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लॉकडाउन से कूड़ा बीनने वाले परिवार हुए बेहाल, जब पीने का ही पानी नहीं, तो हाथ कहां से धोएं

Janjwar Team
28 March 2020 8:00 AM IST
लॉकडाउन से कूड़ा बीनने वाले परिवार हुए बेहाल, जब पीने का ही पानी नहीं, तो हाथ कहां से धोएं
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झुग्गियों में रहने वााली 35 वर्षीय महिला रेखा बताती हैं कि यहां महिपालपुर का कूड़ा-कबाड़ उठाने वाले करीब 100 परिवार रहते हैं, यहां पानी की एक बूंद भी नहीं बची है। पिछले तीन दिनों से मेरा बेटा और भतीजा एक निजी स्वामित्व वाले बोरवेल तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन पुलिस उन्हें भगा रही है...

जनज्वार। दक्षिण दिल्ली महिपालपुर के पास एक झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले छह सदस्यों के परिवार के पास लगभग 25 लीटर वाले ड्रम में आधा ही पानी बचा है।

न झुग्गियों में रहने वाले एक 35 वर्षीय महिला रेखा बताती हैं कि यहां महिपालपुर का कूड़ा-कबाड़ उठाने वाले करीब 100 परिवार रहते हैं। यहां पानी की एक बूंद भी नहीं बची है। उन्होंने बताया कि पिछले तीन दिनों से उनका बेटा और भतीजा एक निजी स्वामित्व वाले बोरवेल तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन पुलिस के भारी दबाव के कारण वह वहां तक नहीं पहुंच पा रहे।

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'द इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत' में रेखा ने कहा कि मेरे बेटे ने कुछ दिन पहले पानी लाने की कोशिश की, लेकिन पुलिस अधिकारियों ने बीच में ही भगा दिया, उसे लाठियों से मारा और उसे घर वापस जाने के लिए कहा। उन्होंने एक दिन पहले मेरे भतीजे के साथ भी ऐसा ही किया था।

लिन बस्ती में दूसरे लोगों ने भी दावा किया कि लॉकडाउन शुरू होने के बाद से बोरवेल बंद हो गया है, जिसकी उन्हें उम्मीद ही नहीं थी क्योंकि उन्हें लगा कि प्राधिकरण पानी की आपूर्ति को बाधित नहीं करेगा।

सुनील कुमार (30) एक हफ्ते पहले 50 लीटर पानी के दो ड्रम भरने में कामयाब रहे। उनमें से एक गुरुवार की सुबह समाप्त हो गया, क्योंकि 10 सदस्यों के उनके परिवार ने खाना पकाने, पीने, स्नान करने और लगभग सभी चीजों के लिए इस पानी का इस्तेमाल किया है।

झुग्गी झोपड़ियों में रेखा और सुनील कुमार रहते हैं वो दिल्ली जल बोर्ड के नेटवर्क से नहीं जुड़े हैं और लगभग चार महीने से पानी के टैंकर से भी पानी मिल रहा है। उन्होंने बताया कि पानी का एक मात्री सत्रोत निजी स्वामित्व वाला बोरवेल है जो 50 लीटर पीने योग्य पानी के लिए लगभग 70 रुपये और 15 लीटर के लिए 20 रुपये लेते हैं।

रेखा कहती हैं कि मेरा बेटा दो दिनों से बीमार है; उसे सिरदर्द और बुखार है। हमें अपने हाथ धोने के लिए कहा गया है, लेकिन नहाना तो सवाल से बाहर है। हमारे लिए पीने का पानी भी नहीं है।

वासीय कॉलोनियों में कूड़ा बीनने वालों के प्रवेश को भी प्रतिबंधित कर दिया गया है और ऑफिसों से भी कूड़ा नहीं उठ रहा है। ऐसे में इन झुग्गियों में रहने वाले लोगों को पैसों के संकट का भी सामना करना पड़ रहा है।

रेखा कहती हैं, 'सूखा कचरा (प्लास्टिक, लत्ता, कार्डबोर्ड) लेने वाला भी कोई नहीं है जो साइट पर जमा हुआ है, जिसे लोग जिंदा रहने के लिए बेचते हैं।'

सुनील कुमार कहते हैं कि स्थानीय जनरल स्टोर ने 5 किलो गेहूं के आटे के साथ अब 190 रुपये में बेचना शुरू कर दिया है जो कि लॉकडाउन से पहले की कीमत से 50 रुपये अधिक है।

ही कहानी उत्तर पूर्वी दिल्ली के भलस्वा की है। यहां कूड़ा बीनने वाले एक समूह 'सफाई सेना' की सचिव साहिरा बानो (37 वर्षीय) बताती हैं कि यहां सप्ताह में केवल एक बार ही पानी का टैंकर आता है।

बताती हैं, 'हमें यहां पाइप वाला पानी मिल रहा है लेकिन वह भी सप्ताह में एक बार आता है और उसमें भी बदबू आती है और पानी गहरा रंग में होता है। जब पानी का टैंकर आता है, तो भीड़ होती है और लड़ाई-झगड़े भी होते हैं।

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बानो का अनुमान है कि क्षेत्र में लगभग 1,000 कूड़ा बीनने वाले हैं, जिनमें से सभी ने लॉकडाउन के बाद से काम खो दिया है। भलस्वा लैंडफिल (जहाँ वे सूखे कचरे को फिर से भरने के लिए उठाएंगे) ने उनके प्रवेश को बंद कर दिया। वह कहती हैं, 'यहां आसपास की दुकानें हर दिन खुलती हैं, लेकिन जब लोगों के पास कोई पैसा नहीं है, तो वे क्या खरीदेंगे?'

दिल्ली जल बोर्ड के एक अधिकारी ने कहा कि उन्होंने दोनों क्षेत्रों की समस्या पर ध्यान दिया है और इसे जल्द ही सुलझा लिया जाएगा।

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