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लॉकडाउन के चलते संकट में राजस्थान का मशहूर ब्लॉक प्रिंटिंग कपड़ा उद्योग

Nirmal kant
12 May 2020 8:00 AM IST
लॉकडाउन के चलते संकट में राजस्थान का मशहूर ब्लॉक प्रिंटिंग कपड़ा उद्योग
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साल 2018-19 में भारत से कुल निर्यात किये गए हाथ से ब्लॉक प्रिंटेड कपड़ों का 30 फीसदी हिस्सा अमेरिका, इंग्लैण्ड, नीदरलैंड, इटली, जर्मनी, फ़्रांस जैसे देशों को गया था जबकि ये ही वो देश हैं जो कोविड-19 महामारी से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए हैं...

इन्दर बिष्ट की रिपोर्ट

जनज्वार। राजस्थान की राजधानी जयपुर से सटी एक जगह है सांगानेर। कपड़ों पर हाथ से ब्लॉक प्रिंटिंग का बहुत बड़ा केंद्र है सांगानेर। लेकिन लॉकडाउन ने जैसे सब कुछ छीन लिया हो। अब सांगानेर पुराना रंगीन, जीवंत सांगानेर नहीं रहा।

दुनिया भर में मशहूर सांगानेरी कपड़ों के निर्यातकों का तो ये तक कहना है कि भले ही लॉकडाउन ख़त्म हो जाये और हमारे कारीगर भी लौट कर आ जाएँ, लेकिन ना तो पुरानी गहमागहमी लौट कर आएगी और ना ही हम उतना कमा पाएंगे जितना पहले कमा रहे थे। वे इसका कारण बताते हुए कहते हैं कि एक तो महामारी के चलते लोगों की उपभोग की आदत बदली हैं, अब वे ज़रूरी चीज़ों पर ही खर्च कर रहे हैं और दूसरा अमेरिका तथा पश्चिमी योरप के हमारे मुख्य उपभोक्ताओं की खरीदने की क्षमता घट गयी है।

क्सपोर्ट प्रमोशन काउन्सिल फॉर हैंडीक्राफ्ट्स द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि साल 2018-19 में भारत से कुल निर्यात किये गए हाथ से ब्लॉक प्रिंटेड कपड़ों का 30 फीसदी हिस्सा अमेरिका, इंग्लैण्ड, नीदरलैंड, इटली, जर्मनी, फ़्रांस जैसे देशों को गया था जबकि ये ही वो देश हैं जो कोविड-19 महामारी से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए हैं।

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हाथ से छापे गए कपड़ों का ये क्षेत्र अभी देश में जीएसटी लागू किये जाने के विपरीत प्रभाव से उबर ही रहा था कि वित्तीय वर्ष 2018-19 में महामारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। जयपुर स्थित फेडरेशन ऑफ़ राजस्थान हैंडीक्राफ्ट्स एक्सपोर्टर्स के पदाधिकारी बताते हैं कि भारत में जीएसटी लागू करने के कारण वित्तीय वर्ष 2017-18 की तुलना में 2018-19 में उपरोक्त देशों को किया गया निर्यात 36 फीसदी गिर गया।

स फेडरेशन के संस्थापक सदस्य और पोद्दार असोसिएट के सचिव अतुल पोद्दार कहते है-'2017 के मध्य में जीएसटी लागू करने की वजह से हाथ से छापे जाने वाले कपड़ों के उत्पादन की लागत 10 फीसदी बढ़ गयी, और उसी समय बांग्लादेश ने अपने उत्पादों की कीमत कम रखी जिसके चलते विदेशी खरीददारों ने हमारे बदले उनसे कपडे खरीदना तय किया।'

पसंद में आया बदलाव

हाथ से छापे गए कपड़ों के निर्यातकों का कहना है कि मार्च-अप्रैल 2020 के लिए मिले 1000 करोड़ रुपये के ऑर्डर ख़ारिज कर दिए गए हैं जबकि इनका उत्पादन चल रहा था और पानी के जहाज द्वारा इन्हें भेजे जाने की तैयारी हो रही थी। पोद्दार कहते हैं, 'बहुत से ऑर्डर्स हमारे पास आने वाले थे जिको पूरा करने के लिए हमने कच्चा माल खरीद लिया था और उत्पादन की प्रक्रिया चालू थी। उन ऑर्डर्स को भी रोक लिया गया है और हमें खरीददारों द्वारा कोई आश्वासन नहीं मिला है कि वे भविष्य में दिए गए ऑर्डर्स का सम्मान करेंगे।'

पड़ों के क्षेत्र में ये आम बात है कि मौसम बदलने के साथ ही कपडे का मेटीरियल और रंग संबंधी पसंद भी बदल जाती है। अतुल पोद्दार कहते हैं, 'कपड़ा उद्योग एक ऐसा उद्योग है जो फैशन की पीछे-पीछे भागता है। हर मौसम में यह अपनी पसंद बदलता जाता है और इसी लिए तैयार माल को भेजने में देरी खरीददार द्वारा ऑर्डर रद्द करने में बदल सकती है। दूसरी चुनौती ये है कि महामारी के बाद लोग विलास की चीज़ों के बजाय रोज़मर्रा की ज़रूरतों पर ज़्यादा खर्च करेंगे। इसलिए अगले छह-सात महीनों में उत्पादन के तौर-तरीकों को भी बदलना होगा।'

पोद्दार आगे कहते हैं, 'आमतौर पर अमेरिकी लोग हलके रंग के कपडे पसंद करते हैं। लेकिन आने वाले कई महीनों तक अपने कमरे में बंद रहने के मजबूरी के चलते उनकी पसंद में भी फर्क दिखने लगेगा। हो सकता है अब खुद को उत्साहित करने के लिए वे चटकीले रंग वाले कपड़े खरीदने लगें। इस अनुमानित बदलाव को ध्यान में रख कर हमें कपड़े तैयार करने होंगे। इसका मतलब है हमें निर्माण में आमूल-चूल बदलाव करना होगा जो बहुत मंहगा साबित होगा।'

निर्यातकों को यह डर भी सता रहा है कि विदेशी खरीददारों की भुगतान क्षमता भी प्रभावित हो सकती है, लिहाजा कम अवधि के भुगतान को बढ़ा कर वे मध्य अवधि का कर सकते हैं। पोद्दार कहते हैं, 'वे अभी हमारा बकाया भुगतान करने की स्थिति में नहीं है। वे भुगतान के लिए माल की डिलीवरी तारीख़ आगे खिसकाना चाहते हैं। वे भुगतान के लिए डिलीवरी से 120 दिन बाद की तारीख मांग रहे हैं। इस बात की भी संभावना है कि 3-4 महीनों बाद वे अपने हाथ खड़े कर लें और अध्याय 11 के तहत खुद को दिवालिया घोषित कर लें। इसलिए हम बड़ी खतरनाक स्थिति में फंसे पड़े हैं।"

दोबारा उत्पादन शुरू करना

दूसरी तरफ इस बात की भी संभावना है कि चार महीने के लॉकडाउन के बाद विकसित देशों में मांग में तेज उछाल आ जाये और खरीददार ताबड़तोड़ खरीददारी करने लगें। इसीलिये निर्यातकों का कहना है कि आगामी चार महीने निर्णायक हैं। इसलिए हस्तशिल्प निर्यातकों के सामने फौरी तौर पर चुनौती लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद उत्पादन प्रक्रिया को दोबारा पटरी पर लाना है। लेकिन खरीददारों के आश्वासन के अभाव में ऐसा कर पाना मुश्किल है।

यपुर के एक अन्य निर्यातक विकास सिंह का कहना है, 'अगर हम घरेलू खरीददारों के लिए उत्पादन शुरू करने की कोशिश कर भी लें तो भी ये चुनौती तो बनी रहेगी कि हम अपनी फैक्ट्रियों में कोरोनावायरस को फैलने से कैसे रोकेंगे। हमारे कारीगर अपने पैतृक निवास स्थानों को जा चुके हैं। वे तब तक वापिस नहीं लौटेंगे जब तक आश्वस्त न हो जाएँ कि उत्पादन स्थाई रूप से शुरू हो रहा है। अभी हमारे पास 25-30 फीसदी कामगार ही बचे हैं, जो यहीं फैक्ट्री के पास रह रहे हैं।'

निर्यातकों ने केंद्र और राज्य सरकारों को प्रतिवेदन दे कर मांग की है कि उनके द्वारा लिए गए कर्ज़े के वापसी (ईएमआई) की तिथि को आगे बढ़ाया जाये और उस पर ब्याज माफ़ कर दिया जाए। सांगानेर स्थित NGO शिल्पी संस्थान के मालिक ब्रिज बल्लभ उड़वाल कहते हैं, 'नहीं तो मालिकों के पास अपने कारीगरों को तनख्वाह देने के पैसे भी नहीं बचेंगे।'

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इस दौरान इस उद्योग में रोज़ मज़दूरी कर खाने वाले लगभग एक लाख कामगारों को हर दिन ये चिंता खाये जा रही है कि कहीं उन्हें 1-2 महीने और बिना कमाए खाली ना बैठना पड़ जाए। हाथ से ब्लॉक प्रिंटिंग करने वाले मोहम्मद खलील कहते हैं, 'अगर ये संकट आगे खिंच जाता है तो मेरे पास रोज़ी-रोटी कमाने का दूसरा कोई साधन नहीं है। अपने पैतृक गांव में भी मेरे पास खेती की ज़मीन नहीं है। मैंने जीने के लिए बस यही काम सीखा है।' मोहम्मद खलील उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद ज़िले से हैं और सांगानेर में अपने परिवार के ८ सदस्यों के साथ रहते हैं।

उम्मीद बाकी है

फिर भी अंधेरी सुरंग के अंत में रोशनी की किरण भी दिखाई दे रही है। निर्यातकों को पूरी उम्मीद है कि लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद जब बाजार चढ़ेगी तो हो सकता है कि कपड़ा उत्पादक और खरीददार चीन से निकल कर वियतनाम, बांग्लादेश और भारत का रूख़ करें। तब तक, हालाँकि, सांगानेर में फंसे पचास हज़ार से भी ज़्यादा शिल्पकार इसी उधेड़-बुन में दिन काट रहे हैं कि अपने गाँव वापिस लौट जाएँ या फिर इस उम्मीद में यहीं बने रहें कि उनके दिन भी फिरेंगे और वे फिर से कमाई करने लगेंगे।

(इन्दर बिष्ट पेशे से पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं, उनकी यह रिपोर्ट इंडिया स्पेंड से साभार ली गयी है.)

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