सांप्रदायिक सौहार्द के लिए रमजान पर रोजा रख रही यह हिंदू ब्राह्मण महिला, जमकर हो रही तारीफ
जयश्री शुक्ला कहती हैं 'मस्जिद में किसी ने मुझे कभी भी नहीं पूछा कि मैं किस धर्म की हूं। इफ्तार के दौरान शाम को लोग मेरे घर को भोजन की पेशकश करते हैं...
जनज्वार ब्यूरो। सभी धर्मों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द और शांति को बढ़ावा देने के लिए एक हिंदू ब्राह्मण महिला इन दिनों पवित्र रमजान के महीने के दौरान रोजा रख रही हैं। इतिहास से ग्रेजुएट 52 वर्षीय जयश्री शुक्ला का कहना है कि यह प्यार, शांति फैलाने और भाईचारे को बढ़ाने का उनका तरीका है।
उन्होंने तुर्की स्थित अंतर्राष्ट्रीय समाचार एजेंसी अनादोलु को बताया, जामा मस्जिद दिल्ली के पुराने इलाके शाहजहांनाबाद में बना है, इसलिए इसने मुझे आकर्षित किया है। उत्तर मध्य भारत के बारे में बात करते हुए वह कहती हैं कि विरासत (हेरिटेज) में रुचि ने मुझे घंटों तक इसमें बिताने के लिए प्रेरित किया, इसने मुझे गंगा जमुनी तहजीब और रमजान से परिचित कराया है।
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जयश्री शुक्ला एक पर्यवेक्षक और फोटोग्राफर के रुप में भारत की सबसे बड़ी मस्जिद का कई बार दौरा कर चुकी हैं, मुसलमानों से मिल चुकी हैं। मुस्लिम समुदाय से स्वीकार्यता की भावना से प्रेरित होकर उन्हें उनकी संस्कृति से प्यार हो गया।
शुक्ला ने 2009 में रमजान का पहला अनुभव किया था। वह कहती हैं, 'मस्जिद में किसी ने मुझे कभी भी नहीं पूछा कि मैं किस धर्म की हूं। इफ्तार के दौरान शाम को लोग मेरे घर को भोजन की पेशकश करते हैं। इस बात ने मुझे अंदर तक छू लिया। उन्होंने मुझसे सम्मान और प्यार से व्यवहार किया था।
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शुक्ला कहती हैं कि 2019 के आम चुनाव के परिणाम आने के बाद उन्हें लगा कि बढ़ती नफरत और ध्रुवीकरण के कारण पुल बनाने की जरुरत है। उनके पति राजेश श्रीवास्तव प्लेसमेंट अधिकारी हैं, वह भी पिछले कई वर्षों से अपने पैतृक घर में इफ्तार पार्टियों का आयोजन कर चुके हैं।
शुक्ला ने कहा, 'किसी ने मुझसे सीधे सवाल नहीं किया, लेकिन परिवार के कुछ सदस्य असहज थे। क्योंकि मैं अपने स्वयं धर्मनिष्ठ या धार्मिक नहीं हूं और मैं एक ब्राह्मण परिवार से आती हूं, इस प्रकार असुविधा की उम्मीद थी।' हालांकि रोजा रखने पर उनके कई साथियों ने साथ उनका साथ दिया है।
शुक्ला ने कोरोना लॉकडाउन के बीच महीने के पहले और आखिरी दिन रोजा रखने का फैसला किया। उन्हें लगता है कि यह रोजा उन्हें दूसरे समुदाय से जुड़ने और उनकी संस्कृति को बेहतर ढंग से समझने में मदद करता है।
इससे पहले एक फेसबुक पोस्ट में उन्होंने बताया, मैं बताना चाहती हूं कि मैंने रमजान के पहले रोजे के लिए रोजेदारों के साथ उपवास किया। यह एक पुल बनाने का मेरा छोटा प्रयास थाऔर मैं ऐसा करने के लिए रोमांचित थी। हमारे परिवार के ड्राइवर मोहम्मद हैं, इफ्तारों में हम एक साथ बैठकर खाते थे। यह हमारे बीच बंधन और एकजुटता का निर्माण करता है। यह ऐसा प्रेम है जो हमें लगता है कि व्यक्त करना चाहिए। मैं रमजान का अंतिम रोजा भी देखना चाहती हूं।
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आमतौर पर इसके बारे में बात करने की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। लेकिन नफरत से भरी दुनिया में इन अनुभवों को साझा करना महत्वपूर्ण है। मुझे इस बात का दुख है कि मैं शाहजहानाबाद में नहीं हूं। मेरा पैगाम मुहब्बत है, जहां तक पहुंचे।