विधि बुबना की टिप्पणी
जब मैं पांच साल की थी तब अपना छठवां जन्मदिन कश्मीर में मनाने के विचार मात्र से ही मैं मंत्रमुग्ध हो जाया करती थी, ख़ासकर तब से जब मेरी टीचर ने मुझे कहा था कि कश्मीर घाटी स्विट्ज़रलैंड से भी ज़्यादा खूबसूरत है। मैं वहां ट्यूलिप के बगीचों में 'दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे' इस्टाइल में फोटो खिंचवाने को ले कर काफी रोमांचित थी। जब मैंने अपने माँ-बाप से पूछा कि क्या हम वहां जा सकते हैं तो उन्होंने बीच में ही काटते हुए कहा,"वो असुरक्षित है। वो ऐसी जगह है जहां बहुत सारे आतंकवादी रहते हैं।"
चूंकि मैं केवल पांच साल की ही थी तो मुझे ये लगने लगा कि जो कोई भी कश्मीर में रहता है उसके पास बम होते हैं, बंदूके होती हैं और आतंकवादियों से कोई ना कोई रिश्ता ज़रूर होता है। मैं साल 2004 की बात कर रही हूँ।
फिर भी मैं खुद को कश्मीर की सुंदरता की कल्पना करने से रोक नहीं पा रही थी। कुछ मान-मनुव्वल के बाद किसी तरह मैं अपने माँ-बाप को विश्वास में लेने में कामयाब रही। यात्रा पर निकलने के कुछ हफ़्तों पहले तक मैं कल्पना करती रही कि कश्मीर में लोग कैसे होते होंगे और आतंकवाद दरअसल होता कैसा है। मैं उन खतरों के बारे में सोचती रही जिनका हमें सामना करना पड़ सकता है।
हमारे हवाई जहाज के वहां उतरने के पहले ही पिताजी द्वारा हमें हिदायत दे दी गई कि वहां रहने के दौरान हम ना तो किसी राजनीतिक मुद्दे पर बात करें और ना ही 'आतंकवादी' शब्द का भूल कर भी इस्तेमाल करें। हमसे तो यह तक कह दिया गया कि गाड़ी के चालक (ड्राइवर) के इर्द-गिर्द रहते वक्त ना तो हम अपने जाति-सूचक नाम (सर नेम) बताएं और ना ही यह कि हम कहाँ से आये हैं।
मुझे ताज्जुब हुआ कि हमारा कश्मीरी ड्राइवर एक साधारण व्यक्ति ही निकला। अलबत्ता वो मेरे द्वारा देखे गए किसी भी शहरी मर्द से ज़्यादा गोरा और सुन्दर था। मैं उस पर फ़िदा हो गई। जैसे ही हम होटल के कमरे में पहुंचे मैंने अपने पिता से पूछा, 'क्या आपको लगता है कि हमारा ड्राइवर एक आतंकवादी है? वह एक साधारण आदमी दिखता है। उसके पास बंदूकें नहीं हैं और वो मुखौटे का इस्तेमाल भी नहीं करता है।'
मेरे पिता मेरी और घूरते रहे और मुझसे कहा कि मैं आइंदा ऐसी बातें ना करूं। उन्होंने समझाया कि खुल्लम-खुल्ला इस तरह के सवाल पूछना ज़िंदगी और मौत के बीच के फासले को ख़त्म कर सकता है और मुझे इस तरह के सवाल करना बंद करना होगा।
मैंने अपना जन्मदिन धूम-धाम से मनाया, चौंका देने वाली तस्वीरें खींची, शिकारा में बैठकर डल झील की सैर की और गुलमर्ग चोटी पर जाने के लिए ट्रॉली का सहारा लिया। लेकिन मैंने एक बार भी किसी कश्मीरी को मनुष्य होने के नज़रिए से नहीं देखा। मैंने उनके बारे में जानने की चिंता ही नहीं की और हमेशा एक डर के साथ उनको देखती रही। मुझे लगा कि वो सब आतंकवादी हैं जो मेरे परिवार को नुक्सान पहुंचाने आए हैं।
मैं मुंबई में अपनी सुरक्षित ज़िंदगी जीने के लिए लौट आई और कश्मीरियों के बारे में मेरे विचार तब तक नहीं बदले जब तक मैं यूनिवर्सिटी नहीं चली गयी, वहां कुछ कश्मीरियों से नहीं मिली, उनसे दोस्ती नहीं हुयी और उनकी कहानियों एवं संघर्षों को समझा नहीं।
अब 21 साल की उम्र में मैं अपने पिता के विचारों की तुलना में अख़बारों और सोशल मीडिया से कहीं ज़्यादा सूचनाएं हासिल कर लेती हूं। मैंने कॉलेज में कश्मीरियों के साथ बातचीत की है, उनकी कहानियां भी वैसी ही वास्तविक हैं जैसी किसी और की- कर्फ्यू और दहशत के साये में अनगिनत रातों को बिताने के दंश की सालों-साल घटित होती कहानियां। वो कहानियां जो बताती थीं कि आतंकवाद के शिकार वे खुद भी रहे हैं।
मेरी जागरूकता अब से पहले कश्मीरियों को एक खास नज़रिये से देखने के लिए धिक्कारने लगी। जब संविधान की धारा 370 ख़त्म कर दी गयी तब मुझे अहसास हुआ कि बहुत सारे भारतीय अभी भी कश्मीर को एक सुरक्षित स्थान और कश्मीरियों को निर्दोष नहीं मानते हैं। हम उन्हें हिंसा के उस चक्र के लिए दोषी ठहराते हैं जिसमें वे खुद दशकों से फंसे पड़े हैं और जिसमें उनका कोई दोष नहीं है सिवा इसके कि इस हिंसा के दौर में वो वहां पैदा हुए।
जब कश्मीर की बात आती है तो हम उस अलोकप्रिय भारतीय कसम का भी पालन नहीं करते जो दावा करती है कि 'सभी भारतीय मेरे भाई और बहन हैं।' कश्मीर के लोगों की दास्तान खुद उन्हीं की ज़बानी सुनने और उनके इतिहास को समझने का प्रयास करने की बजाय हमारे भीतर 'निर्दोष साबित होने तक दोषी है' वाली मानसिकता ही काम करती है।
6 साल की बच्ची की आँखों से मैंने कश्मीर को एक ऐसे पर्यटक स्थल के रूप में देखा है जहां जा कर मैं वहां के लोगों पर अविश्वास करते हुए और अपने पिता के आदेशों का पालन करते हुए अपना जन्मदिन मना सकी और अच्छी यादों को संजो सकी। आज 15 सालों बाद मुझे 6 साल की उम्र वाली खुद पर अफ़सोस होता है।
संभवतः अगर घर पर नहीं तो कम से कम स्कूल में तो मुझे सिखाया जाना चाहिए था कि कश्मीरी अवाम ने कैसे संघर्ष किया है, कैसे कश्मीर में महीनों तक बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं और कैसे यहां के लोगों को बाकी भारत के लोगों के प्यार से वंचित रखा जाता है।
एक बच्ची होने के नाते मेरे माँ-बाप ने मुझे सच्चाई से दूर रखा लेकिन कश्मीर में असंख्य बच्चे हैं जिन्हें गोली मार दी गई या फिर उन्हें सड़कों पर पैलेट गन्स से अंधा कर दिया गया। कुछ बच्चे तो पांच साल से भी कम उम्र के थे और यहां भी दर्जनों ऐसे लोग मिल जायेंगे जो यह कहते हुए दोष उन्हीं के सिर मढ़ देंगे, 'वो बाहर सड़क पर निकला ही क्यों ?'
अगर कोई कश्मीरी मेरे इस लेख को पढता है तो उससे बस मैं यही कहूंगी: मुझे खेद है।
(मुंबई निवासी विधि बुबना एक स्वतंत्र लेखिका हैं। वे मानवाधिकार, राजनीति, व्यापार और सामाजिक मुद्दों पर लिखती हैं। उनका यह लेख 'द वायर ' से साभार लिया गया है।)