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समाज

मालिकों के चौतरफा शोषण का शिकार हैं चाय बागान की महिला मज़दूर

Janjwar Desk
20 Aug 2020 7:15 AM GMT
मालिकों के चौतरफा शोषण का शिकार हैं चाय बागान की महिला मज़दूर
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file photo

केरल की तरह तमिलनाडु में भी मज़दूरों के हालत कुछ अलग नहीं हैं, चाय बागान में काम करने वाले मज़दूरों का कहना है कि कड़ी धुप और बरसात में उन्हें घंटों काम करना पड़ता है लेकिन बदले में उन्हें बहुत कम पैसे मिलते हैं....

भारती एस पी की रिपोर्ट

वेस्टर्न घाट्स की कल्पना करते ही दिमाग़ में जो दृश्य उपस्थित होता है उसमें खूबसूरत पहाड़ियां होती हैं और इन पहाड़ियों से सटे चाय बागानों में एहतियात से चाय की पत्तियां चुनती महिलाएं होती हैं। लेकिन चाय बागानों की इस लुभावनी हरियाली के पीछे होती है जी तोड़ मेहनत की दिनचर्या और जीवनयापन के घटिया हालात। इन चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूर बताते हैं किं उन्हें हर दिन 8 घंटे से ज़्यादा काम करने पर मजबूर किया जाता है और वो भी कम तनख्वाह पर। इस इलाक़े के मज़दूर कहते हैं, 'चाय बागान आधुनिक बंधुआ मज़दूरी का एक रूप भर है जिसका कोई अंत है ही नहीं।'

केरल में हाल में हुए भू-स्खलन ने राज्य में चाय बागान मज़दूरों के जीवनयापन संबंधी हालत को उघाड़ के रख दिया। एक बहुत बड़े भू-स्खलन ने इदुक्की ज़िले के मुन्नार पेंतुमुददी स्थान में 70 लोगों को अपनी चपेट में ले लिया। 11 अगस्त को मुन्नार भू-स्खलन में मरने वालों की संख्या 52 पहुंच चुकी थी। ये मज़दूर, जिनमें ज़्यादा तमिलनाडु से थे, एक कमरे के क्वाटर्स में रह रहे थे जहां कम जगह की वजह से एक दूसरे से चिपक कर वो रह रहे थे। यही कारण है कि नुक्सान भी ज़्यादा हुआ।

वेस्टर्न घाट इलाके में ही स्थित बगल के राज्य तमिलनाडु में भी मज़दूरों के हालत कुछ अलग नहीं हैं। चाय बागान में काम करने वाले मज़दूरों का कहना है कि कड़ी धुप और बरसात में उन्हें घंटों काम करना पड़ता है लेकिन बदले में उन्हें बहुत कम पैसे मिलते हैं। मज़दूरों में ज़्यादातर महिलाएं हैं और उनकी शिकायत है कि उन्हें सेहत संबंधी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि उन्हें अपने पेट से बांधते हुए चाय की पत्तियों से भरे टोकरों को अपनी पीठ पर लादना होता है।

हाड़-तोड़ मेहनत लेकिन दाम कम

54 साल की कलियम्मल पिछले 30 सालों से भी ज़्यादा समय से चाय बागान मे काम कर रही है। कुछ साल पहले उसने तय किया कि वो काम छोड़ देगी और अपनी बचत से बेटियों की शादी कर देगी। लेकिन कलियम्मल कहती है कि वह बहुत दिनों तक चाय बागान से दूर नहीं रह पाई और लौट कर आ गई।

कलियम्मल रोज सुबह 8 बजे चाय बागान पहुंचती है और 8 घंटों में उसे 150 किलोग्राम चाय पत्तियां चुननी होती हैं। निसंदेह एक मुश्किल काम है लेकिन वो कहती है कि वह काम में लगी रहती हैं क्योंकि यही एक जरिया है पहाड़ी इलाकों में 'कांजी' (दलिया) हासिल करने का।

उसने कहा, 'सही में ये मुश्किल है। हमें बीच में सिर्फ 1 घंटा मिलता है, खाना खाने के लिए और बाकी समय हमें लगातार खड़ा रहना पड़ता है, 50 किलो का बोझा पीठ पर लादे और पेट पर बांधे। यह काम तनावपूर्ण है और भुगतान भी कम है।'

30 साल पहले कलियम्मल को तनख्वाह के रूप में 15 रुपये मिल रहे थे और अब उसकी मज़दूरी बढ़ कर रोज़ाना 330 रुपये हो गई है। हालांकि उसकी ज़िंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है। उसने बताया, 'नौकरी छोड़ने के बाद मुझे अस्थाई कर्मचारी के रूप में काम करना पड़ा। इसकी वजह से मुझे मकान और चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाएं नहीं मिलीं। सारा पैसा किराया देने में खप जाता है और हाथ में कुछ बचता नहीं है।'

बरसात में तो ज़िंदगी और मुश्किल हो जाती है। वो कहती हैं, 'हमारे सिर पर जोंक गिरती हैं और हमारा खून पीती रहती हैं फिर भी हमें थोड़ी देर काम रोकने की इजाज़त नहीं है और ना ही हमें छुट्टी दी जाती है। कोई मज़दूर अगर बेहोश भी हो जाता है तो होश आने पर उसे तुरंत काम पर लौटना होता है। चंद मिनटों के लिए भी वे लोग दया नहीं दिखाते हैं।'

अपनी ज़िंदगी जीने के हालात से पैदा हुए तनाव के चलते कुछ साल पहले कलियम्मल को दिल का दौरा पड़ा और उसे ओपेन हार्ट सर्जरी करानी पड़ी। बागान के मालिक ने उसका खर्चा नहीं दिया। वो कहती है, 'मेरी सेहत मुझे कोई छूट नहीं दिलवाती है। अगर मैं तय किया काम पूरा नहीं करती हूं तो मुझे तुरंत निकाल दिया जाएगा। बहुत सारी युवतियों ने नौकरी करी और उन्हें निकाल दिया गया। इसलिए अपनी ख़राब सेहत और उम्र के हिसाब से ज़्यादा काम दिए जाने के बावजूद मैं खुद का और अपने पति का पेट भरने की खातिर अभी भी काम कर रही हूं।'

कलियम्मल अकेली ऐसी महिला नहीं है जो इस काम के चलते सेहत से जुडी समस्याओं का सामना कर रही है। वो बोली, 'बहुत सी औरतों ने अपनी बच्चेदानी निकलवा दी है क्योंकि यह कमज़ोर हो जाती है। रोज कई घंटों तक काम करने के चलते बच्चेदानी लटक जाएगी और फिर इसे निकलवाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प हमारे पास नहीं होगा। हमें स्पोंडलाइटिस और आर्थराइटिस रोग भी हो जाते हैं। अगर हम किसी बीमारी के इलाज के लिए छुट्टी लेते हैं तो इसे हमारे खाते में तनख्वाह में कटौती के रूप में दर्ज कर लिया जाता है। इस तरह हम लोग फंस जाते हैं।'

जीवन जीने के भयावह हालात

जिन हालात में मज़दूर जीवन जी रहे हैं वे भी बेहतर नहीं हैं। इस साल तो बरसात ने गुदलार में चाय बागान मज़दूरों के जीवन को तहस-नहस कर दिया है। चाय बागान में काम करने वाले एक मज़दूर रामकुमार ने कहा, 'अभी कुछ दिन पहले ही सरकारी चाय बागान TANTEA में एक मकान का एक हिस्सा गिर गया जिसमें एक लड़का घायल हो गया। पास के एक स्कूल में परिवार को रहने की जगह दी गई है। चायबागानों में जीवन जीने के हालात बुरे हैं और गुदलार तालुका में छोटी दुर्घटनाएं होती रहती हैं।' मज़दूरों का कहना है कि दुर्घटनाएं होती रहती हैं, लेकिन सरकार उन्हें अस्थाई मुआवजा ही देती हैं और उनमे से ज़्यादातर उन्हीं चाय बागानों में अपना जीवन बसर करने के लिए मजबूर होते हैं।

यह बताते हुए कि नीलगिरि की जनसंख्या में ज़्यादातर दलित और श्रीलंका के तमिल मज़दूर हैं, बाथरी ने बताया, 'पेड़ लगाने वाले ज़्यादातर मज़दूर बागान में ही रहते हैं। हालांकि उन्हें दिए गए मकान अक्सर खस्ता हाल में होते हैं और 10 से भी ज़्यादा सालों से ना तो उनकी मरम्मत की गई होती है और ना ही रंग-रोगन। घरों में शौचालय भी नहीं होते हैं। साथ ही साथ मज़दूरों को मनुष्य-पशु संघर्ष भी झेलना पड़ता है। बरसात के मौसम में तो परेशानियां और ज़्यादा बढ़ जाती हैं क्योंकि भू-स्खलन के साथ पेड भी उखड जाते हैं। उखड़े हुए पेड घरों की छतों पर भी गिर जाते हैं।'

चाय बागान मालिकों द्वारा दिए गए मकान ज़्यादातर जंगलों के पास होते हैं या पानी से घिरी जगहों के पास होते हैं जिसकी वजह से वहां रहने वालों का जीवन और अधिक संकट में पड़ जाता है। कोटागिरी में डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने वाले धावमुदलवान कहते हैं, 'घर 250 स्क्वायर फ़ीट में बना होता है जो पति-पत्नी और बच्चों भर का ही होता है। लेकिन तीन बच्चों वाले परिवार के लिए इन घरों में रहना मुश्किल हो जाता है। साथ ही चूंकि इन घरों में शौचालय नहीं होते हैं इसलिए जब वे रात में गांव छोड़ कर बाहर जाते हैं तो वे सांपों और जानवरों का सामना करने के लिए मजबूर होते हैं।'

उसने बताया कि ज़्यादातर घरों की छतें एस्बेस्टस शीट की होती हैं जिसकी वजह से बरसात में छतों के चूने की संभावना रहती है। चाय बागान में काम करने वाली अपनी पत्नी के साथ बागान के क्वार्टर में रह रहे धावमुदलवान कहते हैं, 'एस्बेस्टस की शीट लम्बी चलने वाली बरसात को झेल नहीं सकती हैं और फिर ऊपर से आने वाला पानी घरों में घुसना शुरू कर देगा। बरसात न होने वाले दिनों में भी सांप-बिच्छू घर में घुस सकते हैं। यहां तक कि घरों की मरम्मत कराने के लिए कर्मचारियों को फैक्ट्री मालिकों की आज्ञा लेनी पड़ती है।'

रिटायरमेंट की कोई योजना नहीं

इस सबके बावजूद चाय बागान के मज़दूरों के परिवार को डर सताता है कि सेवा से निवृत्त होने के बाद क्या होगा क्योंकि उनका मकान भी चला जायेगा। धावमुदलवान बोला, 'रिटायर होते ही चाय बागान में काम करने वाले मज़दूर एक ही रात में सड़क पर आ जायेंगे। रिटायर होने के तुरंत बाद मज़दूरों को घर खाली करना होता है और हो सकता है कि की गयी थोड़ी बचत से किराये पर मकान लेना संभव ना हो। रिटायर होने के बाद भी उन्हें एक ठीक-ठाक घर नहीं मिलता है।'

क़ानूनों का उल्लंघन हो रहा है

वृक्षारोपण श्रम क़ानून 1951 के अनुसार प्रत्येक फैक्ट्री मालिक को अपने कर्मचारियों और उनके परिवार के रहने की व्यवस्था करनी चाहिए। चाय के पौधे लगवाने वाले चाय बागान के मालिक को शिशु-गृह (क्रेच) व्यवस्था करनी चाहिए और साफ-सफाई रखने की व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। क़ानून यह भी कहता है कि मज़दूरों को बरसात और ठंढ से बचाने के लिए बागान मालिक को छाते, कम्बल, बरसातियाँ (रेन कोट्स) और दूसरी ज़रूरी सुविधाओं को मुहैय्या कराना चाहिए। वहीं चाय बागान मज़दूरों का कहना है कि ये सारी सुविधाएं दिखावा भर हैं।

नीलगिरि बागान मज़दूर संघ की राज्य इकाई के अध्यक्ष बाथरी आर बोले, 'बरसात के दौरान मज़दूरों को कोट, बूट और गर्म कपड़े दिए जाने चाहिए लेकिन मालिक लोग बरसात का इस्तेमाल मज़दूरों से ज़्यादा पैदावार लेने में करते हैं। बरसात के दौरान चाय के पौधे तेजी से बढ़ते हैं इसलिए वे मज़दूरों पर 8 घंटों में ज़्यादा पौध लगाने का दबाव बनाते हैं। चूंकि तय समय से ज़्यादा काम करवाने के बदले अतिरिक्त भुगतान करना होता है इसलिए मालिक लोग तय घंटो में ही अतिरिक्त काम दे कर लक्ष्य बढ़ा देते हैं।'

बाथरी ने यह भी कहा, 'ठंड होने के बावजूद बरसात में पूरी तरह से भीगकर पत्तियों को चुनते हुए इन मज़दूरों को देखा जा सकता है। चूंकि पत्तियां रखने के लिए झोले नहीं दिए जाते हैं तो ये लोग बोरा अपने पेट पर बांध लेती हैं और बहुत देर तक पत्तियां चुनती रहती हैं। इसका परिणाम ये होता है कि आगे चल कर उन्हें बच्चेदानी का कैंसर हो जाता है। मज़दूरों को पीने का साफ़ पानी भी नहीं मिल पाता, जिसके चलते उनकी ज़िंदगी खतरे में पड़ जाती है।'

(भारती एसपी की यह रिपोर्ट पहले द न्यूज़ मिनट में प्रकाशित )

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