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विमर्श

सत्ता की गोदी में समाए मीडिया के मालिक और जनता की गाली सुन रहे 'बेचारे' रिपोर्टर

Nirmal kant
17 Nov 2019 6:39 AM GMT
सत्ता की गोदी में समाए मीडिया के मालिक और जनता की गाली सुन रहे बेचारे रिपोर्टर
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सब कुछ ऊपर से तय हो रहा है। रिपोर्टर आंखों देखी घटना को भी जस का तस बयान नहीं कर रहा है। जैसा कि पत्रकारिता का सिद्धांत कहता है कि रिपोर्टर का काम केवल सामने घट रही घटना को जस का तस बयान करना है, लेकिन पिछले कुछ सालों से ऐसा नहीं हो रहा है और रिपोर्टर चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहा है। उससे घटना को किस नजरिए से देखना है, यह फीड कर दिया जाता है।

मीडिया के हो रहे विरोध पर एस राजू की टिप्पणी.....

हाल ही में एक-दो वीडियो बहुत वायरल हो रहे हैं, जिसमें जेएनयू के छात्रों द्वारा संवाददाताओं के समाने नारेबाजी की जा रही है। इसे दो तरह से वायरल किया जा रहा है। एक वे लोग जो गोदी मीडिया से नाराज हैं और दूसरा वे लोग जो गोदी मीडिया का हिस्सा हैं और यह कहकर वीडियो वायरल कर रहे हैं कि यह प्रेस की आजादी पर हमला है।

भी तक यह नहीं पता चल पाया है कि जिन दो मीडिया कर्मियों के सामने यह प्रदर्शन किया गया, वे इसके बारे में क्या सोचती हैं? बहुत संभव है कि वे इस बारे में कुछ खास नहीं सोच रही होंगी और सोच भी रही होंगी तो वे सार्वजनिक होने के चांस बहुत कम है।

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सकी वजह यह है कि वे दो लड़कियां ही नहीं, बल्कि फील्ड में काम कर रहे रिपोर्टर की अपनी कोई सोच नहीं होती। ऐसा खासकर आज के दौर में हो रहा है। फील्ड रिपोर्टर केवल रोबोट की तरह काम कर रहे हैं। उनके भीतर जो फीड कर दिया जाता है, उससे इतर वे कुछ नहीं सोचते या सोचती हैं। अगर उनकी अपनी कोई सोच है भी, बल्कि होती भी है, लेकिन वे जानते हैं कि अगर उन्हें नौकरी करनी है तो वही करना होगा, जो 'ऊपर' से कहा जाएगा।

यानी कि सब कुछ ऊपर से तय हो रहा है। रिपोर्टर आंखों देखी घटना को भी जस का तस बयान नहीं कर रहा है। जैसा कि पत्रकारिता का सिद्धांत कहता है कि रिपोर्टर का काम केवल सामने घट रही घटना को जस का तस बयान करना है, लेकिन पिछले कुछ सालों से ऐसा नहीं हो रहा है और रिपोर्टर चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहा है। उससे घटना को किस नजरिए से देखना है, यह फीड कर दिया जाता है।

गोदी मीडिया काल में यह बहुत हो रहा है। अब चूंकि रिपोर्टर ही जनता से सीधा संवाद करता है तो उसके चैनल या अखबार के प्रति जनता की क्या सोच है, उसे ही इसका सामना करना पड़ता है। मतलब, मालिकों व संपादकों के कर्मों का फल रिपोर्टर को भुगतना पड़ता है। अब ऐसी हालत में रिपोर्टर को क्या करना चाहिए?

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गर रिपोर्टर समझदार है तो फील्ड में उसे सामने के लोगों के व्यवहार को समझते हुए उन्हें अपनी 'मजबूरी' समझाने की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन अगर वह फील्ड में अपने मालिक या संपादक के पक्ष में अड़ जाता है तो जाहिर सी बात है कि उसे विरोध का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में, अगर उसके पास तर्क नहीं हैं तो उसे तीखे विरोध का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए और कम से कम प्रेस की स्वतंत्रता की दुहाई तो नहीं ही देनी चाहिए।

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