दिल्ली हिंसा से पहले CAA के खिलाफ हो रहे आंदोलन में मुस्लिम विरोधी मशीनरी अंदरखाने कर रही थी काम
पूर्वोत्तर दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में फैले दंगों को संभालने में दिल्ली पुलिस की अक्षमता एक परेशान करने वाली बात है, लेकिन यह राज्य की बढ़ती हुई मुसीबतों का संकेत है....
मानश फिराक भट्टाचार्जी
जनज्वार। नई दिल्ली और अन्य भारतीय शहरों में नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों ने यहां के लोगों को उम्मीद दी कि हमारे पास सरकार द्वारा पारित कानूनों पर सवाल उठाने के लिए लोकतांत्रिक, नैतिक और बौद्धिक वैधता है लेकिन राष्ट्रीय राजधानी में हुए मुस्लिम विरोधी दंगे ने उस उम्मीद को कुचल दिया। CAA कुछ धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए भारतीय नागरिकता के लिए एक फास्ट-ट्रैक देता है, लेकिन मुसलमानों के लिए नहीं।
CAA भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 के समानता के मूल अधिकार के खिलाफ जाता है इसलिए वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और मुस्लिम समुदाय के द्वारा इसका बहिष्कार किया जा रहा है। वर्तमान सरकार CAA को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) का पहला कदम मान रही है।
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भारत के उत्तर आधुनिक इतिहास में राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ-साथ महिलाओं के नेतृत्व में मुस्लिम समुदाय, लेखकों, कलाकारों और छात्रों ने द्वारा अभूतपूर्ण शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन चल रहा है। इन आंदोलनकारियों ने भारत में विभिन्न धार्मिक विश्वासों के लोगों के बीच नजदीकियों को हाईलाइट कर दिया है। शाहीनबाग, सीलमपुर और जाफराबाद जैसे विरोध स्थलों में मुख्य रूप से श्रमिक वर्ग मुस्लिम लोग रहते हैं जहां हमने पूरे वर्ग के लोगों को विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लेते देखा। इन विरोधों ने न केवल अहिंसक प्रतिरोध की प्रभावकारिता में महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान की बल्कि उन्होंने अंतर-विश्वास सद्भाव में नए सबक भी पैदा किए।
प्रदर्शनकारियों द्वारा नाराजगी की इस लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को न ही सत्तारुढ़ प्रतिष्ठान स्वीकार किया और न ही हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थकों ने। सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के कपिल मिश्रा ने इस सप्ताह CAA के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों को कार्रवाई की धमकी देते हुए भाषण दिया था। इसी समय अमेरिका के राष्ट्रपति दिल्ली पहुंचे थे। मिश्रा ने यह भाषण पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में दिया। जिस पर दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस. मुरलीधर ने उस वक्त आश्चर्य व्यक्त किया जब एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने दावा किया कि उन्होंने यह वीडियो नहीं देखा है।
पूर्वोत्तर दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में फैले दंगों को संभालने में दिल्ली पुलिस की अक्षमता एक परेशान करने वाली बात है, लेकिन यह राज्य की बढ़ती हुई मुसीबतों का संकेत है। यह कल्पना करना मुश्किल है कि भीड़ राजधानी की सड़कों पर खुलेआम आगजनी और हिंसा की वारदातों को अंजाम देती है।
हिंदुत्व समर्थक भीड़ ने हर उस व्यक्ति को पीटा और संपत्ति को नष्ट किया, जो मुस्लिम दिखता है। दंगाई नफरत भरी आवाज में बोल रहे हैं कि वे CAA का विरोध करने पर मुसलमानों से नाराज हैं इसलिए अगर मुस्लिम डरते हैं तो सब ठीक है। लेकिन अगर वे अपने अधिकारों का दावा करते हैं तो सब ठीक नहीं है।
शहर के उत्तरपूर्वी उपनगरों में से एक अशोक नगर में एक मस्जिद के ऊपर एक हिंदू धार्मिक प्रतीक का झंडा लगाया गया। बर्बरता के ऐसे कृत्य धर्म को सबसे भयावह रुप देते हैं जहां धर्म केवल वही है, जिसका वह उल्लंघन करता है। जहां आध्यात्मिक जड़ों को खाली कर दिया जाता है और विश्वास की नैतिक बाधाओं को अनैतिक रूप से बर्बरता में बदल दिया जाता है।
बाबासाहेब अंबेडकर ने अंटचेबल और द चिल्ड्रन ऑफ घेट्टो में लिखा है कि हिंदू समाज ने दलितों को सार्वजनिक या सामाजिक विवेक की भावना विकसित करने से रोका है। बाबासाहेब अंबेडकर ने 'अनटचेबल' और 'द चिल्ड्रन ऑफ घेट्टो' में लिखा है कि हिंदू समाज ने दलितों को सार्वजनिक या सामाजिक विवेक की भावना विकसित करने से रोका है। अंबेडकर ने कहा था कि यह नैतिक अपराध की ओर जाता है जिसमें अजनबियों के खिलाफ अराजकता वैध है और नैतिकता के क्षेत्र से बाहर के लोगों के खिलाप अत्याचार को आपराधिक नहीं माना जाता है।
अंबेडकर की एनालोजी के मुताबिक अगर राष्ट्र की सांस्कृतिक कल्पना के लिए अल्पसंख्यकों को एलियन के रूप में चित्रित किया जाता है तो सभी धर्मनिरपेक्ष प्रतिबंध जो कानून के सामने अल्पसंख्यकों को समानता प्रदान करते हैं, उन्हें एक क्षेत्रीय कानून द्वारा लागू किया जा सकता है। देश के कैलेंडर में 1984, 1992, 2002 और अब 2020 में बहुत खून बह चुका है। भारत का उत्तर-आधुनिक इतिहास घावों से चिह्नित है।
मैने उनसे पूछा कि क्या वह किसी को जानता है या किसी से मिला जिसे मार दिया गया हो। तो उन्होंने इसका जवाब नहीं में दिया। आश्चर्य हो रहा है कि मैने भी ऐसा प्रश्न पूछा था। फिर मैने उन्हें बताया कि किसी के सिर पर चाकू नहीं मारा गया है और वो लोग हिंसा के लिए यह अफवाहें फैला रहे हैं और अब यह अफवाहें वास्तविकता में अपने ही पड़ोस में मुसलमानों को नुकसान पहुंचा रही हैं।
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अल्पसंख्यकों के खिलाफ अफवाहें फैलाना एक राजनीतिक रणनीति है, इसलिए उनका प्रदर्शन किया जाता है जिससे सबसे पहले हिंसा को स्वीकार्यता मिल जाती है। फिर बहुसंख्यक विभाजनकारी लोगों की भावनाओं में बह जाता है और उसे अपने जीवन की सुरक्षा महसूस होती है और आधारहीन आशंकाओं से ग्रस्त हो जाता है।
जब लोगों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है तो लोगों को यह विश्वास कराया जाता है कि उसके पास खोने के लिए सबकुछ है। नफ़रत का तांडव इन जैसी आशंकाओं के इर्द-गिर्द काम करता है और बहुसंख्यक अपनी पवित्र नैतिकता खो देता है। हिंसा की राजनीति इसी नाजुक स्थिति का फायदा उठाती है।
(मानश फिराक भट्टाचार्जी 'लुकिंग फॉर द नेशन: टुवर्ड्स अदर आइडिया ऑफ इंडिया' के लेखक हैं। ये लेख अल जजीरा पर पूर्व में प्रकाशित किया जा चुका है।)
अनुवाद : निर्मलकांत