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राजनीति

राम और गाय के नाम पर बढ़ रही सरकार समर्थित हिंसा

Prema Negi
15 July 2019 4:07 AM GMT
राम और गाय के नाम पर बढ़ रही सरकार समर्थित हिंसा
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गाय के नाम पर भीड़ द्वारा हिंसा की 90 प्रतिशत से अधिक घटनाएँ बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हुई हैं और 66 प्रतिशत घटनाएँ ऐसे राज्यों में हुई हैं जहाँ बीजेपी का शासन था....

महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

पिछले महीने अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट को हमारी सरकार ने दो दिनों के भीतर ही आनन-फानन में अस्वीकृत कर दिया था। रिपोर्ट थी, एनुअल 2018 इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम रिपोर्ट। इसके अनुसार सत्तारूढ़ बीजेपी के वरिष्ठ सदस्य अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भड़काऊ बयान देते रहते हैं और इससे प्रेरित होकर अतिवादी हिन्दू संगठन, जिनको सरकार और पुलिस का समर्थन मिलता है, कभी जय श्री राम के नाम पर तो कभी गाय के नाम पर खुलेआम अल्पसंख्यकों से मारपीट करते हैं और हत्या भी कर देते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष जनवरी से नवम्बर के बीच ऐसे 18 हमले किये गए, जिसमें कम से कम 8 लोगों की हत्या सरेआम भीड़ द्वारा की गयी। मारे गए सभी अल्पसंख्यक समुदाय के थे। मॉब लिंचिंग और जय श्री राम के नाम पर होने वाली हिंसक घटनाएं इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि लेख लिखने से लेकर प्रकाशित होने तक ही एक—दो मामले और सामने आ जाती हैं।

स रिपोर्ट को सरकार ने खारिज कर दिया और कहा हम संविधान के अनुसार धर्मनिरपेक्षता का पूरी तरह से पालन करते हैं, सभी वर्गों को सुरक्षित रखने का काम करते हैं और हमारे आतंरिक मामलों में अमेरिका को दखल नहीं देना चाहिए। अब जरा हमारे देश की हकीकत भी देखिये, इस रिपोर्ट के आसपास के दिनों में ही झारखंड में तबरेज़ अंसारी की हत्या हो गयी और उनकी हत्या करने वाले पुलिस संरक्षण में आराम कर रहे हैं।

सम के बारपेटा में भी जय श्री राम नहीं कहने पर एक युवक की हत्या की गयी। मुंबई के टैक्सी ड्राईवर फज़ल उस्मान खान को भी भीड़ ने जय श्री राम नहीं कहने पर पीटा। कोलकाता के मदरसा शिक्षक हफीज मोहम्मद शाहरुख हलधर जब रेलगाड़ी में सफ़र कर रहे थे, तब पहले तो उनके पहनावे पर लोगों ने फब्तियां कसीं और फिर जय श्री राम नहीं कहने पर चलती रेलगाड़ी से उन्हें नीचे फेंक दिया गया।

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ह सब उस समाज की हकीकत है जहां प्रधानमंत्री “सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास” का नारा गढ़ते हैं। देश के मीडिया की तो हिम्मत नहीं है, पर विदेशी मीडिया और संस्थान समय समय पर देश में अल्पसंख्यकों पर सरकार समर्थित हिन्दू अतिवादी संगठनों द्वारा की जाने वाले हिंसा पर रिपोर्ट प्रकाशित करते रहे हैं।

ह्यूमन राइट्स वाच नामक संस्था द्वारा पिछले वर्ष प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में गाय के नाम पर या इसी तरह के अन्य बहानों के नाम पर हिंसा की खुली छूट है। भीड़ द्वारा मारे गए लोगों में अधिकतर मुस्लिम या फिर अल्पसंख्यक लोग हैं और जो लोग ऐसी हिंसा करते हैं उन्हें बचाने में स्थानीय प्रशासन, स्थानीय राजनेता और पुलिस सभी संलग्न रहते हैं।

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रिपोर्ट में सरकार से अपील की गयी थी कि इस तरह की हिंसा में संलग्न लोगों को कड़ी से कड़ी सजा सुनिश्चित करे। इसका आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने भी दिया था, पर इस आदेश का पालन करता कोई राज्य नहीं दिखाई देता है। गाय बचाने के नाम पर भीड़ का रवैया अभी वही चल रहा है। रिपोर्ट के अनुसार मई 2015 से दिसम्बर 2018 के बीच कम से कम 44 व्यक्ति गौमांस के शक में या फिर गाय के व्यापार के शक में मारे जा चुके हैं। इन 44 व्यक्तियों में से 36 मुस्लिम थे।

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गाय के आरम्भ से ही पवित्र माना जाता रहा है, पर गाय का नाम लेकर भीड़ का ऐसा तांडव नया चलन है। केरल, गोवा और तमिलनाडु के बहुत से हिन्दू गौमांस खाते हैं, अल्पसंख्यक समुदाय के लिए यह प्रोटीन का सबसे सस्ता स्त्रोत है और अल्पसंख्यक समुदाय ही गाय के मरने के बाद का काम करता है।

र्ष 2014 से पहले के पांच वर्षों की तुलना में इसके बाद के चार वर्षों के दौरान जनता के चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा साम्प्रदायिक भाषणों में 500 प्रतिशत का इजाफा हो गया है, और ऐसा करने वाले अधिकतर प्रतिनिधि बीजेपी के हैं। गाय के नाम पर भीड़ द्वारा हिंसा की 90 प्रतिशत से अधिक घटनाएँ बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हुई हैं और 66 प्रतिशत घटनाएँ ऐसे राज्यों में हुई हैं जहाँ बीजेपी का शासन था।

ह्यूमन राइट्स वाच की साउथ एशिया डायरेक्टर मीनाक्षी गांगुली के अनुसार इस तरह के घटनाओं की शुरुआत भले ही हिन्दू वोट बटोरने के लिए की गयी हो, पर अब यह सब नियंत्रण के बाहर हो गया है, और निशाना अल्पसंख्यक बन रहे हैं। रिपोर्ट में इस तरह की 11 घटनाओं का विश्लेषण कर यह बताया गया है कि किन कारणों से ऐसे लोगों पर कार्यवाही नहीं की जाती।

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क घटना में हत्या करने वाले ने यह बताया कि उसने हत्या की है, पर स्थानीय पुलिस ने उस स्टेटमेंट को कोर्ट में पेश ही नहीं किया। दूसरी घटना में भीड़ को स्थानीय नेताओं का संरक्षण प्राप्त था इसलिए पुलिस ने मामला उठने ही नहीं दिया।

जून 2018 में जब भीड़ ने गौमांस के नाम पर जब एक मुस्लिम को मार दिया, तब पुलिस में इसे मोटरसाइकिल दुर्घटना का केस बना दिया। रिपोर्ट के अनुसार लगभग हरेक घटना में पुलिस का रवैया एक जैसा ही रहता है, शिकायत दर्ज नहीं करना, घटना की छानबीन नहीं करना, सबूतों को नष्ट करना और यहाँ तक कि हत्या में खुद शामिल हो जाना। घटना की तत्परता से तहकीकात कर मुजरिम को पकड़ने के बजाय पुलिस पीड़ित को, गवाहों को या फिर पीड़ित के सगे-सम्बन्धियों को ही मुजरिम ठहराने के लिए पूरा जोर लगा देती है।

इंडिया स्पेंड नामक संस्था की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 8 वर्षों (2010 से 2017) के दौरान गायों के नाम पर भीड़ द्वारा कुल हमलों में से 51 प्रतिशत मुस्लिम थे, जिन्हें निशाना बनाया गया और इसमें मरने वाले कुल 25 व्यक्तियों में से 84 प्रतिशत मुस्लिम थे। पिछले 8 वर्षों के दौरान इस तरह की जितनी भी घटनाएँ हुईं उनमें से 97 प्रतिशत घटनाएँ मई 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हुईं। ये सभी तथ्य इतना तो उजागर करते हैं कि गाय या दूसरे मामलों में अतिवादी हिन्दू संगठनों के सदस्य भीड़ की शक्ल में मुस्लिमों और अल्पसंख्यकों को मार रहे हैं और इन्हें सरकारी समर्थन प्राप्त है।

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वाशिंगटन पोस्ट ने भीड़ द्वारा हत्याओं की हरेक घटना को प्रकाशित किया है। इसके हरेक समाचार में एक वाक्य जरूर मिलता है, भारत में कुल जनसंख्या में से 80 प्रतिशत हिन्दू हैं और मात्र 14 प्रतिशत मुस्लिम हैं। 23 जुलाई 2018 को प्रकाशित समाचार के अनुसार पिछले कुछ महीनों के दौरान भीड़ ने 25 व्यक्तियों की हत्या बच्चा चुराने के बहाने से की और 20 लोगों की हत्या गाय के नाम पर कर दी।

स समाचार में राहुल गांधी के ट्वीट, “मोदी के क्रूर भारत” का भी जिक्र है। हिन्दू अतिवादी संगठन अपने आप को गौरक्षक बताते हैं और इनका सम्बन्ध प्रधानमंत्री मोदी के बीजेपी से है।

21 जुलाई 2018 के द गार्डियन के अनुसार अलवर की घटना के बाद फिर से स्पष्ट है कि हिन्दू-अतिवादी संगठनों का वर्चस्व बढता जा रहा है। ज्यादातर राज्यों में मांस के लिए गाय को मारने पर प्रतिबंध है, फिर भी 2014 में नरेन्द्र मोदी की हिन्दू राष्ट्रवादी सरकार आने के साथ ही गौरक्षा के नाम पर हिंसाएँ तेजी से बढ़ी हैं।

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मानवाधिकार संगठन और मुस्लिमों का कहना है कि मोदी समेत सरकार के अन्य मंत्री इसकी निंदा करने से बचते हैं और पुलिस लचर रवैया अपनाती है। खबर में असदुद्दीन ओवैसी के ट्वीट को भी शामिल किया गया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत में गाय को जीने का मौलिक अधिकार तो है, पर मुस्लिमों को नहीं। मोदी सरकार के 4 साल भीड़ की हिंसा के हैं। मोदी सरकार के दौरान हिन्दू अतिवादी संगठन एक प्राइवेट मिलिट्री जैसा काम कर रहे हैं और क़ानून का उन्हें कई डर नहीं है।

गार्डियन में 23 जुलाई 2018 को प्रकाशित खबर का शीर्षक है, “इंडियन पुलिस टुक टी-ब्रेक बिफोर अटेन्डिंग टू लिंचिंग विक्टिम”। इसमें कहा गया है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में हिन्दू-राष्ट्रवादी पर आरोप लगते रहे हैं कि गाय के नाम पर बढ़ती मुस्लिमों के प्रति हिंसा की सरकार लगातार अनदेखी कर रही है। मावाधिकार संगठन आक्षेप लगा रहे हैं कि हिन्दुओं की हत्यारी भीड़ उसी पार्टी से ताल्लुक रखती है जो 2014 में सत्ता में आयी।

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स्पष्ट है कि ऐसी खबरों पर देश का मीडिया कितने भी लीपापोती करे, पूरी दुनिया में भारत के भीड़ की हिंसा और सरकार की नाकामी के चर्चे हैं। अनेक जन-अधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार अब तो सरकार को शर्म आनी चाहिए कि उसने कैसे भीड़ द्वारा हिंसा को वैध कर दिया है। पर इस सरकार से शर्म की आशा करना बेमानी है, कम से कम पिछले पांच वर्षों का अनुभव तो यही साबित करता है।

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