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केदारनाथ त्रासदी के 6 साल बाद भी मुआवजे के लिए तरसते उत्तराखंडी लोग
आपदा के दौरान सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल न तो अच्छे से हो पाया, न सरकारों ने ऐसी इच्छा दिखाई। उल्टा अफसरशाही और नेताशाही की मिलीभगत से आपदा के इस मौके को भी अपनी जेबें गर्म करने के लिए इस्तेमाल किया गया। लोग आज भी मुआवजे के लिए तरस रहे हैं....
स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता मुनीष कुमार की रिपोर्ट, सहयोग : अजीत साहनी और धीरेंद्र
रामनगर, जनज्वार। केदारनाथ में साल 2013 में आई आपदा को भला कौन भूल सकता है। हजारों लोगो को जल ने खुद में समा लिया। गांव के गांव तबाह हो गए। परिवार बिछड़ गए या फिर मिट गए। केदारनाथ भले ही बदलाव के दौर से गुजर रहा है, लेकिन तबाही के निशान आज भी यहां बिखरे पड़े हैं।
आपदा के जख्म हर उस शख्स के मन में अब भी हरे होंगे,जो वहां से ज़िंदा बच निकला होगा या फिर जिसने वो मंज़र अपनी आंखों से देखा होगा। कहते हैं कि आज भी जब केदारघाटी में बिजली कड़कती है तो लोग डर से सहम जाते हैं।
कुल मिलाकर कहें तो उत्तराखंड के केदारघाटी में 2013 में आया जलप्रलय एक ऐसी घटना है, जो शायद ही कभी भुलाई जा सके। 16-17 जून की आधी रात में जलप्रलय के संकेत मिले थे और सुबह होते-होते पूरी केदारघाटी तबाह हो गई थी। आपदा में मरने वालों की संख्या सरकारी दस्तावेजों में करीब 5000 दर्ज है, लेकिन वास्तविक संख्या 10 हजार से ज्यादा मानी जाती है। हर बारिश के बाद केदारघाटी में नर कंकालों के मिलने का सिलसिला लंबे वक्त तक ज़ारी रहा।
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सरकार ने इसे बादल फटने के कारण हुई आपदा बताया। इसमें सोनप्रयाग तबाह हो गया था और केदारनाथ यात्रा मार्ग की ऐतिहासिक जगहों में से एक रामबाड़ा का अस्तित्व ही खत्म हो गया था। आपदा की मार सबसे ज्यादा केदारघाटी में बसे गांवों पर पड़ी।
आपदा के दौरान सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल न तो अच्छे से हो पाया, न सरकारों ने ऐसी इच्छा दिखाई। उल्टा अफसरशाही और नेताशाही की मिलीभगत से आपदा के इस मौके को भी अपनी जेबें गर्म करने के लिए इस्तेमाल किया गया। लोग आज भी मुआवजे के लिए तरस रहे हैं।
इस खबर के साथ लगाया गया वीडियो केदारघाटी के ऊपर बनी वो डाक्यूमेंट्री है, जो आपदा के लगभग महीने भर बाद बनाई गयी थी, इसमें उन तमाम मुद्दों की चर्चा की गयी है जिनको छिपाने की कोशिश की गयी। अब भी विकास के नाम पर पहाड़ का विनाश थमा नहीं है, बल्कि और भी तेज गति से जारी है।
जहां पहाड़ के विकास के नाम पर अनियंत्रित विकास या कहें विनाश का काम जारी है, वहीं आपदा के 6 साल बीत जाने के बावजूद केदारनाथ त्रासदी प्रभावित ग्रामीण मुआवजे के लिए तरस रहे हैं।