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सिक्योरिटी

फौलादी पहाड़ के लिए गोर्खयाली खुखरी से भी ज्यादा खूनी साबित हुईं सरकारी नीतियां

Prema Negi
13 Nov 2018 10:57 AM GMT
फौलादी पहाड़ के लिए गोर्खयाली खुखरी से भी ज्यादा खूनी साबित हुईं सरकारी नीतियां
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प्रतीकात्मक फोटो

असुरक्षित भविष्य और खंडहरों को देख पहाड़ की नई पीढ़ी इतनी भयभीत है कि अब किसी भी बुराई से लड़ने में हाथ कांपते हैं, पैरों में जमे रहने की कूबत न बची....

उत्तराखण्ड से लगातार हो रहे पलायन को लेकर वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर जोशी की तल्ख टिप्पणी

प्राचीनकाल में यूनान सचमुच महान था। मिस्र, नोसास, इराक की शान-ओ-शौकत पढ़ कर दुनिया आज भी अचरज में है। महान सभ्यताएं युद्ध और आपदा में नष्ट हो गईं, संस्कृति के ऊपर गर्द के ढेर जम गए। हिमालय के आसपास बसी सभ्यता पर आपदाएं मिट्टी न डाल पाईं, गोरखाओं की खुखरी इसकी काया न पलट सकीं। हस्ती पर्वत की माफिक अटल रही, संस्कृति अटूट जलधारा जैसी बहती रही। अब भारी संकट है।

ऊपर चढ़ते जाएंगे तो आत्मविश्वास भर आएगा। सामने हंसलिंग, राजरंभा, नंदाकोट, दरमा, पंचाचूली के हिम शिखर दिमाग रोशन करेंगे। हर मौसम में ठंडी पवन मन को आनंदित करेगी। अमन-चैन की जिंदगी का पहाड़ी अंदाज गजब था। सूरज की पहली किरण पाने की मानो इनमें होड़ थी।

सबसे ऊंचाई पर बसे परिवारों को बड़ा गर्व था। ये ऊपर वाले मैदानों को नीचा कहते। कोई कमाने-खाने दूर देश भी चला जाए तो कहते थे, वह नीचे चला गया। भीड़ में इनका दम घुटता। यहां से निकले लोग हजारों किलोमीटर में फैले मैदानों में भी पहाड़ को निहारने की कोशिश करते। इस फेर में इनको दिशा का बड़ा भ्रम रहता।

जहां पहाड़ की मौजूदगी की उम्मीद दिखी उस दिशा को ऊपर कहते और बाकी को नीचे समझते। आज भी शहरों में पहाड़ियों से कोई राह पूछ ले तो कहते हैं, जरा आगे चल कर नीचे मुड़ना, फिर ऊपर को चले जाना। पूछने वाला अपना सिर पीट ले पर इनको तीसरी दिशा समझ में न आती।

सदियों से पहाड़ में मूल जैसी कोई खास बात नहीं रही। दूर समुद्र और खुस्की के रास्तों से जब भी बाहरी हमले हुए तो लोग पहाड़ों की ओर चले आए। देशाटन और लंबी यात्राओं में निकले लोगों के कदम भी यहां आकर ठहर गए। शांति की तलाश में ज्ञानीजन पर्वतों की कोख में रम गए।

नेपाल से आए गोर्खाली हमलावर जब हार गए तो अधिकतर यहीं की जातियों के खांचों में फिट हो गए। बौद्ध, ईसाई, मुस्लिम पहाड़ पहुंचकर रहने लगे। न झगड़े हुए न लफड़े हुए, सब निर्भय जीवन जीते रहे। अंग्रेजों ने भी यहां के जीवन को कतई नहीं छेड़ा। गोरे पहाड़ों से प्रेम करते थे। उत्पीड़न, अत्याचार करने के बाद भी अधिकतर ने अपना ठिकाना यहीं चुना। खूबसूरत स्थलों तक पहुंचने के लिए सुविधाएं भी बढ़ाईं।

पहाड़ों में जंगल सबका अपना था। धरती बेहद उपजाऊ, पानी की हर बूंद स्वच्छ और मीठी। भूगर्भ में हिमालय से निकल रही जल धाराएं बलुवा मिट्टी की चट्टानों को तोड़ती इसे नम करती रहीं। जंगली जानवर आबादी के पास नहीं फटकते थे और अपने वास पर दखल देने वालों को भगा देते थे। मानव पर जानवर हमलावर नहीं थे, संघर्ष की बहुत कम घटनाएं होती थीं। जंगल गई महिलाओं की दराती देख तेंदुए, चीते भी दूर भागते थे।

उत्तराखंड के पहाड़ों में नेपाल के गोरखाओं का शासन बेहद कष्टकारक था। उस जमाने में गोरखाओं के पास भारी, पैनी खुखरी थी। इस हथियार के दम पर गोरखा वंश ने करीब 1790 से 25 वर्षों तक राज किया। भारी मारकाट, लूटपाट मची पर लोग घर छोड़ कर नहीं भागे और मुकाबला करते रहे।

ऐसी मनोरम फौलादी धरती अचानक उजाड़ में बदल गई। सदियों से आबाद खेत, घरों को बर्बाद करने में सरकारों को ज्यादा समय नहीं लगा। तीन-चार दशक में ही सरकारी नीतियां गोर्खालियों की खुखरी से ज्यादा खूनी साबित हुईं। सरकार ने जंगल छीने, पानी रोका, नहरों को बर्बाद किया। उपज घटी, फांके पड़े, नौजवान घरों से जाते रहे। स्कूल बंद, रास्ते टूटे, बीमार तड़प कर मरते रहे। नीतियों की ऐसी मार पड़ी कि खेत बंजर, गांव निर्जन हुए।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को छोड़कर भागने की यह तस्वीर दुनिया की पहली और निराली है। बिना किसी आतंक और आपदा के घर छोड़ने की घटनाएं इतिहास के पन्नों में कहीं नजर नहीं आतीं। पहाड़ों में बिना किसी बाहरी खतरे के समूह बिखरते चले गए। असुरक्षित भविष्य और खंडहरों को देख नई पीढ़ी इतनी भयभीत है कि अब किसी भी बुराई से लड़ने में हाथ कांपते हैं, पैरों में जमे रहने की कूबत न बची।

फिर डटेंगे, खूब लड़ेंगे, धरती को आबाद करेंगे...

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