाहरण समाज को प्रगतिगामी और पुरातनपंथी नहीं तो और क्या बनाएंगे? ताकत और सत्ता सबका ख्वाब होता है। समाज का युवा इनके जैसी ऊँचाई और सफलता हासिल करने के लिए इनके इन्हीं अवैज्ञानिक कर्मकांडों और अंधश्रद्धा का अनुसरण करता है। और किसी बुद्धिजीवी या चेतना संपन्न व्यक्ति द्वारा इन अवैज्ञानिक कृत्यों का किसी तरह का प्रतिवाद होने पर इन्हीं उदाहरणों को तर्क की तरह उठाकर झट से सामने रख देता है।

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ऐसे समाजों में पूँजीवाद भी धर्म की पूँछ पकड़कर ही प्रवेश करता है। पूँजीवाद एक बार जब ऐसे समाजों में प्रवेश कर लेता है तो समाज की चिंतन अवस्था व स्थितियाँ और भयावह और सोचनीय हो जाती हैं। पूँजीवाद ऐसे समाजों के लिए अंधविश्वास को और गाढ़ा बनाता है और उसको ही बेचकर मोटा मुनाफा कमाता है।

जादू—टोना और टीवी की भूमिका

कोई आश्चर्य नहीं कि आजकल टीवी पर नाग-नागिन, भूत-प्रेत, आत्मा और धार्मिक, आध्यात्मिक सीरियलों की भरमार लगी हुई है। कोई ताज्जुब नहीं कि सिर्फ मुनाफे के लिए विशाल भारद्वाज जैसा डायरेक्टर ‘एक थी डायन’जैसी फिल्म बनाता है जो समाज की चेतना को कुंठित करके सोचने समझने की क्षमता को ही खत्म कर देती है।

ऐसे ही एक सीरियल ‘देवों के देव महादेव’ देखकर 28 मार्च 2013 को राजस्थान के स्वामी माधोपुर जिले के गंगापुर सिटी के रहने वाले एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी, भाई, पुत्र व पुत्री समेत आत्महत्या कर ली। और आत्महत्या करने से पहले बाकायदा एक वीडियो बनाकर उन लोगो ने कहा कि हम सब देवों के देव महादेव से मिलने जा रहे हैं!

ये है धार्मिक सीरियलों का कुप्रभाव। कोई ताज्जुब नहीं कि देश का पढ़ लिखा तबका भी पुरातनपंथी सोच से मुक्त नहीं हो पाया है। सामंती संस्कृति अंधश्रद्धा के वशीभूत हो समाज में हजारों औरतें डायन बताकर मार दी जाती हैं। सैकड़ो छोटे बच्चों का हर साल सिर्फ बलि देने के लिए अपहरण किया जाता है।

सवाल ये है कि बजाय इस अंधश्रद्धा के निर्मूलन के लिए कड़े कानून बनाने के सरकारें क्यों इन्हें किसी न किसी तरह बढ़ावा देती रहती हैं। दरअसल इसके पीछे की निहित राजनीति को समझना होगा। दरअसल धर्म का धंधा करने वाले लोग सरकार के सहयोगी होते हैं।

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टीवी खोलकर जब कोई व्यक्ति इनके (तांत्रिक, बाबा, ज्योतिषी) सामने बैठता है तो शिक्षा, रोजगार, आर्थिक समस्या, बीमारी जैसी हर व्यवस्था जनित समस्या को ये उस व्यक्ति के भाग्य से जोड़कर उसे उसकी दीन हीन दशा के लिए उसके भाग्य को ही जिम्मेवार बता देते हैं। इस तरह समाज भौतिक समस्याओं के लिए सरकार और व्यवस्था को दोषी न मानकर खुद को ही दोषी स्वीकार लेता है।

अपनी समस्याओं का जवाब सरकार से माँगने के बजाय वो खुद को हीनताबोध से ग्रस्त हो खुद को ही कसूरवार मानने लगता है। इस तरह धर्म का धंधा करने वाले तमाम पंडित, मौलवी पादरी, ज्योतिषी अंकशास्त्री समाज के आम लोगो की सोच को डायवर्ट करके सरकार की नाकामी पर पर्देदारी करते हैं। यजनता के चेतना को कुंद करके उनके दिमाग को दूसरी दिशा में डायवर्ट करने वाले ये लोग दरअसल सरकार के सबसे कारगर हथियार हैं।

महत्वपूर्ण है अंधश्रद्धा के खिलाफ तर्कशास्त्री नरेंद्र दाभोलकर का प्रयास

लेखक रेशनलिस्ट नरेंद्र दाभोलकर ने बाकायदा जन जागरुकता अभियान चलाकर अंध-समाज के लोगो को तार्किक और वैज्ञानिक चेतना संपन्न बनाने का भरसक प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (MANS)का गठन किया था। जिसके 200 शाखाओं में कुल 5000 सदस्य थे जो गाँव गाँव जाकर लोगो को जागरुकता अभियान चलाते थे। साथ ही उन्होंने महाराष्ट्र सरकार पर भी दबाव बनाया कि वो कानून बनाकर अंधश्रद्धा निर्मूलन करे व इसकी प्रैक्टिस करनेवालों पर कड़ी कार्रवाई करे।

उनके प्रयास और दबाव के चलते ही महाराष्ट्र में जादू-टोना विरोधी विधेयक पेश हो सका। समाज पर उनके प्रयास का सकरात्मक असर भी हो रहा था और आशाराम जैसे बलात्कारी पाखंडियों का धंधा प्रभावित होने लगा था। सरकार और धर्म का धंधा करने वालों के लिए नरेंद्र दाभोलकर खतरा बन गए थे कि तभी एक रोज बाइक पर सवार होकर आये दो हत्यारों ने उनकी हत्या कर दी। तमाम प्रशासन सिस्टम के बावजूद हत्यारे आज तक नहीं पकड़े गए।

आप अनुमान लगा सकते हैं कि नरेंद्र दाभोलकर की हत्या से सरकार और धर्म और भाग्य का धंधा करने वालों का कितना फायदा हुआ होगा। ऐसे में हत्यारों का पकड़े जाना इनके लिए घाटे का सौदा होता।

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