COVID-19 के संकट ने दुनिया के मेहनतकशों को बता दिया, कोरोना से बड़ी बीमारी है पूंजीवाद
कोरोना महामारी में अधिकतर समाजवादी मुल्यों वाले देश कोविड 19 के असर से वास्तविक तौर पर उबर कर वापस अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं, जबकि कट्टर पूंजीवादी देश संक्रमितों का और इससे होने वाली मौतों का आंकड़ा गिनने में व्यस्त हैं...
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
यह पूंजीवाद का ही असर है जो डेढ़ महीने से चली आ रही श्रमिकों की परेशानी सरकार को दिखाई नहीं देती, और जब दिखाई देती है तब आर्थिक पॅकेज के नाम पर एक जुमला हवा में उछाल दिया जाता है। एक ऐसा जुमला, जिसपर वित्तमंत्रियों की जुगलबंदी अगले पांच दिनों तक प्रवचन सुनाती है। इससे श्रमिकों को तो कुछ नहीं मिला, अलबत्ता पूरी दुनिया को पता चल गया कि हमारी “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” वाली सरकार श्रमिकों के लिए कितनी निष्ठुर हो सकती है।
इस पूरे वाकये से यह भी फिर से स्पष्ट हो गया है कि सरकार के लिए श्रमिक और आम आदमी कुछ भी नहीं है। यह जुमला ऐसा था, जिसे सुनकर भी श्रमिकों के पाँव आजतक थमे नहीं हैं, उन्हें भी पता है कि इस सरकार के जुमले कभी हकीकत नहीं होते। अब जो कुछ भी देश में हो रहा है वह पूंजीवाद की चरम अवस्था है, जहां कोविड 19 महामारी के दौर में भी केवल कुछ उद्योगपतियों और पूंजीपतियों का भला किया जाता है और बाकी आबादी का शोषण।
हमारे देश के साथ ही दुनिया के अधिकतर देश इस समय कट्टर पूंजीवाद के अधीन हैं। पूंजीवाद सबसे पहले सरकारों की प्राथमिकताएं अपने अनुरूप करता है और इसका नतीजा भारत समेत पूरे दुनिया में दिख रहा है, न्यूज़ीलैण्ड और नोर्वे, फ़िनलैंड जैसे कुछ यूरोपीय देश इसका अपवाद हैं क्योंकि वहां समाजवाद और कुछ हद तक साम्यवाद हावी है। वर्तमान में अधिकतर समाजवादी देश कोविड 19 के असर से वास्तविक तौर पर उबर कर वापस अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं, जबकि दूसरे देश संक्रमितों का और इससे होने वाली मौतों का आंकड़ा गिनने में व्यस्त हैं।
संबंधित खबर : अमेरिका में अब तक कोरोना से 1 लाख से ज्यादा मौतें, मगर ट्रंप को लगता है WHO और चीन को आंखें दिखाने से मिल जायेगा इलाज
पूंजीवादी सरकारों वाले देश रोज संक्रमितों के बढ़ते आंकड़ों के बाद भी पूंजीपतियों के कहने पर खतरनाक तरीके से अर्थव्यवस्था वापस खोल रहे हैं। जितने भी पूंजीवादी व्यवस्था वाले देश हैं, सबमें स्वास्थ्य महामारी होने के बाद भी स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को हरेक नीतिगत फैसले से अलग रखा गया, और हरेक फैसला अफसरशाही, राजनीतिज्ञ और पूंजीपति लेते रहे।
पीपीई किट के ही उदाहरण को लें – प्रधानमंत्री में आत्मनिर्भरता वाले संबोधन में बहुत जोर देकर तथ्यहीन ही सही पर महामारी में भी अवसर का उदाहरण देते हुए बताया था कि पीपीई किट निर्यात किये जा रहे हैं, पर प्रधानमंत्री जी क्या यह बता पायेंगें कि अपने देश के सभी स्वास्थ्यकर्मियों को और दूसरे आवश्यक सेवायें देने वालों को पीपीई किट उपलब्ध कराया गया है? प्राइवेट हॉस्पिटल सबको पीपीई किट इसलिए उपलब्ध नहीं कराते क्योंकि इससे मालिक का नफ़ा थोडा कम हो जाएगा।
सरकार सभी जरूरतमंदों को इसलिए आवश्यक उपकरण इसलिए उपलब्ध नहीं कराती क्योंकि इससे बजट पर बोझ बढेगा, फिर टैक्स बढ़ाकर भरपाई करनी होगी और इससे पूंजीपति नाराज हो जायेंगे। नतीजा सबके सामने है – भारी संख्या में डॉक्टर और नर्सें, सफाईकर्मी और सुरक्षाबल के जवान कोविड 19 की चपेट में आ गए और अनेकों की मौत भी हो गई। इसके बाद भी, पूंजीवादी व्यवस्था में हालात नहीं बदलते।
संबंधित खबर : ज्यां द्रेज ने मोदी के हर गलत फैसले से पहले देश को चेताया, लेकिन उनकी न समाज सुनता है न सरकार
कोविड 19 का आरम्भ भले ही चीन से हुआ हो, पर कोरोनावायरस तो पूंजीवादी व्यवस्था की ही देन है, जिसने सारे प्राकृतिक संसाधनों को अपनी जागीर समझ कर नष्ट कर डाला। इससे पूंजी तो लगातार बढ़ती रही, पर खतरनाक वायरस, बैक्टीरिया, जानवर और प्रदूषण इसानों की बस्तियों तक पहुँच गए और लोग हरेक दिन असमय मरते जा रहे हैं। सभी आविष्कार भी पूंजीवादी व्यवस्था को बढाने के लिए ही उपयोग में आते हैं।
इस समय कोविड 19 का दौर है, पूरी दुनिया महज 150 दिनों से इसकी गिरफ्त में है – जाहिर है इस समय इसकी वैक्सीन या फिर दवा यदि सफल हो जाती है तो फिर दवा कम्पनियां मालामाल हो जायेंगीं। पूरे दुनिया की छोटी बड़ी कम्पनियां और अनुसंधान संस्थान इसी काम में लगे हैं। दूसरी तरफ एड्स, टीबी, मलेरिया जैसे रोग भी हैं जो कुछ दशकों से लेकर अनेक शताब्दियों से गरीबों को मार रहे हैं पर इनकी वैक्सीन आज तक नहीं बनी। कारण स्पष्ट है, गरीब देशों के रोग पूंजीपतियों की आमदनी अधिक नहीं बढ़ा सकते, इसलिए इनपर काम ही नहीं होता।
सच तो यह है कि पूंजीवाद हरेक समय और हरेक दिन लोगों को मारता है। यही प्रचार करते करते पूंजीवाद लगभग पूरी दुनिया तक पहुँच गया। पूंजीवाद के समर्थक कितना गलत प्रचार करते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है – 1950 के आस-पास भारत (समाजवादी पूंजीवाद) और चीन (साम्यवाद) में आबादी की औसत उम्र 40 वर्ष थी। वर्ष 1979 तक भारत में औसत उम्र 54 वर्ष और चीन में 69 वर्ष तक पहुँच गयी।
संबंधित खबर : स्वदेशी का मंत्रोच्चार करती मोदी सरकार के लिए भूखे-प्यासे दम तोड़ रहे प्रवासी मजदूरों का नहीं कोई मोल
पूंजीवाद का आरम्भ ही गुलामी से होता है। सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड और कुछ अन्य यूरोपीय देशों की औद्योगिक क्रांति (जो पूंजीवाद का आधार बना) के मूल में करोड़ों गुलाम थे जिन्हें अफ्रीका और एशिया के देशों से जलपोतों में भरकर मैनचेस्टर जैसे इलाकों में अमानवीय तरीके से रखा गया और उद्योगों में मुफ्त में या बहुत कम तनखाह पर काम कराया गया। यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उस समय मशीनें कम थीं, इस कारण सारा काम मजदूरों से ही कराया जाता था। इस पूरी प्रक्रिया में लाखों मजदूरों की मृत्यु हुई। पूरे पूंजीवाद का आधार ही इन्ही मजदूरों का खून-पसीना है।
पूंजीवाद की सबसे बड़ी विशेषता है कि अर्थ व्यवस्था के साथ ही धीरे-धीरे सारे प्राकृतिक संसाधन सिमट कर कुछ लोगों के हाथ में चला जाता है, जमीन इनके हाथ में चली जाते है, पहाड, नदियाँ सब कुछ इनका हो जाता है। जो आबादी इनका विरोध करती है उसे नक्सली, माओवादी, आतंकवादी का तमगा दे दिया जाता है। दुनियाभर में यही हो रहा है, और अपने अधिकारों के लिए या अपने जल, जमीन और जंगल की लड़ाई लड़नेवाले बड़ी तादात में सरकार के समर्थन से पूंजीपतियों की फ़ौज से मारे जा रहे हैं।
अब तो कोविड 19 ने पूंजीपतियों को नए सिरे से एकजुट कर दिया है, दुनिया में बेरोजगारी, भूख, गरीबी और बढ़ेगी, बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों पर भी इनका कब्ज़ा होगा और लोग मर रहे होंगें।