बृजेश ठाकुर सवर्ण जाति से है, वो सत्ता की दलाली करने वाले अख़बार का मालिक है। वो सत्ता और प्रशासन में बैठे लोगों, नेताओं अफसरों को मासूम बच्चियों की देह परोसने वाला दलाल है, पर अपराधी नहीं है। वो ऊंची जाति का न होकर दलित और पिछड़ी जाति का होता तो इतने दिन थोड़े ही कानून के शिकंजे से बचा रहता...
सुशील मानव का विश्लेषण
ये सिर्फ पेशी पर जाते एक बाहुबली अपराधी की हँसी नहीं है ये सत्ता और ताकत का अश्लील अट्ठाहास है। ये अट्ठहास है अपने आपके हर जगह से बच निकलने की प्रबल संभावना का। ये अट्ठहास है राज्य संरक्षित यौन शोषण और बलात्कारी व्यवस्था में आम जन की दुर्बलता और निरीहता पर। ये अट्ठहास है डरे हुए लोगों की चुप्पी पर। ये अट्ठहास है मरे हुए समाज की मुर्दा संवेदनाओं पर। ये अट्ठहास है जनपक्षधर कहलाने वाले तमाम साहित्यकारों, पत्रकारों, रंगकर्मियों की सुविधावादी पक्षधरता और तटस्थता पर।
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बृजेश ठाकुर अपराधी होकर भी अपराधी नहीं है। वो सवर्ण जाति से है, वो सत्ता की दलाली करने वाले अख़बार का मालिक है। वो सत्ता और प्रशासन में बैठे लोगों, नेताओं अफसरों को मासूम बच्चियों की देह परोसने वाला दलाल है, पर अपराधी नहीं है। वो ऊंची जाति का न होकर दलित और पिछड़ी जाति का होता तो इतने दिन थोड़े ही कानून के शिकंजे से बचा रहता।
लेकिन नहीं, वो सवर्ण जाति से है बिहार की राजनीति में सबसे प्रभावशाली तबके वाली जाति से, सत्तावादी तबका।
वर्ना क्या गरज कि उसके खिलाफ आपराधिक शिकायत होने के बाद भी बिहार प्रशासन द्वारा महीनों उसके खिलाफ एफआईआर न हो। एफआईआर होने के बाद दो-दो महीने तक उसे गिरफ्तार न किया जाए।
क्या ये लोकतंत्र है। क्या ये कानून तंत्र है। नहीं ये सवर्ण तंत्र है। सवर्ण तंत्र में सबकुछ कानून के मुताबिक नहीं होता। बहुत कुछ अपराधी के मन मुताबिक भी होता है। उसके खिलाफ एफआईआर होने के बावजूद उसके एनजीओ को सरकार के सामाजिक कल्याण विभाग द्वारा नया प्रोजेक्ट सौंप दिया जाता है। शिकायत के बावजूद उसके एनजीओ की जाँच नहीं की जाती और उसका दुर्दांत काम-काज बदस्तूर चलता रहता है। सत्ता की हनक ऐसी कि वो दिल्ली जाता तो बिहार भवन में ठहरता।
इस सवर्ण जाति तंत्र में बृजेश ठाकुर होना अपने आप में सत्ता होना है अपने आप में ताकत होना है। एनजीओ बनाकर सरकार के हाथों जनता के पैसे हासिल करना और सामंती जीवन जीना है सामंती मूल्यों को बचाना है। समाज के इस तबके के पुरुषों का स्त्रियों, लड़कियों के प्रति बर्बरतम इतिहास रहा है।
जब आप कहते हैं कि शिक्षा भी व्यक्ति को उसके सामंती मूल्य, संस्कार और मर्दबोध से निजात नहीं दिला पाती है। तब आप ये कैसे मान लेते हैं कि समाज की वंचित तबके की लड़कियों औरतों का शिकारी रहा समुदाय विशेष का पुरुष बालिका शेल्टर होम खोलकर अनाथ बच्चियों को संरक्षण प्रदान करेगा?
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शिकार और औरतखोरी जिस समुदाय के पुरुषों का प्रिय शगल रहा हो, उससे आप क्यों और किस बिना पर ये उम्मीद पालते हैं कि वो अपने घर में स्त्रियों लड़कियों का संरक्षण करेगा, शिकार नहीं। मर्दवादी, सामंती समुदाय को शेल्टर होम के लिए पैसे देकर उसके शेल्टर होम में सैकड़ों लड़कियों को सौंप देना क्या भेड़िये को उसका पसंदीदा शिकार सौंप देने जैसा नहीं है।
पुरुष ही क्यों सामंती मूल्यों के साथ सामंती संस्कारों में में पली बढ़ी औरतें भी पीड़ित होकर भी उस मूल्य को बनाये रखने की हिमायत करती हैं। बृजेश ठाकुर की लड़की निकिता आनंद का अपने अभियुक्त पिता के बचाव में आया बयान स्पष्ट कहता है कि औरतों का उपभोग उच्च जाति पुरुषों का विशेषाधिकार है।
वह कहती है, 'क्योंकि, मेरे बाप के पास बहुत पैसा है। अगर उसे शारीरिक संबंध ही बनाना होता और लड़कियों की सप्लाई करनी होती तो यहां की लड़कियां क्यों करता?' सामंतवादी भाषा में जब एक पुरुष दूसरे को उलाहना देता है तो कहता है, ‘गिरना ही था तो कुछ स्तर देखकर गिरते।’
कहने को तो और भी गंदी और अश्लील उपमाएं देकर वो कहते हैं। ये स्तर शब्द औरत या लड़की की जाति और रंग को लेकर बोले जाते हैं। निकिता आनंद के कुतर्क में भी यही है कि यहां तो वो लड़कियां थीं, जिन्हें समाज ने भी तज दिया था। कई मानसिक रूप से विक्षिप्त थीं।’
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उपरोक्त बयान का एक आशय ये भी है कि यदि पैसा है तो गंदी-मरियल, काली और निम्न जाति की लड़कियों में कोई समृद्ध पुरुष क्यों इंट्रेस्ट लेगा? ये शब्द सत्ता और पैसे के बल में बिलबलाये किसी प्रभुत्वशाली सामंती पुरुष के हैं, पर ये शब्द निकले हैं मुजफ्फरपुर बालिका गृह के बाल यौन शोषण के मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर की बेटी निकिता आनंद के मुँह से। जाहिर है निकिता आनंद भले ही औरत हो पर उसके भीतर सामंती संत्ता के साथ एक पुरुष बैठा हुआ है ओर जो अपने पिता के बचाव में मीडिया में वो हर तर्क-कुतर्क रख रहा है जो एक सामंती मर्द रखता है।
गलती निकिता की नहीं है उसे वैसे ही संस्कारों में ढालकर उसकी वैसी कंडीशनिंग की गई है। ये बयान अकेली निकिता का बयान नहीं है ये उसके पूरे समुदाय का सांस्कृतिक और समाजिक बयान है, जिसमें जातीय दंभ सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रभुत्व और सामाजिक श्रेष्ठता का अहंकार है।
पुरुषवादी सामंती समाजों में जैसा कि होता आया है हमेशा से पुरुषों के अपराध को छुपाने के लिए औरतों स्त्रियों पर ही दोष मढ़कर उन्हें अपराधी बना दिया जाता है।
उसी तर्ज पर निकिता आनंद का अपने पिता बृजेश ठाकुर के बचाव में कहना है कि, ‘ये लड़कियाँ बालिका गृह में आने से पहले से ही सेक्सुअली एक्टिव रही होंगी। ऐसे में मेडिकल जाँच के आधार पर ये नहीं कहा जा सकता है कि उनका यौन शोषण यहीं पर हुआ।’
ये सिर्फ निकिता आनंद या बृजेश ठाकुर की सोच नहीं है। ये उनके समाज से चुनकर आए बिहार प्रशासन के तमाम लोगों और उसी के समाज से चुनकर आए सत्ता में बैठे लोगो की भी सोच है। ये सोच बाल संरक्षण अधिकारियों और बालिका गृहों पर निगरानी रखने वाले अधिकारियों की भी है। वर्ना दूसरा और कोई कारण नहीं कि एक बार शिकायत होने के बादजूद बृजेश ठाकुर का एनजीओ और बालिका गृह वर्षों-वर्ष तक लगातार चलते रहे और उन्हें सरकारी धनकोष से करोड़ों रुपए आवंटित होते रहें।
बालिका गृह में सालोंसाल तक अनाथ लड़कियाँ अपनी देह और बालमन नुचवाने को अभिशप्त रहीं। समय आ गया है जब उत्पीड़क वर्ग द्वारा चलाए जा रहे प्रदेश और देश के तमाम बालिका गृहों को उनके चंगुल से मुक्त करवाकर सरकार अपने अधीन ले और तमाम बालिका गृहों की सीबीआई जाँच कराई जाए।