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विमर्श

Russia-Ukraine War : अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों से कैसे निपटेगा रूस, कितना होगा असर?

Janjwar Desk
6 March 2022 6:18 PM IST
Russia-Ukraine War : अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों से कैसे निपटेगा रूस, कितना होगा असर?
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अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंधों से कैसे निपटेगा रूस, कितना होगा असर?

Russia-Ukraine War : रूस को पश्चिमी देशों की ओर मिलने वाली तकनीकों पर प्रतिबंध लगाने के भी जो असर दिखेंगे वे लॉन्ग टर्म में दिखेंगे, फिलहाल ये भी रूस पर असर डालते नहीं दिख रहे हैं क्योंकि रूस और चीन के बीच व्यापार जारी रहेगा.....

वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रो.अरुण कुमार का विश्लेषण

Russia-Ukraine War : दुनिया के कई देशों में युद्ध से मिलते-जुलते हालात हैं। इराक, यमन, सीरिया, लीबिया, सूडान कई जगहों पर या तो युद्ध हो रहे हैं लोग बगावत कर रहे हैं, अशांति है। पर, रूस और यूक्रेन के बीच का युद्ध कई मायनों में अलग है क्योंकि इस लड़ाई में रूस जैसा सुपरपावर देश शामिल है। आर्थिक रूप से भले ही रूस (Russia) अब पहले की तरह मजबूत न हो पर सैन्य रूप से वह अब भी महाशक्ति है। रूस की मौजूदगी के कारण अमेरिका (USA) और नाटो (NATO) के देश सीधे तौर पर इस लड़ाई में शामिल नहीं हो रहे हैं लेकिन वे यूक्रेन (Ukraine) को सैन्य और दूसरे तरीकों से मदद पहुंचा रहे हैं।

ये मदद मिलने के बावजूद यूक्रेन रूस का सामना नहीं कर पा रहा है। इस कारण पश्चिमी देशों ने यह तय किया है कि वे रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध (Economic Sanctions) लगाएंगे ताकि रूस के व्यापार, पूंजी और तकनीक को नुकसान पहुंचा सकें। अब इसका रूस पर क्या असर होता है यह देखने वाली बात होगी।

रूस सबसे ज्यादा पेट्रोलियम (Petrolium) सामग्री का निर्यात करता है। इसके बाद मेटल और खाद्य सामग्री आते हैं। इनमें कच्चा तेल और नेचुरल गैस जैसे उत्पाद यूरोपीय देशों (European Countries) के लिए काफी अहम हैं। यहां दिलचस्प बात यह है कि पश्चिमी देशों ने जो प्रतिबंध लगाए हैं वो इन चीजों पर नहीं लागू हैं। इसका मतलब है इन चीजों से रूस की कमाई पहले की तरह जारी रहेगी। उसे विदेशी मुद्रा प्राप्त होती रहेगी। ऐसे में रूस पर इन प्रतिबंधों का कोई तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ेगा।

रूस के पास मजबूती इस बात से है कि उसके पास सरप्लस बहुत ज्यादा है। रूस अपनी जीडीपी (GDP) का 25 प्रतशित निर्यात करता है जबकि केवल 14 प्रतिशत ही आयात करता है। ऐसे में उसके पास 10 प्रतिशत से अधिक का सरप्लस है, जिसके बल पर उसने 600 बिलियन डॉलर का फॉरेन एक्सचेंज जमा कर लिया है। इसमें से 300 बिलियन डॉलर अब भी रूस के बैंकों में ही हैं।

रूस ने पश्चिमी देशों की कंपनियों पर रूस की कंपनियों से पूंजी निकालने पर भी रोक लगा रखी है। हालांकि एक्सॉन और बीपी जैसी कंपनियों ने रूस में अपनी पूंजीगत हिस्सेदारी से बाहर निकलने की बात कही थी, पर रूस में शेयर मार्केट बंद होने के कारण उन्हें इसका मौका नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में रूस पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के प्रतिबंध का कोई त्वरित असर होता नहीं दिख रहा है। हालांकि रूसी मुद्रा रूबल के भाव गिरे हैं पर इसके भी सीमित रहने के अनुमान हैं क्योंकि अब भी रूस के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार मौजूद है।

रूस को पश्चिमी देशों की ओर मिलने वाली तकनीकों पर प्रतिबंध लगाने के भी जो असर दिखेंगे वे लॉन्ग टर्म में दिखेंगे। फिलहाल ये भी रूस पर असर डालते नहीं दिख रहे हैं क्योंकि रूस और चीन के बीच व्यापार जारी रहेगा। चीन को भी रूस से सस्ती उर्जा मिलने की उम्मीद है। साइबेरिया और चीन के बीच एक पाइपलाइन पहले से प्रस्तावित है। चूंकि चीन सबसे बड़ा उत्पादक देश है और अमेरिका भी उसे अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है। ऐसे में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चीन और रूस की दोस्ती स्वाभाविक है। रूस को जो नुकसान पश्चिमी देशों की ओर से लगाए प्रतिबंधों से होगा उसकी भरपाई वो चीन के साथ अपने व्यापारिक संबंधों से कर लेगा।

दूसरी ओर, रूस और भारत के बीच भी द्विपक्षीय व्यापार जारी रहेगा। भारत लंबे समय से अपनी रक्षा जरुरतों के लिए रूस पर निर्भर रहा है। सुखोई हो, ब्रम्होस हो, डिफेंस सिस्टम हों या दूसरे उपकरण इन चीजों को लेकर भारत और रूस के बीच भी व्यापारिक संबंध बने रहेंगे। हालांकि चीन और रूस के नजदीक आने से भारत के लिए समस्या पैदा हो सकती है। जैसे-जैसे रूस और चीन का गठजोड़ बढ़ेगा वैसे-वैसै चीन भारत की सैन्य जरुरतों के लिए रूस से मिल रही मदद में कटौती करवा सकता है।

एस-400 जैसी मिसाइलों की सप्लाई पर भी असर पर सकता है क्योंकि इसका इस्तेमाल चीन भी करता है। दूसरी ओर, पश्चिमी देश और अमेरिका भी खुलकर रूस-यूक्रेन युद्ध पर नहीं बोलने के कारण भारत से नाराज हो सकते हैं। ऐसे में वर्तमान स्थिति में भारत को भी अपनी दशा और दिशा नए सिरे से तय करने की जरुरत है।

1991 में वॉरसा पैक्ट की समाप्ति के समय जब सोवियत यूनियन का पतन हुआ तो नाटो ने रूस को यह आश्वस्त किया था कि वह एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगा लेकिन इसका पालन नहीं हुआ। नाटो की पहुंच पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया और लैटविया जैसे देशों तक हो गयी। अब अगला नंबर यूक्रेन का ही था। ऐसी स्थिति में रूस इसे अपने लिए खतरे के तौर पर देखता था। इस युद्ध के मूल में यही कारण है। ऐसे में रूस फिलहाल आर्थिक स्थिति से ज्यादा सामरिक रूप से अपनी रक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण मानता है, इसलिए उसने यूक्रेन के खिलाफ इस युद्ध का ऐलान किया है।

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