सोशल मीडिया पर राहुल गांधी की बढ़ती सक्रियता कांग्रेस के किस काम की साबित होगी?
बीते साल राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद खराब स्वास्थ्य के बावजूद सोनिया गांधी का कार्यकारी अध्यक्ष पद पर नियुक्त होने से सक्रिय नेतृत्व की जो कमी कांग्रेस के भीतर महसूस की जा रही थी, उसे लॉकडाउन के दौरान राहुल गांधी की सक्रियता ने कम करने की कोशिश की है....
स्वतंत्र पत्रकार हेमंत कुमार पांडेय का विश्लेषण
बीते शनिवार को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने यूट्यूब चैनल पर एक वीडियो जारी किया। 17 मिनट के इस वीडियो में वे दिल्ली में हरियाणा से उत्तर प्रदेश के झांसी तक पैदल जा रहे प्रवासी मजदूरों के एक समूह से बातचीत करते दिखें। इसमें राहुल गांधी मजदूरों की परेशानी, लॉकडाउन के चलते उन पर होने वाले असर और रोजगार आदि मुद्दों पर बात करते हैं। साथ ही, उन्हें वाहन से झांसी स्थित उनके घर तक पहुंचाने का इंतजाम भी करवाते हैं।
कांग्रेस नेता ने मजदूरों से यह बातचीत बीती 16 मई को की थी। लेकिन अब एक हफ्ते बाद एक डॉक्यूमेंटरी के रूप में इसका वीडियो जारी किया गया। इस वीडियो के आखिर में राहुल गांधी ने केंद्र सरकार से देश के सबसे गरीब 13 करोड़ परिवारों को 7,500 रुपये देने की मांग भी की है।
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वहीं, भाजपा ने एक बार फिर राहुल गांधी पर मजदूरों के तकलीफ पर राजनीति करने का आरोप लगाया। पार्टी प्रवक्ता जेवीएल नरसिम्ह राव ने कहा, ‘राहुल गांधी कैमरे की राजनीति करने में व्यस्त हैं। वे गैर-कांग्रेस शासित राज्यों में मजदूरों से बात कर रहे हैं, जिसका मकसद राहत पहुंचाना नहीं बल्कि उनके कष्ट पर राजनीति करना है।’
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों और जनसंचार मामलों के जानकारों की मानें तो मौजूदा परिस्थितियों में कांग्रेस जनता तक अपनी पहुंच बढ़ाने और मोदी सरकार को घेरने की रणनीति पर काम कर रही है। मजदूरों के साथ बातचीत का वीडियो यूट्यूब चैनल पर जारी करना, इसी रणनीति का हिस्सा लगता है।
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भाजपा को उसी के भाषा में जवाब देना और इसमें कामयाब दिखना
कांग्रेस की राजनीति को करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार और ‘24 अकबर रोड’ किताब के लेखक रशीद किदवई हमें बताते हैं, ‘यह कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति है। राहुल गांधी खुद को नरेंद्र मोदी के ऐसे विकल्प के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, जो लोगों की सुनता है। पॉलिसी एक्सपर्ट से बात कर रहा है। समस्याओं से जूझने और समझने का प्रयास कर रहा है।’
मौजूदा हालात में राहुल गांधी की सक्रियता अहम दिखती है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने न केवल पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया, बल्कि पहले के मुकाबले कम सक्रिय भी दिख रहे थे। लेकिन लॉकडाउन की अवधि के दौरान एक बार वे फिर पार्टी को आगे से लीड कर रहे हैं। इस दौरान सड़कों पर प्रवासी मजदूरों की जो तकलीफें हुई हैं, उसने मोदी सरकार को घेरने के लिए राहुल गांधी को एक बड़ा मौका दे दिया है। चूंकि, लॉकडाउन के दौरान जनसभा पर रोक है, इसलिए वे अपनी बात पहुंचाने के लिए भाजपा की तरह सोशल मीडिया का बड़े पैमाने पर लगातार इस्तेमाल कर भी कर रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार और ‘नरेंद्र मोदी : एक शख्सियत, एक दौर के लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय इसे लोकतंत्र का नैचुरल प्रोसेस मानते हैं। वे हमें बताते हैं, ‘मोदी सरकार जिन पैरों पर खड़ी है, उनमें एक प्रोपेगेंडा भी है। इसका जवाब प्रोपेगेंडा ही दे सकता है। मोदी सरकार को उसी भाषा में काउंटर करना होगा।’
राहुल गांधी का प्रवासी मजदूरों से मिलने की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होना और फिर मोदी सरकार की इस पर जाहिर प्रतिक्रिया यह दिखाता है कि कांग्रेस इस रणनीति में कामयाब हो रही है।
बीती 17 मई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राहुल गांधी के मजदूरों से मिलने पर काफी सख्त प्रतिक्रिया दी थीं। केंद्रीय मंत्री ने कहा था, ‘जब वे (मजदूर) दु:ख के साथ पैदल जा रहे हैं तो उनका टाइम बर्बाद करते हुए, उनके पास बैठकर बात करना, बातचीत करना। उससे बेहतर होता उनके साथ पैदल जाकर उनके बच्चे को, उनके सूटकेस को साथ कैरी (ढोकर) करके बात करते चलते।’ निर्मला सीतारमण ने जिस तेवर में ये बातें कही थीं, उसकी सोशल मीडिया में काफी आलोचना भी हुई थी।
इस पर नीलांजन मुखोपाध्याय की मानें तो राहुल गांधी ने जिस तरह प्रवासी मजदूरों से बातचीत की है, उससे भाजपा को परेशानी हो रही है और उसे लग रहा है कि कोई उसे टक्कर दे रहा है। उनको लगा कि राहुल गांधी ने इस बार की बाजी मार ली है।
कोरोना आपदा के बाद राजनीतिक अभियान का बदलता स्वरूप और इसके अनुरूप रणनीति
18 मई से लागू लॉकडाउन- 4 में पहले के मुकाबले काफी ढील दी गई है। लेकिन देश में कोरोना या कोविड-19 से संक्रमित लोगों का आंकड़ा सवा लाख से अधिक पहुंच गया है। इन परिस्थितियों में माना जा रहा है कि राजनीतिक अभियान के तौर-तरीकों में बदलाव देखने को मिल सकते हैं। इनमें एक देश की जनता तक अपनी बातों को पहुंचाना है। इसके लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म- ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप और यूट्यूब अहम है। राजनीतिक विश्लेषक भी इसकी बढ़ती भूमिका की बात करते हैं।
रशीद किदवई का मानना है, ‘लॉकडाउन जैसी स्थिति में लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए सत्ता पक्ष के संसाधनों सामने विपक्ष की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। हालांकि इस दौरान राहुल गांधी ने प्रवासी मजदूरों के मुद्दे की संवेदनशीलता को देखते हुए इसे सोशल मीडिया (यूट्यूब) पर जारी कर दिया, जिससे इस पर व्यापक चर्चा हो सके।’
साल 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से हमने लगातार देखा है कि भाजपा सहित अन्य राष्ट्रीय पार्टियां लोगों तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करती रही हैं। कोरोना महामारी के पूर्व का समय है, जब बड़ी संख्या में जनसभाएं की जाती थीं और इसमें 50,000 से लेकर एक लाख तक की संख्या में लोगों का जमावड़ा दिखता था। लेकिन अब माना जा रहा है कि इस आपदा के खत्म होने के बाद भी एक लंबी अवधि तक पहले की तरह जनसभाएं नहीं हो पाएंगी। इस परिस्थिति में सोशल मीडिया ही राजनीतिक प्रचार अभियान का एक बड़ा हिस्सा होगा।
इस पर नीलांजन मुखोपाध्याय का कहना है, ‘इस प्रोसेस में कांग्रेस ने पहला कदम रखा है। लेकिन आगे देखना होगा कि वह इसे बनाए रख पाती है या नहीं।’ इसके आगे वे दोनों पार्टियों के बीच एक अंतर की ओर भी इशारा करते हैं। वे कहते हैं, ‘भाजपा के निचले स्तर के कार्यकर्ता जमीन पर काम नहीं कर रहे हैं बल्कि सारा अभियान या प्रचार व्हाट्सएप नेटवर्क पर चल रहा है। कांग्रेस को भी इस तरह की कोशिश करनी पड़ेगी।’
अभिजित बनर्जी और रघुराम राजन के साथ राहुल गांधी की बातचीत के मायने
प्रवासी मजदूरों के साथ बातचीत से पहले राहुल गांधी ने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजित बनर्जी और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन से बात की थी। इन दोनों के साथ बातचीत के वीडियो भी राहुल गांधी के यूट्यूब चैनल पर मौजूद है। इसमें वे कोरोना महामारी, लॉकडाउन और इसके चलते भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव पर बात करते हैं। राहुल गांधी की इस कवायद को एक नई पहल के रूप में देखा गया। लेकिन साथ में इसकी आलोचना भी हुई है और मामले पर राजनीति विश्लेषक अपनी अलग-अलग राय रखते हैं।
रशीद किदवई का कहना है, ‘पार्टी इसे इस रूप से दिखाना चाहती थी कि कोई आदमी (प्रधानमंत्री) कितना भी महत्वपूर्ण और शक्तिशाली हो, आपदा के सामने उसका कोई बस नहीं चलता। इस समय विषय के जानकारों लोगों को साथ लाना चाहिए। राहुल गांधी की ऐसी छवि पेश की जा रही है, जिसे किसी से पूछने या फिर सलाह लेने में कोई संकोच नहीं है।’
वहीं, नीलांजन मुखोपाध्याय इसे बेमतलब की कवायद मानते हैं। वे कहते हैं, ‘इन संवादों में राहुल गांधी एक ऐसे स्टूडेंट के रूप में दिखें जिनको अर्थव्यवस्था की कोई समझ ही नहीं है। मुझे कुछ समझ नहीं आया कि राहुल गांधी क्या हासिल या साबित करना चाहते थे और किसके लिए! जो पैदल चलने वाले लोग हैं उनको इनके बारे में नहीं पता भी नहीं होगा। इसका कोई असर नहीं था।’
लोगों के साथ संवाद स्थापित करने को लेकर यह पहल कितना कारगर है
बीते एक हफ्ते के दौरान राहुल गांधी के प्रवासी मजदूरों के साथ मुलाकात, निर्मला सीतारमण का इस पर प्रतिक्रिया और फिर इससे संबंधित वीडियो को यूट्यूब पर जारी करने लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के साथ आम लोगों के बीच काफी बहस हुई है।
इस बारे में एक तबके का मानना है कि यह कांग्रेस द्वारा मुद्दे का राजनीतिकरण करना है। वहीं, दूसरे तबका राहुल गांधी की सक्रियता को उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है। इनका मानना है कि अब तक जिस तरह मीडिया और राजनीतिक परिदृश्य में प्रवासी मजदूरों का मुद्दा चर्चा से गायब रहा है, राहुल गांधी की इस पहल ने इस मुद्दे को केंद्र में ला दिया है। साथ ही, इसके चलते मोदी सरकार भी दबाव में आती दिख रही है।
इन बातों के अलावा लोगों के साथ संवाद बनाने के इस तरीके को समझने के लिए हमने नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में हिंदी पत्रकारिता के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. हेमंत जोशी से बात की। वे इस वीडियो को कोरोना महामारी के दौरान लोगों के बीच अपनी सक्रियता को दिखाने के लिए कांग्रेस के प्रचार का अच्छा तरीका बताते हैं।
हालांकि, वे जमीनी कार्यकर्ताओं की सक्रियता के अभाव में सोशल मीडिया के सीमित रूप में असरकारी होने की बात भी करते हैं। डॉ. हेमंत जोशी आगे कहते हैं, ‘जमीन पर जो पार्टी के कार्यकर्ता हैं, जब तक वे जनता के बीच नहीं होंगे, इस तरह की पहल का सीमित असर होगा।’
कोरोना संकट को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशव्यापी लॉकडाउन 25 मार्च ले लागू किया था। लेकिन, इससे करीब डेढ़ महीने पहले 12 फरवरी, 2020 को एक ट्वीट में राहुल गांधी ने सरकार को सावधान करने की कोशिश की थी। उन्होंने लिखा था, ‘कोरोना वायरस हमारे लोगों और हमारी अर्थव्यवस्था के लिए काफी गंभीर खतरा है। मेरा मानना है कि सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही है। सही समय पर कदम उठाना काफी जरूरी है।’
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वहीं, उन्होंने लॉकडाउन के सीमित असर होने और अधिक टेस्टिंग किए जाने पर जोर दिया। इसके अलावा राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश सहित कुछ राज्यों द्वारा श्रमकानूनों में संशोधन के खिलाफ भी ट्वीट कर अपना विरोध जाहिर किया।
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इन बातों से यह साफ दिखता है कि राहुल गांधी ने कोरोना संकट के समय एक सक्रिय विपक्ष की भूमिका निभाई है। इसमें उन्होंने सोशल मीडिया का एक एक अहम औजार के रूप में इस्तेमाल किया है। वहीं, उन्होंने अपनी पार्टी का भी नेतृत्व आगे आकर किया है। यानी बीते साल राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद खराब स्वास्थ्य के बावजूद सोनिया गांधी का कार्यकारी अध्यक्ष पद पर नियुक्त होने से सक्रिय नेतृत्व की जो कमी कांग्रेस के भीतर महसूस की जा रही थी, उसे लॉकडाउन के दौरान राहुल गांधी की सक्रियता ने कम करने की कोशिश की है।
इससे पहले राजनीतिक गलियारों में इस बात की संभावना जाहिर की जा रही थी कि कांग्रेस का नेतृत्व प्रियंका गांधी वाड्रा के हाथों में जा सकता है। लेकिन, प्रियंका की राजनीतिक गतिविधियों को देखते हुए यह कहना मुश्किल नहीं है कि उन्हें उत्तर प्रदेश की राजनीति तक ही सीमित किया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की जिम्मेदारी अभी भी राहुल गांधी पर ही है और इसमें कांग्रेस उनके पीछे खड़ी दिखती है।