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दुनिया

भारत के लिए यह वक्त मोहरा बनने का नहीं, अमेरिका को इस्तेमाल कर चीन को सबक सिखाने का है!

Nirmal kant
4 Jun 2020 9:28 AM GMT
भारत के लिए यह वक्त मोहरा बनने का नहीं, अमेरिका को इस्तेमाल कर चीन को सबक सिखाने का है!
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अब वक्त आ गया है कि अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में अमेरिका का मोहरा बनने की बजाय भारत अमेरिका का इस्तेमाल करना सीखे और अमेरिका का भौकाल दिखाकर अपनी शर्तों पर चीन के साथ अपने सारे लंबित मुद्दे पूरे ठसक से निबटाए...

तैश पोठवारी की टिप्पणी

जनज्वार। कोरोना त्रासदी में चीन की गलतियों ने उसे वह सुनहरा अवसर दे दिया है जिसका इस्तेमाल करने से वह हरगिज नहीं चुकेगा। यह दखल आर्थिक प्रतिबंध, कूटनीतिक रूप से चीन के अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को कम करने तक होगा या सीधे कोई सैन्य दखल या युद्ध, यह बहुत हद तक अमेरिका के इस कदम में भारत की कितनी भागीदारी होगी इस पर निर्भर करता है।

शिया हमेशा से अमेरिका के लिए सिरदर्द रहा है। पहले शीत युद्ध के समय चीन और रूस के सफल प्रयोगों के बाद अंतर्राष्ट्रीय वैचारिक और राजनीतिक मार्क्सवादी संक्रमण को रोकने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देना और यह इस हद तक था अमेरिका का चांद पर उतरना सिर्फ रूस को नीचा दिखाने की होड़ का परिणाम था जब जीडीपी का एक बड़ा हिस्सा पूरी दुनिया में पूंजीवाद के राजनीतिक मॉडल के रूप में अमेरिका को रूस और समाजवाद से बेहतर स्थापित करने के लिए खर्च किया जाता था।

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सैन्य दखल और युद्ध जिनमें गरीब देशों को आपस में लड़वाना, हथियारों के अपने बाजार को गतिशील रखना, तीसरी दुनिया के देशों में अपनी पिट्ठू सरकारें बनवाना, अपने दुश्मनों के खिलाफ उनके पड़ोसी देशों का सामरिक और सैन्य रूप से इस्तेमाल करना अमेरिकी राजनीतिक मॉडल का आधार हैं।

एशिया में अमेरिका के सैन्य प्रयोग

फगानिस्तान और पाकिस्तान में आज का इस्लामिक आंतकवाद रूस के खिलाफ पाकिस्तान के सहयोग से अफगानिस्तान को इस्तेमाल करने के बाद बचा एक बाय प्रोडक्ट है और इस बाय प्रोडक्ट का अमेरिका ने पूरी दुनिया में सैन्य दखल के लिए बखूबी इस्तेमाल किया है। अमेरिकी व्यवस्था में मुनाफा और बाजार को नियंत्रित करने वाली बड़ी पूंजीवादी कंपनियां ही सबकुछ हैं। जब अमेरिका किसी से जंग की बात करें तो समझ जाइए कि वह मुनाफे की बात कर रहा है।

ज जब पूरी दुनिया में मार्क्सवादी और समाजवादी मॉडल पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है, अमेरिका के लिए सबसे बड़ी सिरदर्दी है दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर और अमेरिका के एक बड़े बाजार को हथिया चुके चीन को ठिकाने लगाना।

शीत युद्ध में एक ऐसा ही प्रयोग नेहरू के जरिए अमेरिका कर चुका है। जब अमेरिका के कहने पर नेहरू ने चीन से लड़ाई की थी। वह नेहरू के जीवन की सबसे बड़ी राजनीतिक, वैचारिक और सैद्धांतिक भूल थी। इसी सदमे में उनके जान चली गई।

बहुत समय से एक ऐसे माहौल और बहाने के इंतजार में था जब वह खुले रूप से चीन के खिलाफ एक बड़ी अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक एवं सैन्य कार्रवाई को अंजाम दे सके। अमेरिका को पता था यह आसान नहीं है, इसके लिए बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय समर्थन और खासकर दक्षिण एशिया में एक बड़ा सैन्य दखल और भारत का साथ चाहिए।

पिछले कुछ समय से चीन से चले आ रहे सीमा विवाद और हाल के लद्दाख में चीनी सेना का अतिक्रमण यह एक ऐसी परिस्थिति है जिसका हर हाल में अमेरिका चीन के खिलाफ एशिया में एक बड़ी दीर्घकालीन बड़ी योजना बनाने में कर सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि पिछले कुछ वर्षों से चीन भारत के लिए एक बड़े खतरे के रूप में उभरा है और उसे एक माकूल जवाब देना जरूरी है।

ब वक्त आ गया है कि अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में अमेरिका का मोहरा बनने की बजाय भारत अमेरिका का इस्तेमाल करना सीखे और अमेरिका का भौकाल दिखाकर अपनी शर्तों पर चीन के साथ अपने सारे लंबित मुद्दे पूरे ठसक से निबटाए, न कि अमेरिका के कहने पर नेहरू जैसी कोई पुरानी गलती दोहराए और अमेरिका के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थिति और उसकी हार्दिक इच्छा होगी। भारत एवं चीन के बीच एक युद्ध या सैनिक टकराव हो सकता है इसके लिए कूटनीतिक प्रयास अमेरिका ने भारत में कर शुरू कर दिए हो जिसमें तमाम तरह के भारत को सब्जबाग दिखाए हो। ठीक वैसे सब्जबाग जैसे अफगानिस्तान में रूस के खिलाफ लड़ाई के समय और उसके बाद उसके अपने पैदा किए बाद में दुश्मन बन गए ओसामा बिन लादेन को ठिकाने लगाने के लिए उसने पाकिस्तान को दिखाए थे।

पिछले कुछ दिनों से मीडिया की हेडलाइन देखिए- 'ट्रंप और मोदी मिलकर करेंगे चीन पर वार', 'अमेरिका और भारत के गठजोड़ से कैसे निपटेगा चीन।' ब्रांड मोदी पर सबसे बड़ा नकारात्मक असर कोरोना के बाद धराशाई हुई अर्थव्यवस्था और देश की बहुसंख्यक जनसंख्या के बेरोजगार होने से हुआ है जिसका भारत में एक दूरगामी राजनीतिक प्रभाव पड़ना लाजिमी है।

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क ऐसे देश में जब बालाकोट हमले ने पूरे देश का चुनाव बदल के रख दिया था। अमेरिका के साथ मिलकर चीन पर हमलावर रुख मोदी सरकार के लिए एक राजनैतिक संजीवनी का काम कर सकती है और कोरोना काल में बेरोजगारी और भुखमरी के बीच जी रहे भारत में जनता के सर्वाधिक महत्व के मुद्दों को लंबे समय तक राष्ट्रवाद और देशभक्ति के जुनून में निपटा सकती है।

लेकिन लाख टके का प्रश्न यह है कि क्या अमेरिका के कहने पर भारत चीन के खिलाफ युद्ध या सैनिक टकराव में जा सकता है ? शायद नहीं और इसमें मोदी का किसी की सलाह न मानना और बस अपने दिमाग से काम लेना शायद पहली बार भारत के काम आ सकता है और वैसे भी नेहरू की गलतियों के वो विशेषज्ञ हैं, वो हरगिज नेहरू की गलती नहीं दोहराना चाहेंगे।

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