स्वदेशी का मंत्रोच्चार करती मोदी सरकार के लिए भूखे-प्यासे दम तोड़ रहे प्रवासी मजदूरों का नहीं कोई मोल
प्रधानमंत्री मोदी कभी विश्वगुरु होने की बात करते हैं, कभी आत्मनिर्भर पर प्रवचन सुनाते हैं तो कभी गर्व से जीडीपी के 10 प्रतिशत की बात करते हैं, पर भूखे, प्यासे, बेहाल, सड़कों पर दम तोड़ते मजदूरों की बात कभी नहीं करते...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। सरकार द्वारा तमाम खबरें दबाये जाने के बाद भी और मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा दर्शकों को सरकारी प्रचार वाले भौंडे समाचारों में उलझाए रखने के बाद भी पूरी दुनिया हमारे देश के श्रमिकों की पीड़ा पिछले डेढ़ महीने से देख रही है। प्रधानमंत्री जी कभी विश्वगुरु होने की बात करते हैं, कभी आत्मनिर्भर पर प्रवचन सुनाते हैं तो कभी गर्व से जीडीपी के 10 प्रतिशत की बात करते हैं, पर मजदूरों की बात कभी नहीं करते।
अलबत्ता कभी औरैया जैसा बड़ा हादसा हो जाता है तो दुःख वाला ट्वीट कर भार टाल देते हैं। अब तो जनता के मरने की कीमत भी एक नहीं रही है, विशाखापत्तनम में गैस रिसने से लोग मरते हैं तो मुवावजा एक करोड़ रुपये का दिया जाता है, दूसरी तरफ सड़क हादसे में लोग मरते हैं तो एक लाख रुपये मिलते हैं। कोरोना काल कोविड 19 के लिए कम और आत्ममुग्ध सरकार जो जनता को हरेक तरह से प्रताड़ित करने के लिए अधिक याद किया जाएगा।
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इसके अनुसार श्रमिक कोई संसाधन और श्रम कोई उत्पाद नहीं है – इस तथ्य को सरकारों को समझने की जरूरत है। जनस्वास्थ्य और लोगों की जिन्दगी को केवल बाजार पर नहीं छोड़ा जा सकता है। कोविड 19 के सन्दर्भ में श्रमिकों के बारे में कहा गया है कि इस दौर में बीमारों की देखभाल करने वाले, खाद्य सामग्री को पहुंचाने वाले, स्वास्थ्य सेवाओं और आवश्यक सेवायें प्रदान करने वाले, कचरा प्रबंधन करने वाले, छोटी दूकानें चलाने वाले या फिर अन्य काम करने वाले ही हैं जो लॉकडाउन के दौर में भी हमारी जिन्दगी आगे बढ़ा रहे हैं। इन श्रमिकों के श्रम को एक उत्पाद मानना सबसे बड़ी भूल है।
श्रमिकों और श्रम को केवल बाजार के हवाले नहीं किया जा सकता है, इससे हरेक स्तर पर असमानता बढ़ती है। अब समय आ गया है कि श्रमिकों को भी हरेक स्तर पर नीति निर्धारण में शामिल किया जाए, और उन्हें अपने जीवन और भविष्य को निर्धारित करने का मौका दिया जाए। इससे पूरे श्रमिक समुदाय के लिए सम्मान का जीवन सुनिश्चित किया जा सकेगा।
इस पत्र में कहा गया है, कि जिस तरह से 1980 के दशक से लैंगिक समानता पर चर्चा करते करते अब महिलायें देशों को संभालने लगी हैं और बड़ी कंपनियों और बैंकों को संभाल रही हैं, वैसा ही अब हमें श्रमिकों के बारे में सोचना पड़ेगा। दुनियाभर में श्रमिक संगठन खड़े हो गए हैं, पर कहीं भी ये अपने हितों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि पूंजीवाद और सरकार एक ही सिक्के के दो पहलू बन गए हैं। इससे श्रमिकों की समस्याएं और पर्यावरण का दोहन – दोनों ही बढ़ गया है। इस पत्र के अनुसार स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे जीवन से जुड़े मामलों को किसी भी हालात में बाजार के हवाले नहीं किया जान चाहिए और दूसरी तरफ हरेक श्रमिक के लिए रोजगार गारंटी की व्यवस्था की जानी चाहिए।
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पर, दुखद यही यह है कि सरकारें एक ही भाषण में लोकल को बढ़ावा देतीं हैं और दूसरी तरफ एफडीआई बढाने की बात करती हैं। एक तरफ जनता को राहत देने की बात करती हैं और दूसरी तरफ हरेक क्षेत्र को पूंजीपतियों की झोली में डाल देती हैं। एक तरफ सार्वभौम कुटुम्बकम की बात की जाती है तो दूसरी तरफ अपने देश के ही करोड़ों मजदूर सड़कों पर नंगे पाँव सैकड़ों किलोमीटर चलने को मजबूर किये जाते हैं।
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एक तरफ सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की बातें की जाती हैं तो दूसरी तरफ देश की केवल 1 प्रतिशत आबादी विकास करने लगती है। एक तरफ तो सैमसंग की मोबाइल फैक्ट्री का इतराते हुए उद्घाटन किया जाता है तो दूसरी तरफ स्वदेशी का मंत्रोच्चार किया जाता है। दरअसल, हम पूंजीवाद में इतना रम गए हैं कि श्रमिकों की बस्ती के आगे दीवार खड़ी कर देते हैं।