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शिक्षा

Uttarakhand Open University के फर्जी दस्तावेजों वाले प्रोफेसर ने 'जनज्वार' को भेजा लीगल नोटिस, चोरी और सीनाज़ोरी पर उतारू मुन्नाभाई

Janjwar Desk
20 Sep 2021 1:48 PM GMT
जनज्वार ने उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में फर्जी भर्ती घोटाले को प्रमुखता से उठाया था
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(खबर का असर: उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के फर्जी प्रोफेसर ने भेजा जनज्वार को लीगल नोटिस)

Uttarakhand Open University: फर्जी एसोसिएट प्रोफेसर ने जनज्वार को नोटिस जारी कर धमकी दी है.....

Uttarakhand Open University जनज्वार। उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय (Uttarakhand Open University) में प्रोफेसर भर्ती घोटाले (Recruitment Scam) पर राजनीति गर्माने के बाद भी अब तक दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार में लिप्त व्यक्ति अब तथ्यों पर आधारित आजाद पत्रकारिता को कानून का डर दिखाने लगे हैं। जंतु विज्ञान विभाग में फर्जी दस्तावेजों के बल पर एसोसिएट प्रोफेसर (Associate Professor) बने प्रवेश कुमार उर्फ पीके सहगल (P.K.Sehgal) ने 'जनज्वार' को लीगल नोटिस भेजकर कोर्ट में मानहानि का दावा करने की धमकी दी है।


'जनज्वार' ने मुक्त विश्वविद्यालय में हुई प्रोफेसर भर्ती महाघोटाले (Fake Professor Recruitment Scam) पर कई खबरें प्रकाशित की, उनमें से एक खबर "उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में मुन्ना भाई बने प्रोफेसर, विषय विशेषज्ञों ने नकारा लेकिन कुलपति ने स्वीकारा" नाम से थी। इसमें बताया गया था कि किस तरह से प्रवेश कुमार सहगल ने दस्तावेजों में हेराफेरी की थी। सभी दस्तावेज आरटीआई के माध्यम से प्राप्त किये गये हैं।

सहगल ने अपने वकील राजीव भट्ट (Rajeev Bhatt) के नाम से 'जनज्वार' को नोटिस भेजा है जिसमें उन्होंने जानबूझकर तथ्यों से भटकाने की कोशिश की है। नोटिस में जिस खबर का ज़िक्र किया गया है उसमें सहगल का नाम तक नहीं है। 'जनज्वार' ने पहली खबर "उत्तराखण्ड ओपन यूनिवर्सिटी नियुक्ति महाघोटाला, कुलपति ने इंटरव्यू से 7 माह पहले ही तय कर लिये थे नाम" प्रकाशित की थी और आरटीआई के माध्यम से मिले दस्तावेजों की मदद से बताया था कि मुक्त विश्वविदयालय में भ्रष्टाचार किस कदर जड़ें जमाये है। सहगल ने इसी खबर पर ऐतराज जताया है। उनकी समझदारी का जलवा ये है कि उन्होंने 'जनज्वार' के संपादक को नोटिस भेजने की बजाय ऑनरेरी सलाहकार को नोटिस भेजा है।

"मुन्नाभाई" वाली ख़बर में सहगल की हेराफेरी के दस्तावेज पेश किये गये थे और उनके अनुभव संबंधी प्रमाण पत्रों की गड़बड़ी को सामने रखा गया था। सहगल बड़ी चालाकी से उन दस्तावेजों पर बात नहीं करते।

'जनज्वार' ने सहगल की सभी गड़बड़ियों के साथ उनके शोध पत्रों की गुणवत्ता पर भी सवाल उठाये थे। उन्होंने जिन अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में अपने शोधपत्र प्रकाशित करवाये हैं उनकी प्रामाणिकता पर संदेह जताया था। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है उन्होंने "इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एंटोमोलॉजी रिसर्च" में अपना पेपर प्रकाशित दिखाया है। वहीं वे ये भी दावा करते हैं कि वे उस जर्नल के एडिटर भी हैं।


खुद के जर्नल में प्रकाशित पेपर्स को अकादमिक बिरादरी मान्यता नहीं देती है। उसी खबर में अंग्रेजी में उनका हाथ तंग होने की बात कही गई थी जिसका सबूत उनका वो आवेदन पत्र है जिसमें उन्होंने उल्टी-सीधी अंग्रेजी लिखी है। किसी भी एडिटर के लिए विषय की जानकारी के साथ भाषा का ज्ञान भी बेहद जरूरी होता है लेकिन उनकी भाषा और पेपर उनकी पोल खोल देता है।

सहगल अपने आवेदन पत्र में लिखते हैं-

आई एम एडिटर्स ऑफ इंरनेशनल जर्नल ऑफ एंटमोलॉजी रिसर्च आई एम फैलो मेंबरशिप सर्टिफिकेट एफ.एस.ई.जेड.आर.आई हैव राइटिंग डिफेरेंट बुक्स ऑन जुलॉजी सब्जेक्ट एंड एंटमोलॉजी एग्रीकल्चर फील्ड। (दस्तावेज संग्लग्न है)।


हैरानी की बात ये है कि सहगल ने जितने भी जर्नल्स में शोध पत्र प्रकाशित किये हैं वे प्रीडेटरी जर्नल्स यानी पैसा लेकर छापने वाले संदिग्ध जर्नल्स की लिस्ट में इंटरनेट पर विवादित हैं। मसलन उन्होंने अपना एक शोध पत्र "इंटरनेशलन जर्नल ऑफ करंट एडवांस्ड रिसर्च" journalijcar.org में प्रकाशित कराया है। उस जर्नल को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्वानों ने प्रीडेटरी बताया है। दिये गये लिंक में जाकर इस जर्नल की असलियत का पता लगाया जा सकता है- https://predatoryjournals.com/journals/

इसी तरह उनके बाकी शोध पत्र भी संदेह के घेरे में हैं। उनकी भाषा और गुणवत्ता की जांच देश के जाने-माने और निष्पक्ष जंतु वैज्ञानिकों से की जा सकती है। उनके प्रकाशनों की सूची और शोध पत्रों का नमूना यहां पर दिया जा रहा है। पाठक उनकी गुणवत्ता का अनुमान अपने स्वतंत्र विवेक से लगा सकते हैं। थोड़ी सी जहमत उठाने पर उनकी असलियत सामने आ जायेगी। जरूरत पड़ने पर 'जनज्वार' जंतु वैज्ञानिकों से उनके शोध पत्रों पर चर्चा करवा सकता है। (सहगल के पेपर्स की लिस्ट संग्लग्न है)

तथाकथित अंतरराष्ट्रीय जनरल्स में प्रकाशित सहगल के तीन शोध पत्रों का नमूना यहां पर दिया जा रहा है। सभी में थोड़ा हेरफेर कर एक ही बात दोहरायी गई है। यहां तक कि कई जगह भाषा भी एक जैसी है। ये सीधे-सीधे प्लेजियरिज़्म (साहित्य चोरी) का भी मामला बनता है। एब्स्ट्रैक्ट में मेन आर्टिकल से ही एक पैरा उठा लिया गया है। ये तीनों ही पेपर अंतरराष्ट्रीय तो छोड़िये बच्चों की पत्रिका में भी जगह नहीं पाने लायक हैं। उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्याल सहगल जैसे विद्वानों को प्रोफेसर बनाकर देशभर में अपना नाम रौशन कर रहा है। धन्य हैं आरएसएस शिरोमणि कुलपति ओम प्रकाश नेगी! (तीन शोध पत्रों के नमूने संग्लग्न हैं)

दरअसल बात ये है कि कई दूसरे प्रोफेसरों के साथ ही सहगल की एसोसिएट प्रोफेसर पद पर भर्ती में नियमों की अनदेखी की गई है। उनके फर्जी दस्तावेज हमारे पास हैं। सहगल एसोसिएट प्रोफेसर बनने से पहले 500 रुपये प्रति क्लास के हिसाब से नितांत अस्थाई व्यवस्था के तहत पढ़ा रहे थे। जबकि एसोसिएट प्रोफेसर बनने के लिए न्यूनतम 8 साल तक असिस्टेंट प्रोफेसर के वेतनमान पर काम करना जरूरी है।

इसी तरह विश्वविद्यालय के अनगिनत फर्जीवाड़े के द्स्तावेज भी हमारे पास हैं लेकिन एक राष्ट्रीय समाचार संस्थान होने की वजह से एक राज्य की खबरों को बहुत ज़्यादा स्थान दे पाना हमारे लिए संभव नहीं। फिर भी हमने मुक्त विश्वविद्यालय के भ्रष्टाचार को उठाकर अपने पत्रकारीय धर्म का निर्वहन किया है।

सहगल को आवेदन पत्रों की छंटनी करने वाली स्क्रीनिंग कमेटी ने एसोसिएट प्रोफेसर (Associate Professor) पद के योग्य नहीं पाया था। कुलपति ओम प्रकाश नेगी ने सारे नियमों की अनदेखी कर उनकी नियुक्ति कर दी। उनके अनुभव के दस्तावेज़ों में ओवरराइटिंग की गई है और वे जरूरी शर्तें पूरी नहीं करते हैं। ठीक इसी से मिलता-जुलता मामला पत्रकारिता विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर बने राकेश रयाल का भी है। इस सिलसिले में 'जनज्वार' पहले ही खबरें प्रकाशित कर चुका है।

प्रोफेसर के सभी 25 पदों पर भी कुलपति ने भयानक धांधली की है। आरक्षण के रोस्टर से खिलवाड़ कर महिलाओं का 30 फीसदी आरक्षण गायब कर दिया और नियमों को दरकिनार कर आरएसएस कार्यकर्ताओं को भर्ती किया गया। इस सिलसिले में सबसे बड़ा सबूत राज्यपाल की तरफ से सरकार से जांच के लिए कहना है। लेकिन खुद शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत (Dhan Singh Rawat) का नाम इसमें आने की वजह से मामले को दबा दिया गया। यहां तक की राज्यपाल (Uttarakhand Governor) को भी अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी।

राज्य के शिक्षा मंत्री धन सिंह रावत (Dhan Singh Rawat) कहते हैं कि प्रोफेसरों के चयन में यूजीसी नियमों का पालन किया गया है। हमारे पास मौज़ूद दस्तावेज बताते हैं कि यूजीसी के हर नियम को ठेंगा दिखाया गया है। अगर मामला न्यायालय में जाता है और इन भर्तियों की न्यायिक जांच होती है तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।

विश्वविद्यालयों में फर्जी भर्ती की खबरें कई मीडिया संस्थानों ने चलाई है, लेकिन सब से ज्यादा तथ्यात्मक तौर पर 'जनज्वार' ने ही इस महाघोटाले का भंडाफोड़ किया इसलिए बौखलाये लोग हम पर निशाना साध रहे हैं। एक पत्रकारीय संस्था के तौर पर हमारा काम तथ्यों को जनता के सामने लाना है। लेकिन कोई अगर चुनौती देता है तो हम पूरी ईमानदारी से तथ्यों के पक्ष में खड़े रहेंगे और अपनी लोकतांत्रिक भूमिका निभाएंगे।

फर्जी भर्ती घोटाले पर उत्तराखंड की जानी-मानी हस्तियों की प्रतिक्रिया

राजीव नयन बहुगुणा (प्रख्यात पत्रकार) : "भारतीय जनता पार्टी की यह बहुत पुरानी रणनीति है। सत्ता में आते ही यह लोग अकादमिक व प्रशासनिक क्षेत्रों में घुसपैठ करते हैं। जनता पार्टी की तत्कालीन सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री बने लालकृष्ण आडवाणी ने सबसे पहले संघ पोषित विचारधारा के पत्रकारों की सरकारी प्रकाशनों व आकाशवाणी में घुसपैठ कराई थी। ऐसी घुसपैठ से यह अपने लोगों को रोजगार तो मुहैया कराते ही हैं, अपने वैचारिक एजेंडे को सत्ता जाने के बाद भी गुपचुप लागू करने में सफल होते हैं। यह केवल भ्रष्टाचार का नहीं, कुटिलता का प्रयोग कर अपने एजेंडे को व्यापक रूप देने का भी काम है।"

राजीव लोचन शाह (वरिष्ठ पत्रकार और राज्य आंदोलकारी) : "ओपन यूनिवर्सिटी की नियुक्तियों में हुआ भ्रष्टाचार के इस खेल को न्यायालय के दम ही खत्म किया जा सकता है। इस भ्र्ष्टाचार में सरकार न केवल सीधे तौर पर लिप्त है बल्कि इस पूरे खेल की पटकथा ही शिक्षा मंत्री की देखरेख में लिखी गयी है। ऐसे में छिटपुट मांगों से इन नियुक्तियों को रद्द नहीं करवाया जा सकता। बहुत बड़ा कोई आंदोलन (जिसकी की उत्तराखण्ड में अब दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है) या कोर्ट के माध्यम से ही इन नियुक्तियों को रद्द करवाया जा सकता है। पिछले दिनों दून विश्वविद्यालय की ऐसी ही नियुक्ति को कोर्ट के माध्यम से रद्द करवाया जा चुका है। यहां तक कि कुमाऊँ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर की फर्जी डिग्री का मामला भी न्यायालय में ही विचाराधीन है। मुक्त विवि के मामले को भी यदि कोई जनपक्षधर व्यक्ति न्यायालय की चौखट तक लाये तब ही इन नियुक्तियों को रद्द करवाया जा सकता है।"

चन्द्रशेखर करगेती, (अधिवक्ता, उत्तराखंड उच्च न्यायालय) : "मुक्त विवि की नियुक्तियों का पूरा मामला ही प्रथमद्रष्टया संविधानिक व्यवस्था का उल्लंघन है। नियुक्तियों में आरक्षण रोस्टर से जो छेड़खानी की गई है, वह गैरकानूनी है। दूसरी बात इस विवि में जो विषय हैं ही नहीं, उन विषयों के पदों पर प्रोफेसर की नियुक्ति कैसे हुई, यह भी बड़ा सवाल है। तीसरी बात, पत्रकारिता विभाग में जिस पद के लिए जो अहर्ताएं निर्धारित की गई थी, उनके सापेक्ष नियुक्ति न होना ही घोटाले की पुष्टि करता है।"

सुभाष धुलिया (पूर्व वीसी, उत्तराखण्ड ओपन यूनिवर्सिटी): "मुक्त विवि की नियुक्तियों के मामले में नियमों को तो ताक पर रखा ही गया है सत्ता का दबाव भी साफ दिख रहा है। नियुक्तियों में गड़बड़ तो निश्चित तौर पर हुई है। कुलपति ने शिक्षा मंत्री के दबाव में यह सब किया है। नैतिक रूप से तो यह गलत है ही मंत्री को खुश करने के लिए सभी नियम ताक पर रखकर राज्य के बेरोजगारों के साथ भी खिलवाड़ किया है।"

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