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दिल्ली

रोजी-रोटी के जुगाड़ के लिए चिलचिलाती धूप में रोज संघर्ष कर रहे मजदूर

Nirmal kant
27 May 2020 12:17 PM GMT
रोजी-रोटी के जुगाड़ के लिए चिलचिलाती धूप में रोज संघर्ष कर रहे मजदूर
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अगर नगर प्रेम नगर किरारी में रहने वाली पूनम देवी साप्ताहिक बाजारों में बच्चों और महिलाओं के कपड़े बेचने का काम करती थीं। उनके पति भी उनके साथ यही काम करते थे जिसमें हर बाजार में वे 1500 से 2000 तक बिक्री कर लेती थी। लेकिन लॉकडाउन हो जाने के कारण मुश्किल से 200 रुपये का ही सामान ठेले पर बेच पाती हैं जिसमें परिवार चलाना मुश्किल है...

डॉ. अशोक कुमारी की टिप्पणी

जनज्वार। दिल्ली, मुंबई, जैसे महानगरों में हर साल बिहार, उत्तर-प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश से लाखो की संख्या में प्रवासी मजदूर आत्मनिर्भर बनने के लिए आते हैं। वे दिन-रात कमाकर अपने बच्चों के भविष्य को संवारकर एक बेहतर और आत्मनिर्भर जिन्दगी का सपना देखते हैं। लेकिन कोरोना के प्रसार और भारत में लॉकडाउन ने मजदूरों की स्थिति ऐसी कर दी की अब उन्हे दो वक्त की रोटी के लिए सरकार के ऊपर निर्भर होना पड़ रहा है।

लॉकडाउन होने के बाद फैक्ट्री मालिकों ने मजदूरों को काम से निकाल दिया। लाखों प्रवासी मजदूर अपने सपनों को साथ लेकर जान जोखिम में डालकर वापस वहीं जाने का मजबूर हो गए जहां से सपनों को पूरा के लिए शहर आए थे। एक तरफ हमारे देश के प्रधानमंत्री ‘आत्मनिर्भरता’ की बात करते रहे और दूसरी ओर प्रवासी मजदूर अपने घर जाने के लिए अपनी जान गवाते रहे। जिन मजदूरों ने मेहनत से पैसा जोड़कर किसी तरह दिल्ली जैसे शहरों में अपना मकान बना लिया आज उनकी भी हालत अच्छी नहीं कही जा सकती है। वे लोग भी रोजी-रोटी की जुगाड़ के लिए रोज रोज संघर्ष कर रहे है।

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गर नगर प्रेम नगर किरारी ऐसा ही एक क्षेत्र है जहां बिहार, उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक प्रवासी मजदूर अपना घर बना कर रहते हैं लेकिन लॉकडाउन के बाद उन मजदूरों के हालत खराब हो गई है। पूनम देवी (35) बिहार के रोहतास की रहने वाली हैं। वह पिछले 12-13 सालों से अगर नगर प्रेम नगर किरारी में रहती हैं और साप्ताहिक बाजारों में बच्चों और महिलाओं के कपड़े बेचने का काम करती हैं। उनके पति भी उनके साथ यही काम करते थे जिसमें हर बाजार में वे 1500 से 2000 तक बिक्री कर लेती थी। लेकिन लॉकडाउन हो जाने के कारण साप्ताहिक बाजार बंद हो गये हैं जिससे उनका कपड़ा बेचना बन्द हो गया है।

लॉकडाउन के बाद जब सरकार ने कुछ ढील दी तो उन्होंने फिर कपड़े बेचने का काम शुरु किया लेकिन इस बार वह साप्ताहिक बाजार में नहीं गलियों में सुबह नौ बजे से दो बजे तक कपड़ों को ठेले पर रखकर इस गली से उस गली घूमती हैं। उसके बाद मुश्किल से 200 रुपये का ही सामान बेच पाती हैं जिसमें परिवार चलाना मुश्किल है।

पूनम कहती हैं कि लोगों के पास खाने के लिए पैसे नहीं हैं तो कपड़े कहां से खरीदेंगे। उनका बेटा सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा का छात्र है। शिक्षा के डिजिटलीकरण के बाद से उसकी पढ़ाई नहीं हो पा रही है। स्कूलों में टीचर क्या पढ़ा रहे हैं, क्या काम दे रहे हैं, न तो उनके बेटे को पता है ना ही उसके किसी दोस्त को। वह चिंतित हैं कि बेटा पढ़ने में कमजोर हो जाएगा क्योंकि अभी ट्यूशन भी बंद है।

नके बेटे या उनके किसी दोस्त को यह भी पता नहीं है कि पढाई के लिए कोई ग्रुप बना है कि नहीं बना है। इन छात्रों के पास टीचर का फोन नम्बर भी नहीं है और ना ही टीचर के पास इन बच्चों का नम्बर है, ऐसे में बच्चे कैसे पढ़ सकते हैं? पूनम देवी ने शादी के बाद पितृसत्ता की चादर को ओढ़ने के बजाय उसको उतारने का सोचा और पति की कमाई पर निर्भर नहीं रहना चाहती थी इसलिए उन्होने आत्मनिर्भर बनने के लिए पहले ठेली पर साग-सब्जी बेचा। फिर कुछ समय तक भुट्टा (छल्ली) भी बेचा। मन में तरक्की की आशा लिए हुए पूनम और अच्छी कमाई करना चाहती थीं।

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ह लेडीज वियर और बच्चों के कपड़ों को साप्ताहिक बाजार में बेचने लगी। बाजार में सर्दियों में 3 बजे से 7 बजे तक ठेली लगाती थी और गर्मियों में 5 से 9 बजे तक बाजार लगाती थी जिसमें करीब 2000 तक की बिक्री हो जाती थी जिसमें लागत निकालकर 400-500 रू. का मुनामा प्राप्त कर लेती थी। इतना ही उनके पति भी कमा लेते थे। पति-पत्नी की कमाई से थोड़ी- थोड़ी बचत करके अगर नगर में ही एक पच्चीस गज का मकान खरीद लिया जिससे किराये के मकान पर न रहना पड़े और दो पैसे की बचत हो पाययी।

पूनम के अनुसार, उनका परिवार खुशहाल जीवन बिता रहा था लेकिन इस लॉकडाउन के कारण जिन्दगी से खुशियां गायब हो गईं। मानो कि जिन्दगी एक झटके में खत्म हो गई हो, जो परिवार हंसता हुआ जी रहा था उनके होठों से हंसी गायब हो चुकी है। पूनम बताती है कि हमारी मां भी यहीं किराए के मकान में रहती है। हम तो उनसे भी कोई मदद नही ले सकते। गांव मे हमारा कुछ भी नहीं है जो मुश्किल समय में गांव जाकर रह सकें। हमें तो जीना भी यहीं है और मरना भी यहीं, लॉकडाउन खुले या नहीं खुले हम कहीं नहीं जा सकते।

रोजगार था तो परेशानी नहीं थी। अब तो सारा दिन चिलचिलाती गर्मी और धूप से भटककर केवल 200 रुपये का ही कपड़ा बेच पा रही हैं जिसमें से 30-40 रूपये की कमाई हो पाती है। इतने कम पैसे में जिन्दगी की और जरूरतों को पूरा करना तो दूर हम भरपेट खा भी नहीं सकते। पहले जो बचत था वह लॉकडाउन के दो माह के दौरान खत्म हो चुका है अब तो चिंता ही खाए जा रही है। लोगों के पास पैसे नहीं हैं। बहुत जरूरत पड़ने पर ही वह कपड़ो की खरीदारी करते हैं और पैसे कम होने के कारण मोल-तोल ज्यादा करते हैं। हम पहले से ही कम मुनाफे पर बेच रहे हैं और ग्राहकों की जेब में पैसा नहीं होने के कारण कम से कम मुनाफे में माल को निकालना पड़ रहा है। नहीं तो यह माल पुराना हो जायेगा।'

सी प्रकार प्रवेश नगर में रह रहे भजनलाल की कहानी है। प्रवेश को बिहार में रहते हुए 21 साल हो गए, वे पेंट सिलने की फैक्ट्री मे काम करते थे जिसमें वे रोज के 500 रुपये कमा लिया करते थे लेकिन लॉकडाउन में वह फैक्ट्री बन्द हो गई। इस बीच पीस रेट पर थैला सिलने का काम करने लगे जिसमें माल मिलने पर 200 रुपये रोज का कमा पाते हैं लेकिन यह काम भी रोज नहीं मिल पाता है। थैला सिलने का काम उस कलोनी में काफी लोग कर रहे हैं क्योंकि यही एक काम है जो लॉकडाउन में भी मिल रहा है।

रोज का 200 भी न कमा पाने के कारण भजनलाल का मन है कि वे गांव चले जाएं लेकिन लॉकडाउन में घर जाना इतना आसान नही है। इंतजार कर रहे हैं कि कब स्थिति सामान्य हो और वो अपने गांव जा सकें। इसी तरह अगर नगर में रह रहे ओमप्रकाश दरियागंज में किताब बेचने का काम किया करते थे लेकिन दो महीने से लॉकडाउन होने और शीशमहल दरियागंज का क्षेत्र हॉटस्पाट में आने के कारण दोबारा काम शुरु होने के आसार नही दिख रहे, इसलिए उन्होंने रोजी-रोटी के लिए मजदूरी करने का सोचा है अभी वो सोच रहे है कि अगर मजदूरी मिल गई तो ठीक नहीं तो कही पर ठेला लगाकर कुछ सामान बेचे।

2017 के अनुसार देश में कुल श्रमिकों की संख्या 465 मिलियन (46.5 करोड़) है जिसमें 52 प्रतिशत लोग स्वरोजगार, 25 प्रतिशत दिहाड़ी मजदूर और 13 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र में बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के काम में लगे हुए हैं। इस श्रमशक्ति का मात्र 10 प्रतिशत हिस्सा सामाजिक सुरक्षा के साथ काम कर रहा है। कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच अब सरकार को आत्मनिर्भर भारत बनाने की चिंता सताने लगी इसलिए दो महीने से बंद भारत के बीच उद्योगपतियों के घाटे की भरपाई करने के लिए 20 लाख करोड़ (जिसमें प्रवासी मजदूरों के हितो के लिए एक रुपये भी नही है) के पैकेज की घोशणा उद्योगों को बढ़ावा और आर्थिक मजबूती की ओर पूरी तरह ध्यान केन्द्रित कर लिया।

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सरकार के अनुसार, ये राहत पैकेज चौतरफा लाभ पंहुचाने और आर्थिक गति को पटरी पर लाने के लिए बनाया गया है तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग को राहत पैकेज में शामिल किया गया है। सरकार के अनुसार 3 लाख करोड़ रुपये श्रमिकों और कृषि की मदद के लिए है। लेकिन गौरतलब है कि इस राहत पैकेज में तत्काल राहत की बात कहीं पर नहीं की गई है।

बकि सच्चाई यह है कि आज मजदूरों को रोज-रोज रोटी के लिए संघर्श करना पड़ रहा है और उनके पास जमापूंजी खत्म हो गई है सरकारी मदद के नाम पर स्कूल से पका भोजन और राशन पर निर्भर है लेकिन वर्तमान परिस्थिति में ये प्रवासी मजदूर इस बात की उम्मीद छोड़ चुके है कि सरकार उन्हे आत्मनिर्भर बनाने के लिए कोई प्रयास करेगी इसलिए जो शहर में रह रहे है वे अब खुद से रोजी-रोटी के जुगाड़ में लगे हुए जो भी काम करने का सामर्थ्य है वो काम कर रहे हैं।

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